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श्रीमद्-यशोविजय उपाध्याय-विरचित-अवचूरि-सहिता
तथा
संपादक कृत-[ हींदी]-भावार्थ-चन्द्रि का-समेता अज्ञातनामक-पूर्वधर-पूर्वाचार्य-प्रवर-विरचिता
स्तव - परिज्ञा
राजकोटस्थप्रभुदास बेचरदास पारेख इत्यनेन संपादिताः प्रकाशिताश्च श्रावक-बन्धु-धन-सहायेन ।
पतयः-[सं०] १०००, [हीन्दी] ५००
श्री वीर संवत्-२४९७
श्री-वि० सं० २०२७
इ० स० १९७१
व्यावर (राजस्थान ) स्थ-श्री कृष्णा आर्ट-मुद्रणालये
पृष्ठ–१०४ तथा ९६ पर्यन्ता मुद्रिताः।
शेष मुद्रक : वसंत प्रिन्टींग प्रेस, घीकांटा - अमदावाद
॥ मूल्यम् -(६) रूप्यक-पटकम् ॥
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ॐ अहम्
श्रीमद्-यशोविजय उपाध्याय-विरचित-अवचूरि-सरिता ......
तथा संपादक-कृत-[हींदी-भावार्थ-चन्द्रिका-समेता __ अज्ञातनामक-पूर्वधर-पूर्वाचार्य-प्रवर-विरचिता
स्तव - परिज्ञा
। रामकोटस्थ
प्रभुदास बेचरदास पारेख इत्यनेन संपादिताः प्रकाशिताश्च श्रावक-बन्धु-धन-सहायेन ।
प्रतयः-[सं०] १०००, [हीन्दी] ५००
श्री वीर संवत्-२४९७
श्री-वि० सं० २०२७
इ० स० १९७१
व्यावर (राजस्थान) स्थ-श्री कृष्णा आर्ट-मुद्रणालये
पृष्ठ-१०४ तथा ९६ पर्यन्ता मुद्रिताः ।
शेष मुद्रक : वसंत प्रिन्टींग प्रेस, घोकांटा - अमदावाद
॥ मूल्यम् - (६) रूप्यक - षट्कम् ॥
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प्रास्ताविक
१ स्तव परिक्षा
२०३ गाथामयी स्तव परिज्ञा प्रन्य श्री हरिभद्रसूरिवर विरचित पत्र वस्तु महाग्रन्थ में गाथा १९१० से १३१२ माथा तक में है। उस पर 'पञ्च वस्तु पर की श्री हरीभद्रवरिश्वरजीकी टीका भी है । पक्ष वस्तु ग्रन्थ आगमोदय समिति से छपा है।
उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजश्रीने आपना प्रतिमा शतक नामक ग्रन्थ की ६७ वी गाथा में यह स्तव परिज्ञा ग्रन्थ पूरेपूरा रख दीया है, और उसके पर अपनी अवचूरिका भी रची है।
जो यहां छपी गई है, और साथ में जो पश्च वस्तु प्रन्थ गत पाठ भेद है, वे [ ] कांस में बताये गये है। श्री उपाध्यायजी महाराजका कहना हैकि यह ग्रन्थ-दृष्टिवाद आदि से उद्धृत किया गया है।
. " इयं खल समुद्धृता सरस-इटिवादादितः "
इस ग्रन्थ की रचना दशपूर्वधर युमप्रधान आचार्यश्री बजस्वामिके बाद बुई मालूम पडती है। किन्तु कब हुई ? किन्हीं ने की ? पता नहिं । इसकी बहुत सी गाथायें पच्चाशक आदि ग्रन्थ में पाई जाती है । २ स्तव परिज्ञा का संबन्ध . __सर्व संग त्यागी पूज्य श्री मूनिमहात्माओं दिनभर अपने धर्मानुष्ठान द्वारा धर्मध्यान में रहते हुए भी बिच में रहता अवकाश में सुस्वाध्याय करने का शास्त्रानुसार रहता है। इसके अनुसंधान में - सत् शास्त्रों का स्वाध्याय करने के लिए ज्ञान परिज्ञा
और स्तव परिझा आदि सूचित किये गये हैं। स्तव परिज्ञा ग्रन्थ पूरेपूरा रख दिया गया है।
स्तव परिज्ञा में - द्रव्य स्तव और मावस्तव के स्वरूप के विचार है। ३ चार अनुयोग
संख्यातीत खुबीओं से भरे जैनधर्म में-जैन शासन में - जैन दर्शन में - चार अनुयोगरूपतया शास्त्र निरूपण की व्यवस्था की गई है।
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प्रदार्थ स्वरूप का निरूपण द्रव्यानुयोग में बताया गया है। उस पदार्थ का आत्मगुण के विकास आदि में उपयोग आदि चरणानुयोग में बताये गये है। गणितानुयोग और कथानुयोग उपरोक्त दो मुख्य अनुयोगों के सहकारी अनुयोगें मालूम पडतें हैं । पदार्थ का स्वरूप संख्या-नाप-वजन-प्रमाण आदि के गणित के नियमपूर्वक बताये जा सकते है । उसी तरह-चरणानुयोग से बताई गई बातें दृष्टान्त और कथा से प्राहाग्राह्यतया बता दी जा सकते है । कथायें दो प्रकार की रहती है। १ पतन विषयक, और गुण विकास विषयक । इसी तरह सकल शास्त्र रचना चार मुख्य अनुयोगों में व्यवस्थित रखी गई मालूम पडती हैं। ____ दृष्टान्त–पत्थर क्या है ! एक नक्कर पदार्थ है । द्रव्यानुयोग में बात आ .. गई। पत्थर की संख्या आदि बताई दी जावे, वह गणितानुयोग से बतायां जावे ।। जीवन में पत्थर का अच्छा और बुरा कौनसा उपयोग हो सके? यह चरणानुयोग का, और किसने कैसा उपयोग किया ! बह कथानुयोग का विषय बन जाय । गणित विना पदार्थ का योग्य स्वरूप दिखाया न जा सके, और कथा बिना चरण का पतन और विकास का स्वरूप असरकारक तया समझाया जा न सके । . आत्मा कैसा पदार्थ है ? परमाणु कैसा पदार्थ है ? यह द्रव्यानुयोग से बताया जा सके। और गणित के नियम से संख्या-प्रमाण-आदि बताये जा सके। और चरणानुयोग से आत्मा का विकास और पतन के स्वरूप बताये जा सके । कथानुयोग से असर कारकपना दिखाया जावे । इस हेतु से चार अनुयोग की निरूपण पद्धत्ति खूब व्यवस्थित पद्धत्ति भी मालम पडेगी।
आध्यात्मिक गुण विकास के कई स्वरूप दिये गये है। जो मोक्ष की प्राप्ति में ... उपयोगी होकर, मोक्षमार्ग रूप बना रहे, जिसके नाम-धर्म, रत्नत्रयी, चरण-करण, चारित्र, आध्यात्मिक विकास, मात्मिकगुण विकास, मोक्षमार्ग, आदि कई नाम प्रसिद्ध है।
तो- स्तव परिज्ञा का विषय - चरणानुयोग की साथ संबन्ध रखता है। ४ दो प्रकार के स्तव
भाव स्तव का लक्षण-अद्वारह हजार शीलांग का पालन बताया है। और
द्रव्य स्तव का लक्षण-भाव स्तव की स्थिति प्राप्त करने के लिए जो जो किये जावे, वे सभी द्रव्य स्तव । उसमें जिन प्रतिमा पूजा से लेकर सभी का समावेश हो जाता है। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति, देश विरति का पालन, मादि उसमें समाविष्ट किये गये ।
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५ स्याद्वाद का आश्रय
द्रव्यानुयोग में - अनेक सांगोपांग पद्धत्ति से विश्व का निरूपण जैन शास्त्रो मेंजैन शासन में है । प्रत्येक पद्धत्ति का निरूपणे स्वतंत्र शास्त्र रूपतया भी किये गये हैं । उसी तरह - चरणानुयोग में भी चरण विषयक स्वतंत्र - स्वतंत्र अनेक पद्धतियाँ बताई गई । द्रव्यानुयोग दृष्टि से विश्व का स्वरूप निरूपण अनेक दृष्टिओं से अनेक पद्धत्तियों से किया गया है । तद्दन विभिन्न विभिन्न स्वरूप के मालूम पडने पर भी स्याद्बाद से परस्पर के संबन्ध बैठ जाता है । उसी तरह से चरणानुयोग दृष्टिसे कई पद्धत्तियाँ आत्मगुण विकास प्रक्रिया से बताई गई है । इस ग्रन्थ में दृष्टान्त तया द्रव्यभाव स्तव, और दान-शील तप-भाव को घटा कर बह बताया गया है । उसी तरह से कइ प्रकार की पद्धत्तियाँ शाखों में बताई गई है । ६ वेद शास्त्र विषयक विचार
इस ग्रन्थ में जिन प्रतिमा पूजा में हिंसा अहिंसा का विचार किया गया है । यज्ञार्थ की हिंसा अहिंसा विषयक विचार भी बताया है। वेद संबंधी पौरुषेय- अपौरुषेय की प्रासङ्गिकचर्चा भी की गई है । उसविषय में धर्म शास्त्रीयता आदि के विषय में (गुजराती) भावार्थ चन्द्रिका के प्रास्ताविक में कुछ मौलिक बातें लीखी जायेंगी ।
७ शारीरिक निर्बलता आदि कारणों से शुद्धिपत्रक नहीं दिया हैं। विज्ञवाचकवर्ग स्वयं योग्य सुधार समझकर वांचने की कृपा करें। अनेक स्खलनादि के लीए क्षमा याचना शिवाय दूसरा उपाय नहि । कृपया हिन्दी भाषा सुधार कर बांचीये ।
राजकोट-१ फागुन शुक्ला ५ मी
२०२७
प्रभुदास बेरदास पारेख
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नाम
अवत्रिकाकार-मङ्गलादि
पञ्च-वस्तु-प्रसङ्गसंगतिः
द्रव्य-भाव- स्तव व्याख्या
भूमि- शुद्धि
अ- प्रीतिपरित्यागः
काष्ठादि-दलशुद्धिः शुद्धा - शुद्ध - झानोपायाः भृतकाऽनऽतिसंधानम्
स्वा - Ssशय-वृद्धि:
जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा
सावचूरिक – स्तव - परिज्ञा
विषयानुक्रमः
अ- प्रधान द्रव्य-स्तवस्य तुच्छत्वम् द्रव्य-स्तव-भाव-स्तवयोर्भेद - विचारः
पृष्ठ
द्वयोः फले
शीलाऽङ्ग-स्वरूपम् तस्य विस्तृता ऽर्थः
इदमऽत्र रहस्यम्
सु-साधुः
प्रमाण - सिद्ध-भाव-साधुः प्रमाण - सिद्धत्वे सु-वर्ण- दृष्टान्तः
डा-न्तोपनयः
१०
११
श्री-सङ्घ-पूजा
१३
प्रतिदिन - जिन-पूजा-विधिः
१६
द्रव्य - स्तवस्य भाव- स्तवे हेतुत्वा--हेतुत्वे १७
अ- प्रधान- द्रव्यस्तव - विचारः
१८
प्रधान- द्रव्य- स्तव - लक्षण-विचारः
२०
२१
२२
२५
२ अ-साधुः
३ अ. साधु-सु-साधु-स्वरूपे
नाम
अ-साधुः
39
४ साधु-परीक्षा
५
भाव-चारित्रम्
६ द्रव्य - स्तव-भाव - स्तवयोः संबन्धः
७
मुनीनामऽपि द्रव्य - स्तवः
८ " बहुकानां प्रामाण्यमेव" इति न
बहुगत- प्रामाण्ये दोषः
बहूनां म्लेच्छकानां किं न प्रमाणम् ?
म्लेच्छ. - वाक्य- वेद- वाक्य- चर्चा
विद्वद्भिर्विचार्यम्
संभव रूप-स्व-रूपम्
जिन भवनाऽऽदि-गुण-साधनता
जिन भवना ssदावs - हिंसा-सिद्धिः
हिंसायामs - धर्मः
जिन भवना-ssदाव-ऽहिंसा
पात्र - भेदे हिंसा - तारतम्यम्
२७ यतनयाऽल्पा हिंसा, नाऽपि
२८
यतना - महत्त्वम्
३१ आब-जिनोपकारः
३६ निवृत्तिःप्रधाना हिंसा अहिंसा च
३९
पूजया चोपकाराऽनुपकारौ कथम् ?
