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________________ अनु०६] शाहरभाष्यार्थ शिरकपाले विनिर्गता या सेन्द्र- पार-विभक्त यानी विदीर्ण करती हुई योनिरिन्द्रस ब्रह्मणो योनिमार्गः बाहर निकल गयी है वही इन्द्रयोनि इन्द्र अर्थात् नामकी योनि-मार्गयानी खरूपप्रतिपतिद्वारमित्यर्थः । ब्रामवरूपको प्राप्तिका द्वार है। तय विद्वान्मनोमयात्मदी इस प्रकार उस सुषुम्ना नाडीद्वारा जाननेवाला अर्थात मनोमय आत्माPART मृन्ना विनष्क्रम्या का साक्षात्कार करनेवाला परुप न स्य लोकस्याधिष्ठा- गधंद्वारसे निकलकार इस लोकका " ताभरिति व्याहति- अधिष्ठाता जो महान् ब्रमका अङ्गरूपो योऽग्निमहतोब्रह्मणोऽङ्गभूत भूत 'भूः' ऐसा व्याहृतिरूप अग्नि है उस अग्निमें स्थित हो जाता है; स्तसिन्ननोप्रतितिष्ठत्यग्न्यात्मनेम अर्थात् अग्निरूप होकर इस लोक: लोकं व्यामोतीत्यर्थः। तथा भवको व्याप्त कर लेता है । इसी प्रकार चाह 'भुवः' इस द्वितीय व्याहृतिइति द्वितीयव्याहत्यात्मनि वायो। रूप वायुमें स्थित हो जाता है-इस प्रकार 'प्रतितिष्टति' इस क्रियाकी प्रतितिष्ठतीत्यनुवर्तते । सुवरिति (अनुवृत्ति की जाती है । तथा [ ऐसे तृतीयव्याहत्यात्मन्यादित्ये। मह ही ] 'सुवः' इस तृतीय व्याहृति रूप आदित्यमें और 'महः' इस इत्यङ्गिनि चतुर्थव्याहत्यात्मनि चतुर्यव्याहृतिरूप अङ्गी ब्रह्ममें स्थित ब्रह्मणि प्रवितिष्ठति । होता है। तेप्वात्मभावेन स्थित्वामोति उनमें आत्मखरूपसे स्थित हो वह मोभूतस्य ब्रह्मभृतः स्वाराज्यं ब्रह्मभूत हुआखाराज्य-खराड्भावको विद्रुप ऐकार्यम् स्वराड्भावं स्वयमेव प्राप्त कर लेता है अर्थात् जिस प्रकार ब्रह्म अङ्गभूत देवताओंका अधिपति राजाधिपतिर्भवति । अङ्गभूतानां है उसी प्रकार स्वयं उनका राजादेवानां यथा ब्रह्म । देवाश्च अधिपति हो जाता है। तथा उसके -
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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