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________________ ३८ तैत्तिरीयोपनिषद् [ चली मनो विज्ञानम् मनुतेर्ज्ञान -ज्ञानाची 'मन्' धातुसे सिद्ध होनेके कारण 'मन' शब्दका अर्थ 'विज्ञान' कर्मणः, तन्मयस्तत्प्रायस्तदुपल- है, तन्मय-तप्राय अर्थात् विज्ञान स्यत्वात्। मनुतेऽनेनेति वा मनो अन्तःकरणं तदभिमानी तन्मय मय है क्योंकि उस (विज्ञानस्वरूप ) से ही वह उपलब्ध होता है; अथवा जिसके द्वारा जीव मनन करता है वह अन्तःकरण ही 'नन' है उसका अभिस् वा अमृतोऽमरणधर्मा नानी, तन्मय अथवा उसले उपलक्षित हिरण्मयो ज्योतिर्मयः 1 होनेवाला अमृत - अमरणधर्मा और हिरण्य-ज्योति है । तस्यैचंलक्षणस्य हृदयाकाशे हृदयाकाशमें साक्षात्कार किये साक्षात्कृतस्य विदुष · हुएउस ऐसे लक्षणोंवाले तथा विद्वान् 1 ! के आत्मभूत इन्द्र (ईश्वर) के ऐसे रूपकी प्राप्तिके लिये मार्ग बतलाया दृशस्वरूपप्रतिपत्तये जाता है - हृदयदेशसे ऊपर की ओर मार्गोऽभिधीयते । हृदयादूर्ध्वं प्रवृ- जानेवाली सुषुम्ना नामकी नाडी योगत्ता सुषुम्ना नाम नाडी योग- शासने प्रसिद्ध है । वह 'अन्तरेण शास्त्रेषु च प्रसिद्धा । सा चान्त- तालुके अर्थात् दोनों तालुओंके रेण मध्ये प्रसिद्धे तालुके तालु बीच में होकर गयी है। और तालुओंके कयोर्गता । यथैप तालुकयोर्मध्ये ' वीचमें यह जो स्तन के समान मांसखण्ड लटका हुआ है उसके भी स्तन इवावलम्बते मांसखण्डस्तस चान्तरेणेत्येतत् । यत्र च बीचमें होकर गयी है । तथा जहाँ यह केशान्तः केशानामन्तोऽवसानं ! केशान्त-केशोंके मूलभागका नाम 'केशान्त' है वह जिस स्थानपर मूलं केशान्तो विवर्तते विभागेन विभक्त होता है अर्थात् जो मूर्धवर्तते मृर्धप्रदेश इत्यर्थः, तं देशं प्रदेश है, उस स्थानमें पहुँचकर प्राप्य तत्र विनिःसृता व्यपोहा | जो निकल गयी है, अर्थात् जो विभज्य विदार्य शीर्षकपाले | शीर्षकपालों-मस्तक के कपालोंको I " हृदयाकाशस्त्र मोवोपय्यै आत्मभृतस्येन्द्रस्ये नार्गः ·
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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