पूज्य पूजा - फळ - चर्चा
वेद - वचनं न संभवत्स्व-रूपम्
४३
४४
पृष्ठ:
४५
४६
४७
४८
४९
५०
५१
६५
६६
६७
६८
७०
७१
७२
७३
७४
७५
७६
७७
७८
७९
८०
८१
८२
८३
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नाम
पृष्ठ
-S
८६
वेद-वचना-s- पौरुषेयत्व - परिहारः dar-s पौरुषेयत्व परिहारः
८७
८७
प्रामाणिक परंपरा-संप्रदाया- भावौ प्रामाणिक परंपरा - संप्रदाया-ऽभावौ जिना-ssगमेऽ पौरुषेयत्वाक्षेप-परिहासै ९०
८९
वक्त्र-ऽघीनं वचनम् सन्न्यायो न लघुः कर्तव्यः
वेदेऽ-हिंसा-हिंसोपदेशः इति वेद - विचार:
५०)
२२)
१००)
२००)
१००)
५७२
२०० )
१००)
२५०)
५५०
९१
९२
११२२
नाम
द्रव्य-भाव- स्तव - विचारश्व
द्रव्य-भाव- स्तवा ऽधिकारिणः
तयोरऽल्पत्त्व - महत्त्व
तयोर्दाना - ssदिषु घटना दाना -ssदि-क्रमः,
परस्पर- घटनाया अतिदेशश्च
उपसंहारः, समाप्तिश्च
३८ तम गाथा - परिष्कार - हार्दम् तिलक-प्रशंसा (प्रासङ्गिकम् )
2 m x 3 w
श्री जीवराजजी रामपुरीयाजी की पेढी में जमा
श्री लक्ष्मीलालजी संपतलालजी लुंकड - सोलापुर
श्री आसकरणजी वेद - पटणा
श्री नेमीचंदजी वेद- पटणा
पृष्ठ
९३
प्राथमिक द्रव्य सहायकों की नामावली
( द्रव्य के योग्य प्रमाण में पुस्तकों भेजने का )
१००) श्री जोधपुर ( मारवाड) के एक गृहस्थ, मारफत लीलाधर भाइ काळीदास
देसाई
श्री फतह चंदजी कोचर — कलकत्ता
श्री चंपालालजी कोचर
19
श्री छोटेलालजी सुराणा - - कलकत्ता [ पुष्पाबहिन के स्मरणार्थं ]
श्री नेमचंद लक्ष्मीचंद -सलोत - दाठा
श्री जीवराज अगरचंद गुलेच्छा - फलोधि
९४
९५
९६
९७
९८
९९
१०४
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[हिन्दी] भावाऽर्थ चन्द्रिका-युक्त स्तव-परिज्ञाका
विषयानुक्रम
नाम
अवचूरिकार का मंगलादि
प्रस्तावना
ग्रन्थ प्रारंभ
द्रव्य-भाव-स्तव - व्याख्या
बिन भवन कराने का विधि
भूमि-शुद्धि
काष्ठादि-दल-शुद्धि
कर्मकर वर्ग को संतोष-प्रदान
बिंब प्रतिष्ठा विधि
श्री संघ-पूजाका अति महत्त्व
श्री संघ का महत्व
आगे का पूजा विधि
पूजा विधि शास्त्र विहित है
प्रधान- अप्रधान द्रव्य स्तव
• प्रधान द्रव्य स्तव की व्याख्या द्रव्य-भाव स्तव में औचित्य द्रव्य स्तव में भाव की अल्पता सौषध - विनौषध से रोग हरण द्रव्य स्तव से भाव स्तव बडा है अट्ठारह सहस्त्र शीलांग स्तदों से लाभ
भाव स्तव का स्वरूप
अट्ठारह शोलांग रूप-भाव- स्तव
७
उदारता का फल और सु-आशय की वृद्धि ८
जिन बिंब कराने का विधि
९
1
पृष्ठ
नाम
२ शीलांगों का स्वरूप
२
२
३
४
५
६
१.०
११
१२
१३
१४
१५
१६
पृष्ठ
२५
शीलांगो का अखंडपना
२७
उसमें सूत्र प्रामाण्य
३०
आज्ञा से आराघकभाव
३१
उत्सूत्र प्रवृत्ति से कर्म बन्ध
३२
गीतार्थ - निश्रित- मुनि
३३
गीतार्थ की और तन्निश्रित की
३४
विरतिभाब का एकपना
३५
मुनिपना के सच्चे गुण
३६
तैलपात्र घरका और - राधा वेधकरका दृष्टान्त ३८
३९
४०
४१
४२
४३
२१
२२
भाव साधु
सुवर्ण के गुण
चार प्रकार से परीक्षा
सु-साधु-स्वरूप
साधु परीक्षा
द्रव्य स्तव से भाव स्तव की प्राप्ति
४५
द्रव्य और भाव स्तव का परस्पर संबन्ध ४६
४७
४८
४९
१७ अनुमोदना रूप मुनि कृत द्रव्य स्तव ९८ प्रभु से अनुमोदितता का विचार
२०
द्रव्य स्तव की अनुमोदना
करण में कार्य रहता है
जिन भवनादि-प्रभु सम्मत
२२ उपचार - विनय-द्रव्य- स्तवरूप
२२
२३
मुनि की चैत्य वंदना
मुनि को गौण भाव से द्रव्य स्तव
५०
५१
५२
५३
५४
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________________
पृष्ठ
नाम
नाम कूप-दृष्टान्त
- ५५ यतना का सामर्थ्य द्रव्य स्तव की अनुमोदना ५८ यतना का महत्त्व मुनि की द्रव्य स्तव में अनुमोदना ५९ थोडा दोष भी लाभप्रद हिंसा-अहिंसा का विचार ६. उपकार का अभाव, हिंसा भी हिंसा-अहिंसा
६१ अनाशातना और अहिंसा लोक में प्रमाण के विषय में- ६३ पौरुषेय-अपौरुषेय विचार मूढेतर भाव योग का प्रामाण्य ६४ पौरुषेय-अपौरुषेयपना " सर्वज्ञ प्रमाता नहीं" पूर्व पक्ष ६५ वेद वचनो की असंभवत्रूपता मलेच्छो का वचन क्यों प्रमाण नहीं ? ६६ संभवत्-असंभवत्-विचार वचन मात्र प्रवर्तक नहीं ६९ वेदहिंसा-अहिंसा का उपसंहार भावापत्ति-निस्तार गुण
७० द्रव्य-भाव स्तव का उपसंहार आरंभान्तर की निवृत्तिदा प्रवृत्ति ७१ द्रव्य-भाव स्तवों की विशेषता वैध का दृष्टान्त
७२ द्रव्य भाव स्तव में भेद हिंसा धर्म न हो सके
७३ दानादि में द्रव्य-भाव स्तव-पना हिंसा में तार-तम्य
७४ उपसंहार हिंसा का अल्प-बहुत्त्व
७५
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प्रसिद्ध-श्रीमन्महोपाध्याय-यशो-विजय-गणि-वर-विरचिता-ऽवचूरिका सहिता
श्री-पूर्व-धर-पूर्वा-ऽऽचार्य-विरचितत्वेनोक्ता
स्तव-परिज्ञा
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[अवचूरिका-कार मङ्गलम् ]
अथ स्तव-परिज्ञया प्रथम-देशना-देश्यया
गुरोगरिम-सारया स्तव-विधिः परिस्तूयते. इयं खलु समुद्धता स-रस-दृष्टि-वादा-ऽऽदितः ।
श्रुतं निर-ऽघमुत्तमं समय-वेदिभिर्भण्यते. ॥१॥
अथ_ "स्तव-परिज्ञा अत्य-ऽन्तोपयोगिनी" इतियथा
पञ्च-वस्तुके दृष्टा,
तथा
लिख्यते। :
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द्रव्य-भाव-स्तव-व्याख्याः
+ "एतत्
गा० १-२ ] तथा हि :"एअमिहमुत्तम-सुअं 'आई'-सदाओ थय-परिणा-ऽऽइ."। "वणिज्जइ जीए थओ दु-विहो वि गुणा-ऽऽइ-भावेण." ॥१॥
उत्तम-श्रुतम्-उत्तमा ऽर्था
ऽभिधानात् । * आदि-शब्दात्
| स्तव-परिज्ञा-ऽऽदयः-प्राभृत-विशेषा . द्वार-गाथोक्ताः
. गृह्यन्ते । + तत्र
" का स्तव-परिज्ञा ?" इति प्रश्न-वाक्यमाऽऽश्रित्य, आह :"यस्याम्-ग्रन्थ-पद्धतौ
वर्ण्यतेस्तव:
गुणा-दि-भावेन-गुण-प्रधान-रूपतया, द्वि-विधोऽपि-द्रव्य-भावोपपद- गुणा-ऽधि-भावेन-गौणा-ऽधिक-प्रधानस्तव-वाच्यः
भावेन-इत्यऽपि पाठा-ऽन्तरा-ऽर्थः, “सा स्तव-परिज्ञा" इति-उत्तर-बाक्यं दृश्यम् ॥१॥ + उक्तमेवोपदिशति, :
दव्वे भावे अ थओ. “दव्वे-भाव-थय-रागओ विहिणा जिण-भवणा-ऽऽइ-विहाणं.” “भाव-थओ-संजमो सुद्धो." ॥२॥
. पञ्चा० ६-२ * "द्रव्यः" इति द्रव्य-विषयः स्तवः भवति ।
"भावः" इति भाव-विषयः + तत्र
"द्रव्ये-द्रव्य-विषयकः स्तवःभाव-स्तव-रागतः-*[ वक्ष्यमाण-भाव-स्तवा-ऽनुरागेण ] विधिना-[ वक्ष्यमाणेन ] जिन-भवना-ऽऽदि-विधानम्-[यथा-संभवं करणम्]
आदिना-जिन-बिम्ब-पूजा-ऽऽदि-ग्रहः।" "भाव-स्तवेच्छा-प्रयोज्य प्रवृत्ति-विषयो जिन-भवना-ऽऽदि-विधानं द्रव्य[ ] एतादृक्-कोष्ठका-ऽन्तर्गततया यन् निर्दिष्टम्, तद् ज्ञेयं मुद्रित-पञ्च-वस्तु-प्रन्यादुदृतमिति।
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________________
[भूमि-शुविः
गा० ३-४ ] स्तवत्वेन व्यवहार्यम्" इत्य-ऽर्थः । * "भाव-स्तवः-पुनः संयमः-साधु-क्रिया-रूपः शुद्ध:-निर-ऽतिचारः"॥२॥
"जिण-भवण-कारण-विही, :-सुद्धा भूमि, दलं च कट्ठा-ऽऽई,। भिअगा-ऽण-इ-संधाणं, सा-ऽऽसय-वुड्डी, समासेण." ॥३॥
पञ्चा० ७९. * "जिन-भवन-कारण विधि:- अयं द्रष्टव्य, :यदुतशुद्धा भूमिः-वक्ष्यभाणया शुद्धया, तथादलं च काष्ठा-ऽऽदि- [ शुद्धमेव ] ।
तथा
भृतक [ कानाम्]-कर्म-कराणाम् अन-ति-संधानम्-अ-व्याजेन वर्तनम् स्वा-5s(सु-आ) शयस्य-शुभ-मावस्य वृद्धि:-[वर्धनम् । समासेन-संक्षेपेण
एष विधिः" ॥३॥ * (भूमि-) शुद्धिमेवाऽऽह, :
“दव्वे भावे अ तहा सुद्धा भूमी" "पएस-5-कोला य। . दवे. “ऽ-पत्तिग-रहिया अन्नसि होइ भावे उ." ॥४॥
पश्चा० ७-१० * "द्रव्ये भावे च
भूमिः ।" * यथा-सङ्घयं स्व-रूपमाऽऽह :'प्रदेशे-तपस्वि-जनोचित | द्रव्ये-इति द्रव्य-शुद्धा ।" भ-कोला-अस्थ्या-ऽऽदि-रहिता
Page #14
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________________
गा०-५६-७ ]
। अ-प्रीति-परित्यागः * अ-प्रीति रहिता
| अन्येषाम्-प्राणिनाम-आसन्नानाम् "अ-समाधि-कारण-परिहारवती," इत्य-ऽर्थः-- भावे तु-भाव-शुद्धा" ॥४॥ एतदेव समर्थयति :-.. . "धम्म-ऽस्थमुज्जएणं सव्वस्सा-5-पत्तियं न कायव्वं.” । इय संजमो वि सेश्रो. इत्थ य भयवं उदा-ऽऽहरणं. ॥ ५॥ : धर्माऽर्थम्
अ-प्रीतिः उद्यतेन-प्राणिना सर्वस्य-जन्तोः
कार्या-[सर्वथा] इय-एवम्-परा--प्रीत्य-ऽ-करणेन । संयमोऽपि
श्रेयान्,-[नाऽन्यथा] । अत्र-अर्थ
उदाऽऽहरणम्। भगवान्-[स्वयमेव वर्धमान-स्वामी ] "कथम् ?" इत्याऽऽह :"सो तावसा-ऽऽसमारो तेसिं अ-प्पत्तियं मुणेऊणं । परमं अ-बोहि-बीअं, तओ गओ हंतऽकाले वि." ॥६॥
पञ्चा० ७-१५. * सः भगवान्
तेषाम्-तापसानाम् तापसा-ऽऽश्रमात-पितृव्य
अ-प्रीतिम्-अ-प्रणिधानम् भूत-मित्र-] कुल-पति-संबम्धिनः | मत्त्वा-मनः-पर्यायेण, "किं भूतम् ?" . परमम्
अ-बोधि-बीजम्-गुण-द्वेषेण, ततः-तापसा-ऽऽश्रमात् | "हन्त”-इत्युपदर्शने गतः-[भगवान]
अ-कालेऽपि-प्रावृष्यऽपि" ॥ ६॥ "इय सब्वेण वि सम्मं सकं अ-प्पत्तियं सइ जणस्स। णियमा परिहरियव्वं.” “इयरम्मि सत्तत्त-चिंताग्रो.” ॥७॥
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________________
गा०८-९]
(६)
[ काष्ठा-ऽऽद-दिल-शुद्धिः इय-एवम्
सदा-सर्व-कालम् सर्वेणाऽपि-पर लोका-ऽथिना जनस्य-प्राणि-निवहस्य सम्यग-उपायतः
नियमात-अवश्यन्तया शक्यम्
परिहर्तव्यम्-न कार्यम् । अ-प्रणिधानम्इतरस्मिन्-अ-शक्ये [हि] अ-प्रणिधाने | [स्व] सत्-तत्त्व-चिन्तैव-कर्तव्या।
"ममाऽयं दोषः" इति बहिर्मुखत्वे, अन्तर्मुखत्वे च-'औदासिन्यम्” ॥ ७॥
॥ उक्ता भूमि-शुद्धिः॥
* काष्ठा-ऽऽदि-शुद्धिमाऽऽह :कट्ठा-ऽऽई वि दलं इह सुद्धं, जं देवता-ऽऽदुपवणाओ। नो अ-विहिणोवणीअं, सयं च कारावियं जं नो. ॥८॥
पञ्चा०७१७ काष्ठाऽऽद्यापि दलम्
अत्र-विधाने
"शुद्धम्" इति विधेय-निर्देशः, यद्देवताऽऽद्युपवनाल
अ-विधिना-बलिव-इदि-मारणेन "आदिना-भिन्न-क्रमेण- उपनीतम्-आनीतम्,
स्मशाना-ऽऽदि-ग्रहः" स्वयं च
| कारितम्
यच् च-इष्टका-ऽऽदि । "तत्-कारि-वर्गतः क्रीतमुचित-क्रयेण" इत्युक्तेः॥८॥ तस्स वि अ इमो णेश्रो सुद्धा-ऽसुद्ध-परिजाणणोवाओ, :-। तक्कह-गहणाश्रो जो सउणेयर सन्निवाओ उ. ॥६॥
पञ्चा० ७-१८
नो
Page #16
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________________
गा० १०-११]
* तस्याऽपिच अयम्-वक्ष्यमाणः
(७) . [शुभा-ऽ-शुभ-ज्ञानोपायाः ।
शुद्धा-5-शुद्ध-प्राप्ति-परिज्ञानोपाय:-काष्ठा-ऽऽदे:--
* तत्-कथा-ग्रहणा-ऽदौ [प्रस्तुते] |
शकुनेतरयोः-शकुना-ऽ-पशकुनयोः सन्निपातः-मीलनम् ॥९॥
सुन्दराः
"कः सः?" इत्याह :नन्दा-ऽऽइ-सुद्धो सद्दो, भरिश्रो कलसो,ऽथ सुन्दरा पुरुसा.। सुह-जोगा-ऽऽई य सउणो. कंदिय-सदा-ऽऽई इयरो उ.॥१०॥
पञ्चा ७१९ + नन्द्या ऽऽदि-शुभ-शब्दः-आनन्द-कृत, अथ
