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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ बल्ली २
जीवना अन्नप्रलयाश्च सर्वाः प्रजाः ।
कारणमन्नमतोऽनप्रभवा अन्न- इसलिये सम्पूर्ण प्रजा अन्न उत्पन्न ! होनेवाली, उनके द्वारा जीवित रहनेवाली और अन्न ही न हो जानेवाली है। क्योंकि ऐसी बात है, इसलिये अन्न सम्पूर्ण देहदाहप्रशमनमन्त्र- प्राणियोंकि केके रान्तापको शान्त करनेवाला कहा जाता है ।
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यस्माचैवं तस्मात्सव सर्व
प्राणिनां
शुच्यते ।
अन्नाविदः फलमुच्यते— '
अन्नरूप की उपासना करने
' वालेका [ प्राप्तव्य ] फल तलावा सर्व वै ते समस्तमन्नजात- जाता है- निश्चय ही सम्पूर्ण अन्न
साप्नुवन्ति । के ? येऽन्नं ब्रह्म यथोक्तमुपासते । कथम् ? अन्नजो
।
ऽन्नात्मान्नप्रलयोऽहं तस्मादन्नं
ब्रह्मेति ।
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।
जो उपर्युक्त अन्न ही ब्रह्मरूपले समूहको प्राप्त कर लेते है | कौन ? उपासना करते है । किस प्रकार [ उपासना करते है ] रा तरह कि में अन्न उत्पन्न अन्नस्वरूप और अन्न ही दोन हो जानेवाला हूँ; इसलिये अन्न है |
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कुतः पुनः सर्वान्नप्राप्तिफल
'अन्न ही आत्मा है' इस प्रकारकी उपासना किस प्रकार सम्पूर्ण भन्नको प्राप्तिरूप फव्वाली है, सो बतलाते
मन्नात्मोपासनमित्युच्यते । अन्नं
हि भूतानां ज्येष्ठम् । भूतेभ्यः हैं अन्न ही प्राणियों का ज्येष्ट है— प्राणियोंसे पहले उत्पन्न होनेके पूर्व निष्पन्नत्वाज्ज्येष्ठं हि यस्मा - ! कारण, क्योंकि वह उनसे ज्येष्ट है तस्मात्सर्वौषधमुच्यते । तस्मादुपइसलिये वह सर्वोपध कहा जाता है । अतः सम्पूर्ण अन्नकी आत्मारूपसे उपासना करनेवालेके लिये सम्पूर्ण अन्नको प्राप्ति उचित ही है । अन्नसे न्नप्राप्तिः । अन्नाद्भूतानि जायन्ते । | प्राणी उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न
पन्ना सर्वान्नात्मोपासकस्य सर्वा