तथाभृतः
पुरुषा:-धर्म-चारिणः, कलश:-शुभोदका ऽऽः,
शुभ-योगा-ऽऽदिश्व-व्यवहारः
लग्नाऽऽदिः * आक्रन्दित-शब्दा-ऽऽदिस्तु इतरः-अपशकुनः ॥१०॥
उक्ता दल-शुद्धिः। विशेषमाऽऽह :सुद्धस्स वि गहियस्सं पसत्थ-दिअहम्मि सुह-मुहत्तणं । संकामणम्मि वि पुणो विण्णेया सउणमा-ऽऽइया ॥११॥ दारं।
पञ्चा ७-२०॥ शुद्धस्याऽपि
संक्रामणेऽपि पुनः-तस्य गृहीतस्य-काष्ठाऽदेः
काष्ठाऽऽदेः प्रशस्त दिवसे-शुक्ल पञ्चम्या-ऽऽदौ विज्ञेयाः शुभ-मुहूर्तेन-केनचित् | शकुना-ऽऽदयः-आदेय-हेयतया ॥११॥
इति-बारम्
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१२-१३-१४ ]
। भृतका-ऽन-ऽति-संगानम् कारणे वि य तस्सिह भियगा-ऽण-ति-संधाणं न कायव्वं । अवि चाहिग-प्पयाणं. दिवा-दिट्ट-प्फलं एयं ॥ १२॥
पश्चा० ७-२१॥ * कारणेऽपि च
अति-संधानम्तस्य-जिन-भवनस्य इह
कर्तव्यम् , भृतकानाम-कर्म-करणाम
अपि च
अधिक-प्रदानम्-[ कर्तव्यम], * दृष्टा-:-दृष्ट फलम एतत् :+ "अधिकं दानम्
अधिक-कार्यकरणा-ऽऽशय-वैपुल्याभ्याम" ॥ १२॥ एतदेवाऽऽह, :ते तुच्छगा वराया अहिएण दढं उति परितोसं.। . तुट्ठा य तत्थ कम्मं तत्तो अहियं पकुव्वंति. ॥ १३॥
॥ पञ्चा० ७-२२ ॥ * ते-भृतकाः
अधिकेन-प्रदानेन तुच्छाः
दृढमुपयान्ति । वराकाः-["अल्पाः' इत्य-ऽर्थः] परितोषम् ।
| अधिकम्तत्र-प्रक्रान्ते कर्मणि
| प्रकुर्वन्ति । ततः-प्राक्तनात् कर्मणः [दत्ताद् वा] ।
दृष्टं फलमेतद् ॥१३॥
तुष्टाश्च-ते
धम्म-पसंसाए तह केइ निबंधति बोहि-बीअाई.। अन्ने उ लहुअ-कम्मा एत्तोचित्र संपबुझंति.॥१४॥
पञ्चा०७-२३ ॥
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गा० १५-१६ ]
धर्म-प्रशंसया तथा - ऊजता ऽऽचारत्वेन
केsपि - भूतकाः
+ लोके च
अन्ये तु - लघु कर्माणः- भूतकाः
अत एव औदार्य पक्ष-पातात् संप्रबुध्यन्ते - मार्गमेव प्रपद्यन्ते ॥ १४ ॥
लोगे अ साहु-वाओ अ- तुच्छ भावेण "सोहणो धम्मो ". । "पुरिसुत्तम-पणीओ,” पभावणा एवं तित्थस्स. ॥१५ ॥
पञ्चा० ७-२४
साधु वादः - भवत,
#
* तथा—
+
"पुरुषोत्तम प्रणीतः "- सर्वत्र दया- प्रवृतेः ।
प्रभावना
एवम् -
द्वारम् ।
+ अथ -
( ९ )
निवनन्ति बोधि-बोजानि कुशल-भावात् ।
भृतका-न-ऽति-संधानम्
स्वा - SSशय वृद्धिमाऽऽह,
अ-तुच्छ भावेन-अ-अ-कार्पण्येन "शोभनो धर्मः " - इत्येवं भूतः ।
अदृष्ट फलमेतद् ॥ १५ ॥
तीर्थस्य भवति ।
उक्तम् -- फलवद् भृतका ऽन ऽति-संधानम् ।
सा [सु-आ]ssसय बुडी वि इहं भुवण-गुरु-जिणिंद-गुण- परिण्णाए तबिंबच ठावण - ऽत्थं सुद्ध - पवित्तीइ नियमेणं ॥ १६॥
पञ्चा० ७-२५ ॥
स्वा - [सु-आ ] SSशय-वृडिरs पि भुवन गुरु- जिनेन्द्र-गुण परिज्ञयाअत्र-प्रक्रमे
हेतु भूतया
"भवाऽम्भो-निधि-निमग्न सत्त्वानाम्आलम्बन-भूतोऽयम्" इति एवम् ।
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गा० १७-१८-१९ ]
(१०)
स्वा-ऽऽशय-वृद्धिः तदु-बिम्ब-स्थापना-ऽर्यम्-जिन- । नियमेन-अवश्यंतया बिम्ब-स्थापनायव
[स्वा-ऽऽशय-वृद्धिः] शुद्ध प्रवृत्तः-कारणात्
॥ १६ ॥ “पेच्छिस्सं एत्थ अहं वंदणग-निमित्तमाऽऽगए साहू। कय-पुण्णे भगवंते गुण-रयण-निही महा-सत्ते. ॥ १७॥
पश्चा० ७.२६ ॥ द्रक्ष्यामि
साधून-मोक्ष-मार्ग साधकान् अत्र-भवने
कृत पुण्यान् अहम्
भगवन्तः चन्दन-निमित्तम्
गुण रत्न निधोनआगतान्
महा सत्त्वान्-द्रष्टव्यान् ॥१७॥ पडिबुझिस्संति इह दृट्टण जिणिंद-बिम्बम ऽ-कलंक. । अण्णे वि भव-सत्ता काहिंति ततो परम-धम्नं. ॥ १८॥
पञ्चा० ७-२७॥ * प्रतिभोत्स्यन्ते-प्रतिबोधं यास्यन्ति । जिन बिम्बम्-मोह ति मिरा उपनयनइह-जिन भवने
हेतुम दृष्ट्वा
अ-कलङ्कर-कलङ्क रहितम्।। अन्येऽपि
ततःभव्य सत्त्वाः -लघु-कर्माणः . परम् धर्मम्-संयम-रूपम् ॥१८॥ करिष्यन्ति ता, एअं मे वित्तं जद-इत्थ
विणिअगमेति अण-ऽवरयं.” । इय चिन्ताऽ-परिवडिया सा-सु-आ]ऽऽसय-वुड्ढी उ मोक्ख-फला.॥१९॥
पञ्चा० ७-२८॥
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गा० २०-२१ ]
(११) . [ जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा + तत्-तस्मात्
अत्र-जिन-भवने एतत्-[एतदेव वित्तम्]
(विनियोगम्)-उपयोगम् मम
एति-गच्छति वित्तम्-इलाध्यम,
अन-ऽवरतम्-सदा।" यदु इयम्-एव
अ-प्रतिपतिताचिन्ता
स्वा-ऽऽशय वृद्धिः -
उच्यते, मोक्ष-फला-इयम् ॥१९॥
जिन-भवन-कारण-विधिरुक्तः॥ + अन-ऽन्तर-करणीयमाऽऽह, :निप्फाइय जयणाए जिण-भवणं सुदरं,तहि बिंबं । विहि-कारियमऽह विहिणा पइविज्जा अ-संभंतो.॥२०॥
___ पञ्चा० ७-४३ ॥ निष्पाद्य
जिन भवनम्-जिना-ऽऽयतनम् यतनया-परिणतोदका-ऽऽदि ग्रहण- सुन्दरम्,
रूपया तत्र-भवने
विधिना-वक्ष्यमाणेन विम्बम्-भगवतः .
प्रतिष्ठापयेत् विधि-कारितम्-सद् एव असंभ्रान्तः-अना-ऽऽकुलः सन्॥२० * "विधि-कारितम्" इत्युक्तम्, तमाऽऽह, :जिण-बिंब-कोरण-विहीं,:-काले संपूइऊण कत्तारं,। विहवोचिअ-मुल्लऽप्पणमऽण-ऽहस्स सुहेण भावेण.॥२१॥
पन्चा०७
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गा० २२-२३-२४ ]
(१२)
[ जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा जिन-विम्ब कारण विधिः विभवोचित मूल्या-ऽपंणम्अयं द्रष्टव्यः, :
स-गौरवम्यदुत, :
अस्यकाले शुभे
अन-ऽघस्य-अ-पापस्य संपूज्य
शुभेन कर्तारम्-वास-चन्दनाःऽऽविभिः, भावेन-मनः-प्रणिधानेन ॥२१॥ * अपवादमाऽऽह, :तारिसयस्साऽ-भावे तस्सेव हिय-ऽत्थमुज्जओ णवरं । णियमेइ बिब-मोल्लं जहोचियं कालमाऽऽसज्ज, ॥२२॥
पञ्चा०८-८॥ * तादृशस्य-अन-ऽघस्य कर्तु: । अ-भावे, तस्यैव-कर्तु:
नियमयति-सङ्ख्या-ऽऽदिना हिमाऽर्थम्
बिम्ब मूल्यम्-द्रम्माऽऽदि उद्यतः-अन-ऽर्थ परिजिहोर्षया यथोचितम्-[यचितम्] (विधिना)
कालमाऽऽश्रित्य [न परं व्यसयति, नवरम्
न चाऽऽत्मानम् ] ॥२२॥ णिप्फण्णस्स य सम्मं तस्स पइदावणे विही एसो, :स-ट्टाणे सुह-जोगे अहि-वासणमुचिय-पूआए. ॥२३॥
पश्चा०८-१६ निष्पन्नस्य च
प्रतिष्ठापने सम्यक्-शुभ-भाव वृद्धया
विधिः
एषः-वक्ष्माणः, :स्व-स्थ ने-यत्र तद् भविष्यति अभिवासना-क्रियते शुभ-योगे-कालमऽधिकृत्य । उचित पूजया-विभवा-ऽनुसारतः ॥२३ चिइ-वंदण-थुइ-बुड्ढी, उस्सग्गो सोसण-सूराए,। थय सरण, पूआ काले, ठवणी मंगल-पुव्वा उ. ॥२४॥ दार गाहा
पञ्चा-८३२ ॥
तस्य
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गा० २४-२५-२६ ]
[ भी सा-पूजा + चैत्य वन्दना-सम्यक
स्तव स्मरणम्-चतुर्विशति-स्तवस्य स्तुति-वृद्धिः,
(स्मरणम् ), तत्र
"पूजा"-इति [जाति] पुष्पा-ऽऽदिना कायोत्सर्गः
काले-उचित-समये, "साधुः"-इति-अ-संमूठ:
स्थापना शासन-देवतायाः-श्रुत-देवतायाश्च, | मङ्गल-पूर्वा-नमस्कार-पूर्वा ॥२४॥ सत्तीए संघ-पूओ, विसेस-पूआ उ बहु-गुणा एसा.। जं एस सुए भणिओ:-"तित्थ-यरा-ऽण-तरो संघो." ॥२५
पञ्चा० ८.३८॥ * शक्त्या
सव-पूजा-विभवोचिता। विशेष-पूजायाः-दिगा-ऽऽदि- एषा-सङ्घ पूजा, गतायाः सकाशात
"विषय-महत्त्वात, पहुगुणा
व्यापक-विषयत्वात्" इत्य-ऽर्थः । * व्याप्यातव्यापकस्य महत्त्वे उपपत्तिमाऽऽह, :यद् यस्मात्, भणितत्वात सुए-आगमे [श्रुते-आगमे-उक्तः] एष
(भणितः), :"तीर्थ करा-न-ऽन्तरः सङ्घः" इति, .
अतः- “महानेषः" इति ॥२५॥ * एतदेवाऽह, :गुण-समुदाओ संघो. पवयण, तित्थं, ति होइ एग-ऽट्ठा. । तित्थ-यरो वि य एअं णमए गुरु-भोवओ चेव. ॥२६॥
पञ्चा० ८३९ ।। *गुण समुदायः
सङ्घः-अनेक-प्राणि-स्थ-सम्यगबर्जना-ऽऽद्या-ऽऽत्मकत्वात् ।
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गा० २७-२८ ]
+ "प्रवचनम्, तीर्थम्"
इति + तीर्थ-करोऽपि च
एनम् - सङ्घम् - तीर्थ- संज्ञितम् नमति - धर्म - कथा - SSदौ
अत्रेव -
( १४ )
यथा-
तथा-
भवन्ति एका-ssfर्थका:- " एवमाऽऽदयो ऽस्य शब्दाः ।" इति ।
गुरु-भावतः
एव
6
'नमस्तीर्थाय " इति वचनात् ।
" एतद् एवम्" इति ॥ २६॥
उपपत्त्य ऽन्तरमाऽऽह, :
तप्पुव्विया अरहर्या, पूइय-पूआ य, विणय-कम्मं च । कय- किञ्चो वि जह कहं कहेइ, णमए तहा तित्थं ॥२७॥
* तत् पूर्विका - तीर्थ पूर्विका
"पूजित-पूजा च' इति, भगवता पूजितस्य पूजा भवति, " पूजित पूजकत्त्वात् लोकस्य " ।
विनय कर्म च कृतज्ञता धर्म गर्भ कृतं भवति.
यदि वा - " किमन्यत् ?" कृत-कृत्योऽपि
[ श्री सङ्घ-पूजा
पञ्चा० ८-४० ॥
| अर्हता- तदुक्ताऽनुष्ठान फलत्त्वात्,
कथाम्
कथयति-धर्म-संबद्धाम्,
नमति
तीर्थम्
"तीर्थ-कर-नाम-कर्मोदयादेव,
औचित्य प्रवृत्तेः" इति ||२७||
एअम्मि पूइयम्मि, णऽथि तयं, जं न पूइयं होई. । भुवणेऽवि अणिज्जंण अस्थि [ण गुण-द्वाणं] ठाणं तओ अण्णं. २८
पञ्चा० ८-४१ ।।
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गा० २९-३० ]
+ अस्मिन् - [ एतस्मिन् सङ्घ े ]
पूजिते,
नाऽस्ति
सदू - वस्तु,
अन्यत्
भुवनेऽपि - [सर्वत्र ] पूज्यम् - [पूजनीयम् ] नाऽस्ति - [न गुण-स्थानम्, कल्याणतः ] स्थानम् ||२८||
ततः - [सङ्घात्]
+ तत् पूजा परिणामः - सङ्घ- पूजापरिणामः
हंदि
तद्-देशे - [ तद्-देश-पूजातोऽपि ] पूजयतोऽपि एकत्वेनसर्व पूजा - भावेन
"देश - गत क्रियायामऽपि -
(१५)
-
तप्पूआ - परिणामो हंदि महा - विसयमो मुणेयव्वो । तद्-देस-पूअओ विहु देवय-पूआ - ऽऽइ-गाएण. ॥२९॥
पञ्चा० ८-४२ ॥
देश- परिणामवद्
यदू
पूजितम् - [अभिनन्दितम् ]
न
भवति ।
[ श्री सह-पूजा
महा विषय :- एव
मन्तव्यः - सङ्घस्य महत्त्वात् ।
देवता पूजा - ssदि-ज्ञातेनदेवता- देश - पादा-SSद्य -ऽ- चंनप्रभृत्युदा-ऽऽहरणेन ।
व्यक्तिगत क्रियायां
सामान्य विषयक प्रत्याऽऽसत्ति-विशेषात् सामान्याऽव (च्छिन्न) च्छादित यावत्व्यक्ति-विषयक परिणामो महान्
(न) दुरुपाद: ।" इति - निकर्षः ॥ २९ ॥
+ विधि-शेषमाऽऽह, :
तत्तो य इ-दिणं सो करिज्ज पूअं जिणिंद ठवणाए । विभवा ऽणुसार - गुरुई काले णिययं विहाणेणं. ॥३०॥
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गा० ३१-३२- ]
ततः प्रतिष्ठाऽनन्तरम् प्रति-दिनम्
असौ - श्रावकः
कुर्यात्
पूजाम् - अभ्यर्च्चन रूपाम् जिनेन्द्र स्थापनाया:- “प्रतिमायाः "
इत्यर्थः
शुचो भूतः - सन्
( " ततः - असौ विधानेन प्रतिदिनं जिनेन्द्र स्थापनायाः काले नियतां विभवाSनुसार गुर्वी पूजां कुर्यात् " - इत्य ऽन्वयः । संपादकः )
जिण-पूआए विहाणं, सूई-भूओ, तर चेव उवउत्तो, । अण्ण - S'गम ऽछिवन्तो करेइ जं [प]वर-वत्थूहिं. ॥३१॥
-
+ जिण-पूजायाः
| विधानम् एतद्
स्नाना SSदिना,
तस्याम पूजायाम् उपयुक्तः प्रणिधानवान्,
अन्यदूअङ्गम् शिरः प्रभृति
(१६)
भूयःतदनुअति सुरभि गन्धेन
4XX
[ नित्य - जिन-पूजा-विधिः
विभवानुसार गुर्वीम् उचितवित्त-त्यागेन
+
काले- उचिते एव नियताम् भोजना ऽऽदियत्
विधानेन - " शुचित्वा ssदिना " इत्य-ऽर्थः ॥३०॥
अ-स्पृशन्.
[याम् पूजाम् ]
करोति
:
यत्
प्रवर- वस्तुभिः सुगन्धि
सुह-गंध-धूव- पाणीय संव्वोसहिमा - ssइएहिं तो हवणं । कुंकुमगा - ssइ-विलेवणमइ सुरहिं मण- हरं मल्लं ॥३२॥
शुभ-गन्ध धूप पानीय सव्र्वौषध्या ऽऽदिभिः
तावत् - प्रथममेव,
स्नपनम्,
पुष्पा -ऽऽदिभिः ॥ ३१॥
कुङ्कुमा-दि-विलेपनम्, मनोहरम् - दर्शनेन च माल्यम्, इति ॥ ३२॥
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________________
धूपः,
गा३३-३४-३५]
( १७ ) [ द्रव्य-स्तवस्य भाव-स्तवे हेतुत्वा-ऽ-हेतुत्वे विविह-निवेअणमाऽऽरत्तिगा-ऽऽइ धूव-थय-वन्दणं विहिणा। जह-सत्ति गीअ-वाइअ-णचण-दाणा-5ऽइअं चेव. ॥३३॥ "विविधं नैवेद्यम्" इति =
तद-ऽनुचित्र-नैवेद्यम ,
स्तवः, आरा त्रिका-ऽऽदि,
तद ऽनु____तद-ऽनु
चन्दनम्
विधिना= विश्रब्धा-ऽऽदिना। तथायथा-शक्ति गीत-वादित्र-नर्तन-दाना-ऽऽदि । चैव
| आदि-शब्दात्-उचित-स्मरणम् ॥ ३ "विहिया- ऽणुदाणमिणं" ति एवमेयं सया करिताणं । होइ चरणस्स् हेऊ णो. इह लोगाद- ऽवेक्खाए. ॥३४॥
॥पञ्चा० ६-४॥ "विहिता-ऽनुष्ठानमिदम्" चरणस्य इत्येव चेतस्य-ऽवधाय,
हेतुः सदा
एतदेव कुर्वताम्
आदि-शब्दात् = कोल्-ऽऽदिइह-लोकाऽऽद्य-पेक्षया ।
परिग्रहः। "यावज्जीवमाऽऽराधना अ-दष्ट-विशेषे निर्जरा-विशेषे च
हेतुः" इति गाथा-ऽर्थः ।।४॥ एवं चिय भाव- ऽत्थए आणा-आराहणा उ रागो वि. । जं पुण एय-विवरियं, तं दव्व-थओ वि णो होइ. ॥३५॥
पञ्चा० ६५ ॥
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________________
गा० ३६-३७ ]
एवमेव = अनेनैव विधिना कुर्वतामेतद् भाव - स्तवे :
+ " तद्- रागाच्च द्रव्य-स्तवत्वम्,
= वक्ष्यमाण- लक्षणे
तच्छरीर-घटक- विशेषण संपत्तेः "
+ यत् पुनः = जिन भवना-ऽऽदि एतद् - विपरीतम् = यादृच्छिकम्,
तदू
( १८ )
* " सूत्राऽऽज्ञा - विशिष्ट - पूजात्वा ऽऽदिनैव
-
[ अ-प्रधान द्रव्यस्तवः
आज्ञा-SSराधनात् कारणात्
रागोऽपि -
भाव - स्तव हेतुत्त्वात् ।” इति तार्किकाः || ३५ ||
=
द्रव्य स्तवोऽपि
न
भवति = उत्सूत्रत्वात् ।
t अभ्युपगमे दोषमाऽऽह, :1
भावे अइ-पसंगो. आणा - विवरीयमेव जं किंचि । इह चित्ता ऽणुद्वाणं तं दव्व-त्थओ भवे सव्वं ॥३६॥
भावे: द्रव्य-स्तव-भावे च तस्य
1 अति-प्रसङ्ग : - अतिव्याप्तिः ।
"कथम् ?"
आज्ञा-विपरीत मेव = आगम-विरुद्धमेव
चित्रो ऽनुष्ठानम् = गृह-करणा-ऽऽदि,
तद्
सर्वम्
[ एवम् - ]
यत् किञ्चित् इह = लोके
+ व्यावर्तकमाऽऽशङ्कयाऽऽह, :
“जं वीय-राय-गामि, अह तं” “नणु सिट्टा ऽऽदि वि स एवं । सियं ?” “उचिय मेव जं, तं.” "आणा - SSराहणा एवं." ॥३७॥
द्रव्य-स्तवः = यथोक्त- लक्षणः
भवेत् —
" निमित्ता-s- विशेषाद्" इति ॥ ३६ ॥
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________________
गा० ३८ ]
( १९)
[अ-प्रधान-द्रव्य-स्तवः
[अथ वोत-राग-गामि = अनुष्ठानम् , तत् = द्रव्य-स्तवः
अथ-इति चेत् ?" + अत्राऽऽह, :
"ननु" = इत्य-5-क्षमायाम एवम् – “निमित्ता-5-विशेषात्" शिष्टना-ऽऽद्य-ऽपि = आक्रो
इति-भावः शना-ऽऽद्य-ऽपि वीत-राग-गामि स = द्रव्य-स्तवः [ एव ]
[सद् ] स्याद् = ?। + तस्मात् --
उचितमेक = वीत-राग-गामि । तत् = द्रव्य-स्तवः। 'यत्%3 + 'इत्थमुक्तौ दोषा-S-भावः" इति चेत् ? एवम् %
आज्ञा-ऽऽराधना = अवश्यं वक्तव्या। + "प्रायः
___ आज्ञा-शुद्धस्यवोचितत्त्वात्,” इति-भावः ॥३७॥ + एवं च"आज्ञा-शुद्ध
वीत-राग-गामि . भाव-स्तव-हेतुरऽनुष्ठानम्
द्रव्य-स्तवः" इति निव्यूढम् । भाव-स्तवेऽति-व्याप्ति-वारणाय विशेष्यम् । अत्र "विशेषण-द्वयम्
भाव-स्तव-हेतुता-ऽवच्छेदक-परिचायकम् ।" इति-'भाव-स्तव-हेतुत्वमेव लक्षणं सिध्यति ।" तत्राऽऽह, :“जं पुण एअ-वियुत्तं एग-ऽ'तेणेव भाव-सुण्णंति। तं.' विसयम्मि विण तओ, भाव-थयो-5-हेउओ उचिओ॥३८॥
पञ्चा० ६.९॥
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________________
गा० ३८ ]
यत् पुनः = अनुष्ठानम् एतद्- बियुक्तम् = औचित्याSन्वेषणा - SSदि-शून्यम्,
विषयेऽपि = वीतरागा-ssदौ
न
तकः - द्रव्य- स्तवः,
अ- प्रधानस्तु भवत्येव ।
+ हेतु साध्या - S - विशेष - परिहाराय -
अत्र
न
यद्यपि -
नाऽपि
( २० )
भाव- स्तवत्त्वावच्छिन्ने हेतुत्वम्,
व्यभिचारात्
तथाऽपि -
भाव-स्तव कारणत्वेन
तद् = अनुष्ठानम्
एका -ऽन्तेनैव
भाव- शून्यम् = [ आज्ञा-निरपेक्षतया]"
इति
"अ-प्रधान-व्यावृत्त- द्रव्य-स्तवत्वेन व्यपदेश्यो न ।”
इति साध्यं व्याख्यायेम् ।
-
भाव-त्थया - हे ओत्ति (भाष - स्तवा-S-हेतुत:, इति ) "धर्म-पर-निर्देशात्
[ द्रव्य-स्तव - लक्षण - विचारः
शुद्ध-तत्-तत्-द्रव्य-स्तव व्यक्तिनाम्, आज्ञा-s- विशिष्टानां वा
भाव- स्तवा--हेतुत्वात् " इत्य -ऽर्थः
उचित :- [ यथाभूतः ] "भाव - स्तवा ऽङ्ग न”
अन-ऽनुगमाच्च,
घट-कारणत्वेन दण्डा-ऽऽदेरिव, आत्माऽऽश्रयात्
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________________
गा० ३९-४० ]
अ- प्रधान- व्यावृत्तेन - द्रव्य-स्तवत्त्वेन
गडुच्या ऽऽदीनाम्—
अखण्डोपाधिना त [ हेतु ] त्वम्,
विशेषण-द्वयं तुपरिचायकम् ।
ज्वर- हरण - शक्त्यैव,
तुच्छस्तुअसौ :
"उचिता-ऽ- प्रधानयोर्द्रव्य व्यवहार-भेदस्तु द्रव्य शब्दस्य नानाऽर्थत्वात् । "
भोगा SSfद-फल-विशेषस्तु :
=
सांसारिक एव
अस्ति,
अतोऽपि = द्रव्य-स्तवात्
( २१ )
शक्ति- विशेषेणैव वा ।
इति युक्तं पश्यामः * ॥३८॥
+ आनुषङ्गिक फल मात्रा ऽनौचित्यम् ।" इत्यनुशास्ति :भोगा - sss - फल-विसेसो उ अत्थि एत्तो वि विसय भेएणं । तुच्छो य तओ जम्हा हवइ पगार- 5' तरेणाऽवि ॥३९॥
-
[ अ-प्रधान द्रव्य - स्तवस्य तुच्छश्वम्
| = भोगाऽऽदि-फल- विशेषः
•
।। पञ्चा० ६-१५ ॥
विषय-भेदेन = वीतराग-विषय
विशेषेण
[ स्तूयमान- विशेषेण ]
प्रकारा - ऽन्तरेणाऽपि निर्जरा - SS दिनाऽपि भवति ॥ ३९॥
यस्मात्
4 " उचिताऽनुष्ठानत्त्वे को विशेषो भाव-स्तवात् ?" इति,
= अ-काम
+ अत्राऽऽह,
:
उचिया ऽणुट्टाणाओ विचित्त - जइ - जोग - तुल्लमो एस .| जंता कह दव्थवो ? तद्-दारेण ऽप्प - भावाओ ॥४०॥
पञ्चा० ६-१६ ।।
·
* न ज्ञायते भावोऽस्य समग्र-प्रवेश- निवेश संदर्भस्य सम्यक्तया । संपादकः ।
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________________
गा० ४१ ]
+ उचिताऽनुष्ठानात् = कारणात् विचित्र यति योग-तुल्य एव एषः = [विहितत्त्वात् ] |
+ अत्रोत्तरम् :तद्-द्वारेण = द्रव्य-द्वारेण
"अधिकारि-विशेषात्
अत्र
( २२ )
जिन भवना - ssदि-विधान-द्वारेण
द्रव्या-अनुष्ठान-लक्षणेन
अल्प-भाव:" इत्याऽऽह, :
जिण-भवणा-ऽऽइ-विहाण-दारेणं एस होइ सुह-जोगो. । उचियाऽणुद्वाणं विय तुच्छो जइ-जोगओ णवरं ॥४१॥
पञ्चा० ६-१७ ।।
एषः
भवति
शुभ-योगः = शुभ व्यापारः । -
अल्पत्त्वम्,
+ तथा चाऽऽह्,
=
-
[ द्रव्य-स्तव-भाव - स्तवयोर्भेद-विचारः
यद् = यस्मात्,
तत् = तस्मात्
कथम्
द्रव्य स्तवः = एव अस्ति ? [ भाव-स्तव एवाऽस्तु । ]
अल्प-भावात् = स्तोक-भावोपपत्तेः ॥ ४० ॥
एषः
तुच्छः
यति-योगतः = सकाशात् ।
नवरम्
+ "मलिना - ssरम्भ्य-धिकारिक - शुभ- योगत्वेन -
यति-योगाद् -
तुल्यत्त्वं च
प्रायः साधम्यण ।" इति भावः ॥ ४१ ॥
ततश्च
उचिताऽनुष्ठानमऽपि च = सद्,
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________________
गा० ४२-४३-४४ ]
(२३) [ द्रव्य-स्तव-भाव-स्तवयोर्भेद-विचारः सव्वत्थ णिर-भिसंगत्तणेण जइ-जोगमो महं होइ.। एसो उ अभिसंगा कत्थइ तुच्छे वि तुच्छो उ. ॥४२॥
॥पञ्चा० ६-१८ ॥ + सर्वत्र
यति योग एव निर-ऽभिष्वङ्गत्वेन हेतुना महान्
भवति अतः सकाशात् । एष तु-द्रव्य-स्तवः
तुच्छेऽपि-वस्तुनि अभिष्वङ्गात् कारणात्
तुच्छ एव ।। ४२ ॥ क्वचित्
जम्हा उ अभिस्संगो जीवं दूसहे णियमओ चेव । तद्-दृसियस्स जोगो विस-घारिय-जोग-तुल्लो उ. ॥४३॥ यस्मात्तु,
दूषयति अभिष्वङ्गः प्रकृत्यैव
नियमत एव-तथा-ऽनुभूतेः । जीवम्तथा = दृषितस्य
तत्त्वतःयोगः सर्व एव
विष-घारित-योग-तुल्यः अ-शुद्धः,
इति ॥ ४३ ॥ जइणो अ-दूसियरस हेयाओ सव्वहा णियत्तस्स। सुद्धो अ उवादेए, अ-कलंको सव्वहा सो उ. ॥४४॥
॥पञ्चा० ६२०॥ यते
शुद्धश्च अ-दूषितस्य-सामायिक-भावेन उपादेये-वस्तुनि आज्ञा प्रवृत्त्या, हेयात् सर्वथा निवृत्तस्य-तत्-स्व-भावतया
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गा०४५-४६]
( २४ )
[ द्रव्य-स्तव-भाव-स्तवयोर्भेद-विचारः
अ-कलङ्कः
[सः] सर्वथा
एव-यति-योगः । * "शुभ योग-सामान्य-जन्यता-ऽवच्छेदक-फल-वृत्ति-जाति व्याप्य-जात्य
ऽवच्छिन्न प्रत्येव सा-अभिष्वङ्ग-निर-ऽभिष्वङ्ग-शुभ योगानां . हेतुत्वात्
एतदुपपत्तिः।" इति-न्याय-मार्गः ॥ ४४ ॥ + [अनयोरेव] उदा-ऽऽहरणेन
उक्त-स्वरूप-व्यक्तिमाऽऽह :अ-सुह-तरंडुत्तरण-प्पाओ दव्व-त्थओऽ-समत्थो य । इयरो पुण णईमा-ऽऽइसु समत्थ[त्त]-बाहूत्तरण-कप्पो. ॥४५॥
॥पञ्चा० ६-२१ ॥ * अ-शुभ-तरण्डोत्तरण-प्रायः= द्रव्य-स्तवः = सा-पायत्त्वात् .. कण्टका ऽनुगत-शाल्मली-तरण्डोत्तरण अ-समर्थश्च,
तत एव = [सिद्धय ऽ-सिद्धेः]। नद्या-ऽऽदिष्ठ = स्थानेषु
समर्थ[स्त]-बाहूत्तरण-कल्पः = तत इतरः पुनः = भाव-स्तवः . एव मुक्तेः ।।४५॥
तुल्यः
कडुओ[अ-ओ] सहा-ऽऽइ-जोगा मंथर-रोग-सम-सण्णिहो वा वि। पढमो विणोसहेणं तक्खय-तुल्लो य बीओ ॥४६॥
॥ पञ्चा० ६-२२॥ * कटुकौषधा-ऽऽदि-योगात्
प्रथम:-द्रव्य-स्तवः । मन्थर-रोग-शम-सन्नि भो विनौषधेन =स्वत एव वाऽपि विलम्बित-रोगोपशम. तत्-क्षय-तुल्यश्च = रोग-क्षय-कल्पश्च तुल्यो वाऽपि
द्वितीयः-भाव-स्तवः ।
इति ॥ ४६॥
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________________
प्रथमात् = द्रव्य- स्तवात्
गा० ४७-४८ ]
अनयोः फलमाऽऽह,
पढमाउ कुसल - बंधो, तस्स विवागेण सु-गईमा ऽऽईया. । तत्तो परंपराए बिईओ वि हु होइ कालेणं ॥ ४७ ॥
पञ्चा० ६-२३ ।।
तस्य = कुशल-बन्धस्य विपाकेन हेतुना
=
ततः = द्रव्य-स्तवात्
परम्परया द्वितीयोऽपि =भाव-स्तवोऽपि
विशेषत:
-
(२५)
-
तथा च
जिन बिम्ब-प्रतिष्ठापन भावा ऽर्जित
कर्म - परिणति वशेन = स्वेतर स-कलकारण-मेलन - सामर्थ्येन
सु-गती
आह, :
[ द्वयोः फलम्
इदमेवाऽऽह, :
जिण-बिंब पट्टावण-भाव - Sज्जिय-कम्म- परिणइ-वसेणं । सु-गइअ पड़-ट्ठावणमण - ऽहं सइ अप्पणी जम्हा ॥४८॥
पञ्चा० ७ ४५ ॥
कुशल-बन्धः = भवति, स-रागयोगात् ।
सु-गत्या - SSदयः =सु-गति संपद्विवेक - प्रभृतयः ।
भवति
कालेन = अभ्यासतः ||४७||
प्रतिष्ठापनम्
अन- ऽघम्
सदा
आत्मनः,
यस्मात्= कारणात् । ४८||
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________________
गा० ४९-५०-५१ ]
( २६ )
[ द्वयोः फलम् तत्य-ऽवि य साहु-दंसण-भाव-ऽज्जिय-कम्मओ उ गुण-रागो। काले य साहु-दसणं जह-कमेण गुण-करं तु. ॥४९॥
॥ पञ्चा० ७-४६ ॥ तत्राऽपि च = सु-गतो
गुण-रागः = भवति । साधु-दर्शन-भावा-ऽर्जित-कर्म
णस्तु% सकाशात् कोले च
यथा-क्रमेणसाधु-दर्शनम् = जायते, गुण-करं तु
तत एव ॥४९॥ “पडिबुझिस्संत ऽण्णे"भाव-ऽज्जिय-कम्मओ उ पडिवत्ती। भाव-चरणस्स जायइ. एअं चिय संजमो सुद्धो. ॥५०॥
पश्चा० ७-४७ ॥ "प्रतिभोत्स्यन्ते अन्ये = प्राणिनः, इति"
एतदेव = भाव-चरणम् . भावा-ऽर्जित-कर्मणस्तु = सकाशात् । संयमः प्रतिपत्तिः
शुद्धः। भाव-चरणस्य = मोक्षक-हेतोः इति ॥ ५० ॥ उप-जायते। भोव-त्थओ अ एसो थोअव्वोचिय-प्पत्तिओ णेओ । णिर-ऽवेक्खो-ऽऽणा-करणं कय-किच्चे हंदि उचियं तु ॥५१॥ भाव-स्तवश्व
स्तोतव्योचित-प्रवृत्तः = कारणात् एषः= शुद्ध-संयमः
ज्ञेयः [ विज्ञेयः ] । तथा हि
तद्,
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________________
गा० ५२-५३ ]
( २७ )
[ शीलङ्ग-स्वरूपम्
निरपेक्षा-ज्ञ-करणमेव | हन्दि कृत-कृत्ये - स्तोतव्ये
उचितम्,-नाऽन्यत्, निर-5
पेक्षत्वात् ॥ ५१ ॥ ए अंच भाव-साहुंाहूविहाय, न ऽण्णो चएइ काउंजंजे]। सम्मं तग्गुण-नाणा-ऽभावा तह कम्म-दोसा य. ॥५२॥
पश्चा० ६-२५ ॥ एतच % एवम्-आज्ञा-करणम् नाऽन्यः = क्षुद्रः भाव-साधुम्
शक्नोति विहाय = त्यक्त्वा,
कर्तुम, सम्यग्
तद्-गुण-ज्ञाना-5-भावात्, इत्थम्
आज्ञा-करण-गुण-ज्ञाना-5-भावात्, करणस्याऽपि रत्न-परीक्षा-न्यायेन, बुद्धय पायत्त्वात् । कर्म-दोषाच = चारित्र-मोहनीय
कर्मा-ऽपराधाच्च ।। ५२ ॥ दुष्करत्वे कारणमाऽऽह, :जंए अं अट्ठा-रस-सील-ऽग-सहस्स-पालणं णेयं । अच्च-ऽत-भाव-सारं ताई पुण हुंति एआई, ॥५३॥ यद् = यस्मात्,
अष्टा-दश-शीला-Sङ्गा-पालनम् एतद् - अधिकृता-ऽऽज्ञा-करणम् ज्ञेयम्
अत्य-ऽन्त-भाव-सारम् । तानि पुनः = शोला-ऽङ्गानि । एतानि = वक्ष्यमाणभवन्ति
लक्षणानि ॥ ५३॥
तथा,
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________________
( २८)
गा०५४-५५-५६ ]
[ व्यासा-ऽर्थः जोए करणे सण्णा इंदिय-भोमा-ऽऽइ समण-धम्मेय । सील-उंग-सहस्साणं अट्ठा-रसगस्स णिप्फत्ती. ॥५४॥
पश्चा० १४-३ ॥ योगाः- मनो-व्यापारा-ऽऽदयः, भूम्याऽऽदयः-पृथ्व्य ऽप-तेजो-वायुकरणानि = मनः-प्रभृतीनि,
वनस्पति द्वि-त्रि चतुः-पञ्चसंज्ञाः - आहारा-भिलाषा-Sऽद्याः, न्द्रिया-5-जीवाः, इन्द्रियाणि-स्पर्शना-ऽऽदीनि, श्रमण-धर्मश्च = क्षान्त्या-ऽऽदयः । अस्मात् कदम्बकात्
अष्टा-वशकस्य शीला-ऽङ्ग-सहस्राणाम् %3D
निष्पत्तिः = भवति। चारित्र-हेतु-भेदानाम्
[व्यासा-ऽर्थत्वाऽऽह), :- इति-गाथा-ऽर्थः ॥ ५४॥ करणा-5ऽइ, तिण्णि जोगी मणमा-ऽऽईणि उ हुंति, करणाई.। आहारा-5ऽई सण्णा, सवर्णा[सोत्ता]ऽऽइं इंदिया पञ्च, ॥५५ भोमाऽऽइणव, अ-जीव-काओ अ पुत्थ-पणगं च, । खंता.ऽऽइ-समण-धम्मो एवं सइभावणा एसा. :-॥५६॥
पञ्चा० १४-१५॥ स्पष्टे ॥ ५५-५६ ॥ [करणा-ऽऽदयः = कृत-कारिता-ऽनु । श्रोत्रा-ऽऽदीनि = पश्चा-ऽनु-पूर्व्या मति-रूपाः,
इन्द्रियाणि पश्चः = स्पर्शन-रसन-घ्राण प्रयो योगाः = प्रति-करणम्,
चक्षुः-श्रोत्राणि, मन:-आदीनि-मनः-आदीनि तु भवन्ति "उत्तरोत्तर-गुणा-ऽवाप्ति-साध्यानि करणानि मनो-वाक्-काय-रूपाणि शोला-ऽङ्गानि" इति ज्ञापना-ऽर्थम्त्रीण्येव,
इन्द्रियेषु पश्चा-ऽनुपूर्वी ।" . आहारा-ऽऽदि-संज्ञाः = चतस्रः,
इति-गाथा ऽर्थः ॥५५॥ आहार-भय-मैथुन-परिग्रह-विषयाः |
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गा ५६-५७-५८]
(२९)
[ व्यासा-ऽर्थः
भ माऽ णव जीया, अ.जीव-कोओ य, समण-धम्मो उ। खंता ऽऽइ दस-पगारो, एवं ठीए भावणा एसो, :-॥५६॥ भौम्या.ऽऽदयः
श्रमण-धर्मस्तु नव-जीवाः = पृथ्व्य-ऽप-तेजो- क्षान्त्या-ऽऽदयः
वायु-वनस्पति-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- दश प्रकार:-क्षान्ति-मार्दवा-ऽऽर्जवचतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाः,
मुक्ति-तपः- संयम-सत्य-शौचा-SS अ-जीव-कायश्च = पुस्तक-चर्म-तृण- किञ्चन्य-ब्रह्मचर्य रूपः ।
सुषिर-पञ्चक-रूपः, . एवम्
भावना स्थिते - यन्त्रे सति,
एषा, :-वक्ष्यमाणा, :तत्र
शीला-ऽङ्ग-निष्पत्ति-विषया। इति-गाथा-ऽर्थः ॥ ५६॥] भावनामेवाऽऽह, :-- ण करेड मणेणाऽऽहार-सण्णा-विप्यजढगो उ णियमेणं । सोइंदिय संवुडो पुढवी-काय-आरंभं खंति जुओ. ॥५७॥
पञ्चा० १४.१६ ॥ न करोति
नियमेन, मनसा
[तथा-] ["किं-भूतः सन् ?"]
श्रोत्रेन्द्रिय-संवृत्तः आहार-संज्ञा-विप्रमुक्तस्तु
["किम् ?" इत्याऽऽह, :-] पृथ्वो-काया-ऽऽरम्भम्
क्षान्त्या-ऽऽदि-युक्तः ॥ ५७ ॥ इय मद्दवा-इ-जोगा पुहवी-कोये हवंति दस भयो । आउ-काया-ऽऽईसु वि. इय एए पिंडियं तु सयं.॥८॥
पश्चा० १५.७ ॥
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________________
गा० ५६-६० - ]
एवम् - मार्दवा ऽऽदि योगात् = "मार्दव
-S
युक्तः ।" "आर्जव युक्तः" इति श्रुत्या,
अप्-काया ऽदिष्वऽपि -
एते = सर्व एव
पिण्डितं तु
श्रोत्रेन्द्रियेण एतद् – लब्धम्
ततः
=
( ३० )
आहार- संज्ञा-योगात्
एवम्
पृथ्वी-काये भवन्ति
दश-भेदाः
एतद्
वागा - SSदिना इति
,
सो इंदियेण एअं, सेसेहिं वि जं इमं तओ पञ्च । आहार - सण्ण - जोगा इय, सेसाहिं, सहस्स - दुगं ॥५९॥
यतः, दश क्षान्त्या - ssa - पदानि ।
[ व्यासा ऽर्थः
एवम् = प्रत्येक दशैव ।
शतम्
यतः - दश पृथ्व्याऽऽदयः ॥ ५८ ॥
पञ्चा० १४८ ॥
शेषैरsपि = इन्द्रियैः
यत्
इदम् = शतमेव लभ्यते ।
पञ्च = शतानि पञ्चत्वादिन्द्रियाणाम |
एतानि पञ्च ।
शेषाभि [sपि ] : = [ भय-संज्ञा-SSद्याभि:,] पञ्च पञ्च ।
सहस्र-द्वयम् = निर-ऽवशेषम्,
यतः, चतस्रः संज्ञा:, इति ॥५९॥
एअं ति छस्सहस्साई ।
एअं मणेणं वयमा - SSइएस ण करणं, सेसेहिं पि य, एए, सव्वेवि अट्ठारा. ॥६०॥
पञ्चा० १४-९ ॥
मनसा = सहस्र-द्वयं लब्धम् ।
एतत् = सहस्र-द्वयम् । षट-सहस्राणि = " त्रीणि करणानि ” इति [ कृत्वा ] ।
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गा० ६१-६२ ]
( ३१ ) . [ इदमऽत्ररहस्यम् "न करोति," = इत्य-ऽनेन योगेन एतानि । शेषेणाऽपि च = योगेन एतानि = षट् [षट् ] इति । एतानि
अष्टादश - [भवन्ति] सर्वाणि
__"त्रीणि योगाः" इति कृत्वा ।।६०॥ इत्थ इमं विण्णेयं अ इदं-पज्जं तु बुद्धिमंते ह, । 'एकम्मि वि सु-परिसुद्धं सील-5'गं सेस-सब्-भावे. ॥६१॥
पश्चा० १४-१०॥ अत्र = शोला-भा-ऽधिकारे ऐदम्पर्यम् = भावा ऽर्थ-गर्भ-रूपम् इदम्
बुद्धिमद्भिः = पुरुषः, :विज्ञेयम् यदुत, :"एकमऽपि
शीलाङ्गम = शेष-शीला-ऽङ्गम् । सु-परिशुद्धम् ... यथा-रुपातम् शेष-सद-तद्-ऽपर-शीला-ऽङ्ग]
["यादृक्-शोला-ऽङ्गमुच्यते, भावे% [एव] . तादृक" इत्य-ऽर्थः । ] नियतं भवति ॥६१।।
__ निदर्शनमाऽऽह, :इक्को वाऽऽय-पएसो अ संखेअ-पएस-संगओ जहउ, । एअंपि तहा णेयं, स-तत्त-चाआ इयरहो उ. ॥६२॥
पञ्चा० १४-११॥ एकोऽपि
एवम्-- आत्म-प्रदेशः = अत्य-ऽन्त-सूक्ष्म-रूपः । एतदपि = शोला-ऽङ्गम् अ-सङ्खयेय-प्रदेश-सङ्गतः = तद- तथा = अन्या-5-विना भूतमेव ऽन्या-s-विना-भूतः
ज्ञेयम् । यथैव-केवलस्याऽ-संभवात्,
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________________
गा० ६३-६४ ]
इतरथा तु = केवलत्वे
[आत्म- प्रदेशत्व-शीला ऽङ्गत्वा ऽ-भावः ]
तद्वत्
शीला - sङत्वमपि च न स्यात्,
"अतः"
" समुदाय - नियतत्त्वात् समुदायिनः" इति ॥ ६२ ॥
एतदेव भावयति,
जम्हा समग्गमेयंपि सव्व-सा - S- वज्ज-जोग - विरईओ. । तत्तेणेग-स-रूवं ण खंड - रूवत्तणमुवेइ ॥ ६३ ॥
पञ्चा० १४-१३ ॥
यस्मात्
समग्रम्
एतद-ऽपि = गीला-ऽङ्गम्सर्व-सा-S-वध-योगात्
( ३२ )
-:
* नद्युत्तारा-ssदौ
[ इदमत्र रहस्यम्
स्व-तत्त्व-त्यागः = आत्म- प्रदेश त्वमपि
न स्यात् ।
प्रत्य-ऽक्षतः
केवला -ङ्गा S-भाव:" इति ॥ ६३ ॥
--:
विरतिरेव :
[अखण्डा ] [ तत्त्वेन ] एक स्वरूपम् = वर्तने,
न
- अ-खण्ड त्वेन ।
खण्ड-रूपत्वम् उपैति ।
अखण्ड-रूप- बाध: ?" इति ।
अत्राह
T
एअं च एत्थ एवं विरइ-भावं पडुच्च दट्ठव्वं, ण उ बज्झपि पवित्ति, जं सा भावं विना विभवे ॥६४॥
पञ्चा० १४-१३ ।।
•
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________________
मा० ६५ ]
+ एतच्च = शीलम्
अत्र
एवम् = सर्व-सा-ऽ-वद्य- [योग]निवृत्त्या - ssत्मकस्
न तु बाह्यामऽपि
यत्
सा = बाह्या प्रवृत्ति:
+ तथा च
नद्युतारा ssat
"द्रव्यतः
यथा, उत्सर्गे = कायोत्सर्गे
स्थितः
क्षिप्तः
( ३३ )
विरति भावम् = आन्तरम्
प्रतोत्य द्रष्टव्यम्,
प्रवृत्तिम् = प्रतीत्य,
उदक-वध-प्रवृत्त-कायोऽपि = [तस्य क्षारतया] महाऽऽत्मा
भावं विनाऽपि
भवेत् ।
अप-काया SSरम्भ संभवेऽपि -
प्रमादा-S-भावात् न भावतः सः "
+ तदाऽऽह,
जह उस्सग्गम्मि ठिओ खित्तो उदगम्मि केण वि तवस्सी, । तव्-वह-पवित्त-कायो अ-चलिअ-भावोऽ-पवत्तओ अ. ॥६५॥
पञ्चा० १४-१४ ॥
इति न शीला - ऽङ्ग भङ्गः" ॥ ६४ ॥
[ इदमत्र रहस्यम्
उदके
केनचित्
तपस्वो =
मोहात्,
अ-चलित भावः
अ- प्रवृत्तः
एव = माध्य-स्थ्यात् ।
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________________
गा० ६६ ]
. (३१)
[ इदमऽत्र रहस्यम् * "बुद्धि-पूर्वक प्रवृत्तेरेव प्रवृत्तित्त्वात्,
आध्या-ऽऽत्मिक-निवृत्ती
बाह्य-प्रपत्तेरऽ-विरोधिस्वाच्च ।" + "यत्तु
"तत्र
__मध्य-स्थस्य योगो न हेतुः, किन्तु- वध्यस्यैव ।" इति-वृषोदन्यतो मतम्,
तत् तुच्छम, अति प्रसङ्गात् । "एगया गुण-समियस्स रीयओ काय-संफास-सम-ऽणु-चिण्णा एगतिया पाणा __उद्दायंति" ति-( श्री-आचारा-ऽङ्ग सू० १५८) इति आगम-विरोधाच्च,
योगवतः काय संस्पर्शस्यैक काय-व्यापारत्त्वात् ।" इति-अन्यत्र विस्तरः ॥६५॥ 1 अ-बुद्धि-पूर्व-प्रवृत्ति-दृष्टा-ऽन्ते,
बुद्धि-पूर्व प्रवृत्ति-स्थलेऽपि___ माध्य-स्थ्य-हेत्वक्येन योजयति, :
[दार्टा-ऽन्तिक-योजनामाऽऽह, :-]
एवंचिय मज्झ-स्थो आणाइ उ कत्थइ पयर्सेतो। . सेह-गिलाणा-ऽऽइ-ऽट्ठा, अ-पवत्तो चेव णायव्वो.॥६६॥
पञ्चा० १४-१५॥ एवमेव
शैक्ष-[शिक्षक] ग्लाना-ऽऽद्य-ऽर्थम् = मध्य-स्थः % सन्
पुष्टा-ऽऽलम्बनतः [आलम्बनात], आज्ञातः
अ-प्रवृतः . क्वचित प्रवर्तमानः = वस्तुनि
ज्ञातव्या तत्त्वतः] । "शाना-ऽऽध-5र्थ-प्रस्तावाऽऽभवस्याऽपि
परिभवरवाद" इति ॥६६॥
एव
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________________
- मा० ६७-६८-६९ ]
( ३५ )
[ इदमंत्र रहस्यम्
आणा पर तंतो सो, सा पुण सव्वण्णु-वयणओ चेव. । एग-त-हिया विज्जगणारणं सव्व - जीवाणं ॥ ६७॥
पञ्चा० १४-१६ ॥
+ आज्ञा पर तन्त्रः
सा पुनः
एकान्त-हिता = वर्तते
हितमेतदपि -
भावं विणा वि एवं होइ पवित्ती. ण बाहए एसा । सव्वत्थ अणा-भिसंगा वि-रह-भावं सु- साहूस्स ॥६८॥
पञ्चा० १४-१७ ॥
+ भावम् = विरुद्ध भावस्र विनाऽपि
सर्व जीवानाम् ष्टा- दृष्टोपकारात् इति ॥ ६७ ॥
एवम् = [ उक्तवत् ]
+ न
असौ = प्रवर्तकः ।
सर्व-ज्ञ- चचनत एव = आज्ञा । वैद्यक-ज्ञातेन,
बाधते = व
एषा
सर्वत्र
भवति प्रवृत्तिः = क्वचित्.
अन-ऽभिषङ्गात् = कारणात् विरति भावम् सु-साधोः ।
"उपेयोपायेच्छा व्यतिरिक्त भावस्यैव अभिष्वङ्गश्वात्, निरsभिष्वङ्ग- कर्मणश्च
अ- बाधकखात्" इति भावः ॥ ६८||
उस्सुत्ता पुण बाहइ स-मइ - विगप्प- सुद्धा विनियमेणं. । गीय - णिसिद्ध-पवज्जण-रूवा णवरं णिरs - णुबंधा. ॥ ६९ ॥
पञ्चा० ० १४-१८ ।।
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________________
गा०४-01
[ सु-साधुः * उत्सूत्रा पुनः = प्रवृत्तिः
स्व-मति-विकल्प-शुद्धा-ऽपि 3 पाधते = विरति-भावम् ,
तत्त्वतोऽ शुद्धत्वात्
(नियमेन), . "सुंदर-बुद्धीए कयं पहुयं पि, न सुंदर होइ.।"
इति-वचनात् । (उपदेशमालो) * गीत [ता-य] निषिद्ध-
नवरम्, (प्रवर्जन )प्रतिपत्ति-रूपा
प्रवृत्तिः गीता-ऽर्थेन निषिद्धे सति
निर-ऽभि-निवेशात् हेतोः . प्रतिपत्तिः-अ करणा-ऽभ्युपगमः, निर-ऽनुषन्धा=अनुबन्ध-कर्म-रहिता तया रूप्यते या, सा,
__ भवति । अ-पुनः करणात,
प्रज्ञापनीय-प्रकृतित्वाच्च" ॥ ६९ ॥ इअरहाउ, अभिणिवेसा इयरा, णय मूल-छिज्ज-विरहेण.। होएसा एत्तोचिय पुव्वा-ऽऽयरिया इमं चाऽऽहु, :-॥७॥
पञ्चा० १४-१९ ॥ + इतरथा तु = गीता-ऽर्थ-निषिद्धा- अभिनिवेशात मिथ्या-ऽभि-निवेशेन
5-प्रतिपत्ति रूपा प्रवृत्तिः, . । इतरा-सा-ऽनुबन्धा। न च
भवति मूल छेद्य-विरहेण="चारित्रा-ऽ भाव- एषा-सा-ऽनुबन्धा प्रवृत्तिः।
मऽन्तरेण" इत्य-ऽर्थः अत एव-कारणात्
इदम् - पूर्वा.ऽऽचार्याः [भद्र-बाहु-प्रभृतयः] | आहुः-वक्ष्यमाणम् , :- ॥७०||
"गीअ-ऽत्यो य विहारो, बीओगीअ-ऽत्थ-मी(नि)सिओ भणिओ.। इत्तो तइय-विहारो णा-ऽगुण्णोओ जिण-वरेहिं. ॥७१॥
॥पञ्चा० १४-२०॥
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________________
मा० ७२-७३ ]
"गीता-ऽर्थश्व
द्वितीयः गीता - ऽर्थ मि (नि) श्रितः
अतः = विहार-द्वयात् तृतीय - विहारः = साधु-विहरण-रूपः
गीता-ऽर्थस्य
+ अस्य भावार्थमाह,
गीअस्स णो उस्सुत्तो तज्जुत्तरसेयरस्स वि तहेव । णियमेण चरणवं, जं, न जाउ आणं विलंघेइ ॥ ७२ ॥
पञ्चा० १४-२१ ॥
"कुत: ?"
नियमेन = अवश्यं भावेन
--
न
तद्- युक्तरूप = गीता-ऽथं युक्तस्य इतरस्याऽपि = अ-गीता-ऽर्थस्य
चरणवान्,
यद् = यस्मात् कारणात्,
·
(R)
[ सु-साधुः
विहारः = तद्-S-भेदोपचारात् एकः ।
भणित: -- विहार एव ।
अनुज्ञातः जिन वरैः = भगवद्भिः " ॥ ७१ ॥
उत्सूत्रा=प्रवृत्तिः,
तथैव = "नोत्सूत्रा'' इत्य- ऽर्थः ।
"
न जातु न कदाचिदऽपि
आज्ञाम्
उल्लङ्घयति उत्क्रामति ।
=
“अ-ज्ञान-प्रमादा-ऽ-भावात्" इत्यर्थः ॥ ७२ ॥
णय गोअत्थो णं ण णिवारेइ जोग्गयं मुणेऊणं. । एवं दोहं विचरणं परिसुद्धं, अण्णा णेव ॥ ७३ ॥
पञ्जा० १४-२२ ॥
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गा.७४-७५ ]
(३८)
[सु-मातुः
अन्यथा
नच गीताऽर्थः = सन्
निवारयति = अ-हित-प्रवृत्तम् अन्यम्-अ-गीता-धम्
योग्यताम्
मत्त्वा=निवारणीयस्य। एवम
घरणम्-गीता-ऽर्था--गोताऽर्थयोः इयोरऽपि
परिशुद्धम् वारण-प्रतिपत्तिभ्याम्,
नैव = उभयोरपि ॥७३॥ ता, एवं विरइ-भावो संपुण्णो एत्थ होइ णायव्वो । णियमेणं अट्ठा-रस-सोल-इंग-सहस्स-रूवो उ. ॥७४॥
॥पञ्चा० १४.२३॥ तत्% तस्मात्,
भवति एवम्-उक्तवद्
ज्ञातव्यः = इति विरति भावः
जियमेणं = अवश्यतया संपूर्णः = समग्रः
अष्टा दश-शीला-ऽङ्ग-सहस्र-रूप एव । अत्र - व्यतिकरे
"सर्वत्र पाप-विरतेरेकत्त्वाद" इति भावः ॥७४॥ उणतं ण कयाइ वि इमाणं, संखं इमं तु अहिगिच्च, । जं, एय-धरा सुत्ते णिहिट्ठा वंदणिज्जा उ. ॥७५॥
पञ्चा० १४-२४ ॥ * उनत्वम्
कदाचिदऽपि
- एतेषाम् [शीला-ऽङ्गानाम्], सङ्ख्याम् = एव
अधिकृत्य - आश्रित्य,
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गा० ७६ ]
(३९) .
[ प्रमाण-सिद्ध-भाव-साधुः
यत् = यस्मात्,
सूत्रे प्रतिक्रमणा-ऽऽख्ये एतद्-धराः-अष्टा-दश शोला- निर्दिष्टाः सहन-धारिणः
बन्दनीयाः = नाऽन्ये ।। "अहा-रस सहस्स-सील-ऽङ्ग-धरा [अट्ठा-रस-सील-ङ्गि-सहस्स-धारा]"
इत्या ऽऽदि-वचनात् । [भावश्यक-सूत्रे ]
+ इवं सु-बोध्यम् -
यत्-किञ्चिदेका-ऽऽद्युत्तर गुण-हीनत्वेऽपि--- मूल-गुण स्थैर्येण
हारिनवतां योग्यतया---
शोला-ऽङ्ग-सङ्ख या पूरणीया, प्रतिज्ञा-कालीन-संयम-स्थाना-ऽन्य-संयम-स्थानानांषट्-स्थान-पतितानां च
उक्तवदेव
तुल्यत्वोपपत्तः, "संजम-हाण-ठियाणं कि कम्म
बाहिराण भइयवं."
इत्या-ऽऽद्युपपत्तेश्च ।" इत्य-अधिकमऽस्मत्-कृत-गुरु-तत्व-विनिश्चये।
___ "उत्सर्ग-विषयो वाऽयम्" ।। ५ ।। * तदाऽऽह, :ता, संसार-विरत्तो अण-उंत-मरणा-5ऽइ-रूपमेअं तु । णाऊं एअ-विउत्तं मोक्खं च गुरूवएसेणं. ॥७६ ॥
पञ्चा० १४-२५ ॥ * यतः,
दुष्करमेताछोलं संपूर्णम्
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गा० ७७-७८]
(४०) [ प्रमाण-सिद्ध-भाव-साधुः तत्-तस्मात,
रूपम्="आदिना-जन्म-जरा-ऽऽदि-ग्रहः" संसारात विरक्तः = सन्
एतमेव-संसारम् (१) अन-ऽन्त-मरणा-ऽऽदि- ज्ञात्वा, (२) एतद्-वियुक्तम् = मरणा-ऽऽदि. मोक्षं च-जात्वा वियुक्तम्,
| गुरूपदेन = शास्त्रानुसारेण ।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ ७६ ॥ (तस्मात्, संसार-विरक्तोऽन-ऽन्त-मरणाऽऽदि-रूपमेतम् , एतद्-वियुक्तं च मोक्षं
गुरूपदेशेन ज्ञात्वा, इत्य-ऽन्वयः ।- संपादकः।) परम-गुरुणो आण[ ०णा अअण-ऽहे]आणाए गुणे,तहेवदोसे य,। मोक्ख-ऽत्थी पडिवज्जिअ भावेण इमं विसुद्धेणं, ॥७७॥
पञ्चा० १४-२६ ॥ (३) परम-गुरोश्च = भगवता (६) मोक्षा-ऽर्थी ... आज्ञाम्,
संप्रतिपद्य च (४) [अनऽ-घान्]
भावेन आज्ञायाः
इदम् = शीलम् गुणान् ज्ञात्वा],
विशद्धन । (५) तथैव
इति-गाथा-ऽर्थः ॥७७॥ दोषाँश्च = विराधनायाः, विहिया-ऽणुद्वाण-परो, सत्त-ऽणुरूवमियरं पि संधंतो,। अन्नत्थ अणुवआगा खवयंतो कम्म दोस ऽवि, ॥ ७८ ॥
पक्षा. १४-२७॥ (७) विहिता-ऽनुष्ठान-परः (८) शक्त्य-ऽनुरूपम् = यथा-शक्ति
इतरदऽपि = अ-शक्यमऽपि [ शक्त्य-ऽनुचितम् ] संघयन् = भाव-प्रतिपत्त्या,
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गा० ७९-८० ]
(४१) [प्रमाण-सिद्ध-भाव-साधुः (९) अन्यत्र : विहिता-ऽनुष्ठानात
अनुपयोगात् = अ-शक्तेः [शक्ते ]. क्षपयन् कर्म-दोषान् = प्रतिबन्धकान
अपि ॥ ७८॥ सव्वत्थ निर-ऽभिसंगो, आणा-मित्तम्मि सव्वहा जुत्तो, । एग-ऽग्ग-मणो धणियं सम्मि, तहाऽ-मूढ-लक्खो य, ॥७९॥
पञ्चा० १४.२८ ॥ (१०) सर्वत्र वस्तुनि
निर-ऽभिष्वङ्गः = मध्य-स्थः, (११) आज्ञा मात्रे = भगवतः
.सव्वथा
युक्तः = "आराधनक-निष्ठः" ["वचनक-निष्ठः"] इत्य ऽर्थः, (१२) एका-ऽग्र मनाः अन्य विस्रोतसिका रहितः
(धणिय) = [अत्य-ऽर्थ विस्रोतसिका-रहितः], तस्याम् = आज्ञायाम :
तथा (१३)अ-मूढ-लक्ष्यश्च = सत्, [सत्-प्रतिपत्त्या] ॥७९॥ तह, तेल्ल-पत्ति-धारग-णोय-गओ, राहा-वेह-गओ वो,। एअं चएइ काऊं, ण उ अण्णो खुद्द-चित्तो, त्ति.॥८०॥
पञ्चा० १४.२९॥
तथा
(१४) तेल-पोत्रो धारक ज्ञात-गतः अपाया ऽवगमात्
अ-प्रमत्तः, (१५) राधा-वेध-गतो वा,
कथानके सु-प्रतीते। [अत एव]
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मा० ८१-८२ ]
एतत् = शीलम् शक्नोति कर्तुम् = पालयितुम्,
अत एव =अस्य दुर-ऽनुचरत्वात् कारणात्
निर्दिष्टः = कथितः पूर्वा-ssचार्यै::
-
+ उपचयमाऽऽह,
तोचि णिोि पुव्वा ऽऽयरिएहिं "भाव- साहु" ति । हंदि पमाण-ट्ठिअ- ऽत्थो, तं च पमाणं इमं होइ, :-॥८१॥
-:
: =भद्र - बाहु-प्रभृतिभिः .
“शास्त्रोक्त-गुणवान्साधुः = [एवं भूत एव],
"इति नो
-: अस्माकम्
( ४ )
इति-गाथा - ऽयं ॥ ८० ॥
इह = "न शेषा:" इत्य -ऽन
हेतुः
= साधकः
[ प्रमाण सिद्ध - भाव- साधुः
न तु
अन्यः
क्षुद्र - चित्तः = [ क्षुद्र - सत्त्वः ] अन-धिकारित्वात् ।
तच
प्रमाणम् = साधु-व्यवस्थापकम्
“सत्थुत्त-गुणो साहू, ण सेस,” “इइ णे[णो] पइण्ण" इह हेऊ, :- 1 " अ-गुणत्ता” इति णेओ. दिट्ठ-5 तो पुण, :-सु-वण्णं व (च) ॥८२॥
पञ्चाशक १४-३१ ॥
।। पञ्चा० १४-३० ॥
" - "पारमार्थिक
"भाव-साधुः' यति:" [ इत्यर्थः] "हंदि" = इत्युपदर्शने
प्रमाण स्थिताऽर्थः = [प्रमाणेनैव ]
ना-ऽन्यथा ।
इदम्
भवति = वक्ष्यमाणम्,
-:
- ॥८१॥
शेषाः = शास्त्र - बाह्याः " ।
। प्रतीज्ञा = पक्ष: ।"
"अ-गुणत्वात्,” इति
विज्ञेयः = "तद्-गुण-रहितत्वाद" इत्यर्थः ।
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गा८३-८४-८५ ]
दृष्टा-ऽन्तः पुन:, :
( ४३ ) [ प्रमाण-सिद्धस्वे सु-वर्ण-रष्टा-ऽन्तः
सु-वर्णम् इव = "अत्र व्यतिरेकतः"
इत्य-ऽर्थः ॥ ८॥
* सु-वर्ण-गुणानाऽऽह, :वेस-घाइ-रसा-ऽऽयण-मंगल-5-त्थ-विणए पयाहिणा-ऽऽवत्ते। गुरुए, अ-डज्झे, अ-कुत्थे. अट्ठ सु-वण्ण-गुणा हुंति. ॥८३॥
___ पञ्चा० १४-३२ ॥ विष-घाति = सु-वर्णम् , प्र-दक्षिणा-ऽऽवतम् = अग्नि-तप्तसतथा
प्रकृत्या, रसा-ऽऽयनम् = वयः-स्तम्भनम्, गुरु-सारतया मङ्गला-ऽर्थम् = मङ्गल-प्र-योजनम् , अ-दाह्यम् =सारतयैव विनीतम्- कटका ऽदि योग्यतया, अ-कुथनीयम् = अत एव । एवम्अष्टौ
भवन्ति - अ-साधारणाः। सुवर्ण-गुणाः
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ ८३॥ दाष्र्टा-ऽन्तिकमऽधिकृत्याऽऽह, :इह, मोह-विसं घायइ,-सिवोवएसा रसा-ऽऽयणं होइ.। गुणओ अ मंगल-ऽत्थं कुणइ, विणीओअ “जोग्ग"ति,॥ ४॥ मग्ग-ऽणुसारि पयाहिणं, गंभीरो गुरुअओ तहा होइ.। कोह-ऽग्गिणा अ-डज्झो. अ-कुत्थो सइ सील-भावेण ॥८५॥
पश्चा० १४-३३-३४ ॥
| घातयति = केषांचित् । मोह-विषं
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________________
गा० ८६-८७.]
(४४)
[दृष्टा-ऽन्तोपनयः
शिवोपदेशात् तथारसा-ऽऽयनम्
भवति। अत एव
परिणताद्मुख्य-गुणतश्च
मङ्गला-ऽर्थम् कसेति ।
प्रकृत्याविनीतश्च = "योग्यः"
इति कृत्वा ।। ८४: ।।
मार्गाऽनुसारिता सर्वत्र प्रदक्षिणाऽऽवर्तता। गम्भीरश्वः-चेतसा गुरुः तथाभवति। क्रोधा ऽग्निना अ-दाह्यः = ज्ञेयः। अ-कुथनीयः सदा ___ उचितेन-. शील-भावेन ॥ ८५ ॥
एवं दिट्ठ-त-गुणा सज्झम्मि वि एत्थ होंति णायव्वा. । ण हि साहम्मा-5-भावे पायं जं होइ दिठ्ठ-ऽन्तो. ॥८६॥
पञ्चा० १४.३५ ॥ *एवम्
अत्र-साधौ दृष्टा-ऽन्त-गुणाः = विष-घाति
भवन्ति .. स्वा-ऽऽदयः
ज्ञातव्याः । साध्येऽपि
यद्-यस्मात साधा -5-भावे = एका-ऽन्तत्वेनवः |
भवति प्रायः
दृष्टा-ऽन्तः ॥८६॥ चउ-कारण-परिसुद्ध कस-छेअ-ताव-तालणाए अ । जं, तं विस-घाइ-रसा-ऽऽयणा-ऽऽइ-गुण-संजुअंहोइ.॥८७॥
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________________
छेदेन
तथा
तद्
गा० ८८-८९ ] (४५)
[ अन्साघुः इयरम्मि कसा-ऽऽइआः- विसिद्ध-लेसा, तहेग-सारत्तं,। अवगारिणि अणुकपा, वसणे अइ-णिञ्चलं चित्तं. ॥८॥
पञ्चा० १४-३६-३७॥ * चतुष्-कारण-परिशुद्धम् इतरस्मिन् = साधौ चैतद् भवति, :- .
कषाऽऽदया = यथा-सङ्ख्यमेते, कषण
यदुत, :
विशिष्टा-लेश्याः कषः, तापेन ताउनया - च, इति ।
एक-सारत्वम्-छेदः, यद-एवं भूतम्,
अपकारिणि
अनुकम्पा- तापः, विष-घाति-रसा-ऽऽयना-ऽऽदि. व्यसनेगुणं संयुक्तम्
अतिनिश्चलम्भवति-नाऽन्यत् ।
चितम् = ताडना। परीक्षेयम् ॥ ८७॥
एषा परीक्षा ॥८८ ॥ तं कसिण-गुणोवेअं होइ सु-वणं, न सेसयं, जुत्ती । ण वि णाम-रूव-मित्तेण, एवम ऽ-गुणो हवइ साहू. ॥८९॥
पञ्चा० १४-३८॥ । तत,
नाऽपि कृत्स्न गुणोपेतम् = सत् नाम-रूप मात्रेण = बाह्वन, (भवति)
एवम्सु-वर्णम्-तात्त्विकम.
अ-गुणः सन् [भावा-ऽपेक्षया शेषकम् ,
भवति "युक्तिः ” इति युक्ति सु-वर्णम् । । साधुः ।। ८९॥
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________________
· गा० ९०९१]
[ अ-साधुः सु-साधु जुत्ती-सु-वण्णयं पुण सुवण्ण-वण्णं तु जइ वि कीरिज्जा.। ण हु होइ तं सु-वण्णं सेसेहिं गुणेहिं अ-संतेहिं. ॥१०॥
पञ्चा० १४.३९ ॥
+ युक्ति-सुवर्णम् पुनः = अ-तात्विकम् सु-वर्ण वर्णमेव
भवतितत् सु-वर्णम्
यद्य-ऽपि
शरैः
कोयते-कथंचित, तथाऽपि-.
गुणैः-विष-घातित्वा-ऽऽदिभिः अ-सदभिः ।
इति-गाथा-5थः ॥१०॥
प्रस्तुतमऽधिकृत्याऽऽह, :जे इह सुत्ते भणिया साहु-गुणा, तेहिं होइ सो साहू.। वण्णेणं जच्च-सु-वण्णयं व संते गुण-निहिम्मि. ॥ ९१ ॥
पश्चा० १४४०॥
शास्त्रे
साधु-गुणाः=मूल-गुणाः [णा-ऽऽदयः], तैः भवति असो साधुः।
भणिताः
वर्णेन - सता जात्य-सु-वर्णवत्
सति गुण-निधौ विष-धाति
त्वा-ऽऽदि-रूपे ।। ९१ ॥
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________________
(४७)
गा० ९२-९३ ]
[अ-साधुः जोसाहू गुण-रहिओभिक्खं हिंडइ, [ण होइ] कहं गुसो साहू ?। वण्णेणं जुत्ति-सु-वण्णयं वाऽ-संते गुण-निहिम्मि. ॥९२॥
पञ्चा० १४-४१॥
भिक्षामटति, साधुः
[न भवति] (कथं नु) गुण-रहितः = सन्
असौ
साधुः ?। • एतावता
अ-सति वर्णेन = सता केवलेन
गुण-निधौ = विष-घाति-स्वाऽऽदियुक्ति-सु-वर्णवत्
गुण-रूपे ॥ ९२ ॥ उद्दिवःकडं भुंजइ, छ-काय-पमद्दणो, घरं कुणइ, । पच्चक्खं च जल-गए जो पिवइ,कहं णु सोसाहू!]भिक्खू साहू?९३
पश्चा०१४-४२ ॥ उद्दिश्य .
पिषति = आकुट्टिकर्यव, कृतम्
कथम् भुङ्कते = आकुट्टिकया, षट्-काय प्रमर्दनः = निर-ऽपेक्षतया, गृहं करोति = देव-गृह-व्याजेन
. [देव-व्याजेन ] प्रत्यक्षं च
साधुः भवति । जल-गतान् = प्राणिना
असो
भिक्षुः
नेव।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ ९३ ॥
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________________
गा०९४-९५ ]
(४८)
[साधु-परीक्षा
अण्णे उ कसा-ऽऽइआ किर एएऽत्थ हुंति णायव्वा । एयाहिं परिक्खाहिं साहु-परिक्खेह कायब्बा. ॥ ९४ ॥
॥ पञ्चा० १४-४३ ॥
* अन्ये तु= आचार्याः
इत्थमऽभिदधति, :"कषा-ऽऽदयः = प्रागुक्ताः
किल
ज्ञातव्याः[ यथा-क्रमम् । इदमुक्तं भवति, :-[किमुक्तं भवति ?] एताभिः परीक्षाभिः = निश्चय-प्रकारैः
[भाव-साराभिः] साधु-परीक्षा .
एते उद्दिष्ट-भोक्तृत्त्वा ऽऽदयः अत्र = साध्व-ऽधिकारे भवन्ति
कर्तव्या।
+ "समान-धर्म-दर्शन-जनित-साधुत्त्वाऽ-साधुत्व-संशय-निरासाय सद्-वृत्तेन
साधुत्व-संभावनया
___ अभ्युत्थानस्य कर्तच्यत्वेऽपि, औत्तर-कालिकम्थथोचितं [यथोत्तर-] परीक्षयैव साध्यम्"
इत्यस्य शास्त्रा-ऽर्थत्वात्, इति दिग्" ॥ ९४ ॥
* निगमयन्नाऽऽह, - तम्हा, जे इह सत्थे साहु गुणा, तेहिं होइ सो साहू. । “अच्च-ऽत-सु-परिसुद्धेहि मोक्ख-सिद्धि” त्ति काऊणं. ॥९५॥
.
पञ्चा० १४-४४ ॥
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________________
गा० ९६-९७
तस्मात्
ये
इह
शास्त्रे = भणिताः
साधु-गुणाः = प्रति-दिन-क्रिया -ऽऽदयः,
"अत्य-ऽन्तम्
सु-परिशुद्धैः उपधा-शुद्धः,
=
"भावमन्तरेण तदनुपपत्तेः ।"
अलम्
अत्र
(४९)
"प्रतिभोत्स्यन्ते अन्ये = प्राणिनः ""
-:
‡ एवम्
खलु.
↑ "ga: ?" [ geuise, ] :—
तैः = कारण-भूतैः
भवति
असौ
साधुः = भाव- साधुः,
नाऽन्यथा ।
तैरsपि,
इति-गाथा - ऽर्थः ॥ ९५ ॥
+ प्रकृत योजनामाऽऽह,
अलमित्थ पसंगेणं. एवं खलु होइ भाव-चरणं तु. । "पडिबुज्झिरसंत ऽण्णे" भाव - ऽज्जिय-कम्म- जोएणं ॥ ९६ ॥
प्रसङ्ग ेन प्रमाणाऽभि धाना -ऽऽदिना ।
मोक्ष - सिद्धिः" इति कृत्वा ।
न द्रव्य - मात्र - रूपैः
[ भाव-चारित्रम्
इति
भवति
भाव चरणम् = उक्त स्व-रूपम् ।
भावा-जित-कर्म-योगेन = जिना - ssयतन विषयेण ।
इति - गाथा - Sर्थः ॥ ९६ ॥
अ- पडिवडिअ - सुह चिंता - भाव- ऽज्जिय-कम्म-परिणइए उ. । एअस्स जाइ अंतं, तओ स आराहणं लहइ ॥ ९७ ॥
पश्चा० ७.४८ ।।
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________________
सा
गा० ९८-९९-२०० ]
(५०) [दव्य-स्तव-भाव-स्तवयोः संबन्धः * अ-प्रतिपतित-शुभ-चिन्ता-भावा-ऽर्जित-कर्म-परिणतेस्तु = सकाशात् , जिना-ऽऽयतन-विषया या चिन्ता]। अन्तम्-पारम् , एतस्य-चरणस्य यातिततः
आराधनाम् -
लभते-शुद्धाम् ॥९॥ णिच्छय-णया जमेसा चरण-पडिवत्ति-समयआभिइ । आ-मरण-ऽतमऽ(ज)स्सं संजमपडिपालणं विहिणा.॥९८॥ निश्चय-(नयात्) = मतात् आ-मरणा-ऽन्तम् यदू
अजस्रम् = (अन-ऽवरतम्) एषा=आराधना
संयम-परिपालनम्चरण-प्रतिपत्ति-समयतः प्रभृति ।
विधिना। ____ इति-गाथा-ऽर्थः ।। ९८ ॥ आराहगो य जीवो सत्त-उद-भवेहि सिज्झइ णियमा. । संपाविऊण उ परमं हंदि अह-क्खाय-चारित्तं. ॥९९॥ * आर व
भवः = जन्मभिः जीव: - परमा-ऽर्थतः
सिध्यति सप्ता-अष्टभिः
नियमात्। "कथम् ?" संप्राप्य
हदि परमम् -प्रधानम्
यथा-ख्यातम्
चारित्रम् = अ-कषायम्, इति ।।९९॥ दव्व-त्थय-भाव-स्थय-रूवं एअमिह होइ दट्टव्वं. अण्णुण्ण-समणुविद्धं णिच्छयओ भणिय-विसयं तु.॥१०॥
पञ्चा० ६-२७॥
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________________
गा० १०१-१०२ ]
+ द्रव्य-स्तव-भाव- स्तव-स्व-रूपम् -
तद - ऽन्यतरम् एतद् = अन-ऽन्तरोक्तम्
अन्योऽन्य- समनु विडम् = गुण
प्रधाना - ऽन्यतर- प्रत्यासत्त्या मिथो
व्याप्तम्
"एक विषयाणाम्
( ५१ )
+ "यतेऽपि
पुष्पा -ऽऽमीष-स्तुति प्रतिपत्तीनांयथोत्तरं प्राधान्यम् ॥ १०० ॥"
द्रव्य- स्तव-भेद:- द्रव्य- स्तव
लेशा - ऽनुवेधः
" जइणो विहु दव्व-त्थय-भेओ अणुमोयणेण अत्थि" त्ति । एअं च इत्थ णेयं इय सि[सु]द्धं तं त जुत्तीए ॥१०१॥
पञ्चा० ६-२८ ॥
एतच्च
अत्र
ज्ञेयम्=अनुमोदनम्
[ मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तब:
इइ
भवति
द्रष्टव्यम्, :
निश्चयतः
भणित विषयमेव = अर्हद्-गो
चरमेव ।
+ तन्त्रे - सिद्धान्ते
वन्दनायाम्
पूजन- सत्कार - हेतुः = "एतद -ऽर्थम् " इत्य- ऽर्थः
अनुमोदनेन अस्त्येव । "
एवम
शुक्रम
तन्त्र-युक्त्या माणया,
·
= वक्ष्य
• ॥१०१॥
-
तं तम्मि वंदनाए पूअण सक्कार - हेऊ उस्सग्गी | जइणो विहु णिद्दिट्टो. ते पुण दव्व-त्थय-स-रूवे ॥१०२॥
पञ्चा० ६-२९ ।।
उत्सर्गः = कायोत्सर्गः
यतेऽपि
निर्दिष्ट:
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________________
गा० १०३-१०४ ]
(५२)
[ मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः
"पूअण-वत्तियाए
सकार-वत्तियाए” इति-वचनात् । तो पुनः = पूजा-सत्कारौ
द्रव्य-स्तव-रूपौ : नोन्य स्व-रूपौ ।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १०२॥ मल्ला-ऽऽइएहिं पूआ. सक्कारो पवर-वत्थमा-ऽऽईहिं. । अण्णे-“विवज्जओ इह.” दुहा वि दव्व-त्थओइत्थ.॥१०३॥
पश्चा० ६.३० ।। माल्या-ऽऽदिभिः
सत्-कारः पूजा,
प्रवर-वस्त्रा-ऽलङ कारा:ऽऽदिभिः । तथा* अन्ये
इह-वचने [प्रवचने]-" . "विपर्ययः" "वस्त्रा-ऽऽदिभिः पूजा,
माल्या-ऽऽदिभिः सत्-कारः" व्याचक्षते । * "सर्वथा
द्रव्य-स्तवः विधाऽपि = यथा तथाऽस्तु [अस्तु] । अत्र=अमिधेयः" इति ध्येयम् ॥१०३ मत्र
एव युक्त्य ऽन्तरमाऽऽह, :ओसरणे बलिमा-ऽऽई ण चेह जं भगवया वि पडिसिद्ध,। ता एस अणुण्णाओ उचिआणं गम्मइ तेण. ॥ १०४॥
पञ्चा० ६-३१॥ * समवसरणे
यद्-- बल्या-ऽदि% द्रव्य-स्तवा-ऽङ्गम् , भगवताऽपि = तीर्थ करेणाऽपि न च
प्रतिषिद्धम् ।
।
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________________
गा० १०५-१०६ ]
( ५३ )
[मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः
त
एषः- अत्र द्रव्य-स्तवः अनुज्ञातः
तेन = तीर्थ-करेण उचितेभ्यः = प्राणिभ्यः गम्यते = चेष्टा-समान-शोलेन
मौनेन व्यञ्जकेन ॥१०॥
न य भयवं अणुजाणइ जोगं मुक्ख-वि-गुणं कयाचिद ऽवि.। तय-ऽणुगुणो वि अ सओ ण बहु-मओ होइ अण्णेसिं?॥१०५॥
पञ्चा० ६-३२ ॥
योगम् = व्यापारम् भगवान्
मोक्ष-विगुणम् अनुजानाति
कदाचिऽपि = मोहा-5-भावात् । तदनुगुणोऽपि च
बहु-मतः असौ योगः
भवति न
अन्येषाम् ?
किन्तु, बहु-मत एव। . "इति-अर्थतः- सोऽपि द्रव्य स्तवः
__अनुमति-क्रोडी-कृत्तो भवति ।" इति ॥ १०५॥ "भाव एव भगवतोऽनुमोद्यः, न द्रव्यम् ।" इत्या-ऽऽशङ्कामसत्-कार्य-नयेनद्रव्येभाव-सत्ताऽभ्युपगमनेन
__निरस्यन्नाऽऽह, :"जो चेव भाव-लेसो, सो चेव य भगवओ बहु-मओ उ.। णतओ विणेयरेणं. ति," अस्थओ सो वि एमेव." ॥१०६॥
पश्चा० ६-३३ ॥
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________________
गा० १०७- ]
+ य एव भाव - लेशः,
स एव च
" अ- पुनर्बन्धका -ऽऽदि चतुर्दश-गुण-स्थाना- ऽन्तर-भावतः, तदाऽऽज्ञा-विषयत्त्वात् ।
तत्र-
इष्ट साधनता- व्यञ्जक- व्यापारस्यैव
तदनुमतित्त्वात् ।
हीनभावस्वेन- मोरवे,
अति-प्रसङ्गात् ।
तकः = भाव-लेशः
इति
अर्थतः
एतदेव स्पष्टयति, :
( ५४ )
"कार्यम्,
इच्छता
अवदाम चोपदेश - रहस्ये,
"जह हीणं दव्व-त्थयं, अणुमणेज्जा ण संजमो" त्ति मई, ता "कस्स विसुह-जोगं तित्थ-यरो नाऽणुमणिज्जे ?" || ति
"न
-:
भगवतः
बहु-मतः ।
[ मुनीनामऽपि द्रव्य - रतव
अन-ऽन्तरम् = अ-क्षेप - [मोक्ष-]-फल
कारि
विना
इतरेण:
सोऽपि = द्रव्य-स्तवोऽपि
एवमेव = अनुमत एव ॥ १०६ ॥
"कज्जं इच्छंतेणं अण - Sतरं कारणं पि इट्ठ तु", । जह आहार-ज- तित्तिं इच्छंतेणेह आहारो ॥ १०७ ॥
पश्चा० ६-३४ ॥
| = द्रव्य- स्तवेन । "
कारणम्
अपि
इष्टम्=एव भवति । "
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________________
गा० १०८.]
( ५५ ) . [ मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः "कथम् ?" यथा--
इच्छता आहार-जोम्
इह = लोके तृप्तिम्
आहारः-[इष्टः] पृष्टः।
इति-गाथा-ऽर्थः * "अपा-ऽर्ध-पुद्-गल-व्यवधानेनाऽपिभाव-स्तवेद्रव्य-स्तवस्य हेतुत्त्वात् ।"
"कथमऽन-ऽन्तरं कारणत्वम् ?" इति चेत्ऋजु-सूत्रा-ऽऽदि-नयेन । कथंचित्
तन्-नये. . तत्-स्थलीया-ऽन-ऽन्तर-भाव स्यैव पुरस्कारात् । व्यवहार-नयेन तु--
[द्वारेण ] द्वारिणोऽन्यथा-सिद्धय-ऽभावात,
___ अन-ऽन्तर-कारणत्वम-ऽविरुद्धमेव ।” इति व्युत्पादितम् -
___ अध्या-ऽस्म-मत-परीक्षा-ऽदौ ॥१०७ ।। भवना-ऽऽदावऽपि विधिमाऽऽह, :जिण-भवण-कारणा-ऽऽइ विभरहा-ऽऽईणंण निवारियं तेणं,। जह तेसि चिय “कामा सल्लं-विसा-ऽऽईहिणारावयणे]हिं.१०८
॥ पञ्चा० ६-३५ ॥ जिन-भवन-कारणा-ऽऽथपिद्रव्य- न स्तव-रूपम्
निवारितम् भरता-ऽऽदीनाम् = श्रावकाणाम् तेन = भगवता, * यथा
शल्य-विषा-ऽऽविभिः तेषामेव = भरता ऽऽदीनाम् [वचनैः] = ज्ञातैः= [दृष्टा-ऽन्तः ]
निवारिताः।
कामाः
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________________
गा० १०९-११० ]
" सल्लं कामा, विसं कामा"
+ तत्,
इत्य ऽर्थः ॥ १०८ ॥
ता, तंपि अणुमयं चिय अ-पडिसेहाओ तंत- जुत्तीए. । इय सेसाण वि इत्थं अणुमोअणमा ऽऽइ अ- विरुद्ध ॥ १०९ ॥
पञ्चा० ६-३६ ।।
अ-प्रतिषेधात् = कारणात्
तन्त्र-युक्त्या, :
( ५६ )
इत्याऽऽदि- प्रसिद्धैः ।"
तदपि = जिन भवन - कारणा-ऽऽद्यपि
अनुमतमेव,
"अ - निषिद्धमनुमतम् " इति तन्त्र-युक्तिः ।
+ " इय०" एवम् = भगवदऽनुज्ञानात् शेषाणामऽपि = साधूनाम्
य: (यच्च) चतुर्द्धा
औपचारिक: = विनयः
तु यः, तत्र = विनय-मध्ये,
सः
तीर्थ-करे
आदि-शब्दात्
+ युक्त्य - Sन्तरमाSSह,
जं च चउद्धा भणिओ विणओ उवयारिओ उ जो तत्थ ।
सो तित्थ-यरे णियमा ण होइ
दव्व-त्थयादन्नो. ॥११०॥
पश्चा० ६-३७ ।।
कारणोपदेश - Ssदि-ग्रहः ॥ १०९ ॥
-
[ मुनीनामऽपि द्रव्य- स्तवः
अत्र = द्रव्य-स्तवे अनुमोदना -ऽऽदि अ- विरुद्धम् ।
भणितः
विनयः = ज्ञान दर्शन - चारित्र - लोको
पचारिक भेदात् ।
अवश्यंतया
नियमात् =
न
भवति
द्रव्य-स्तवात्
अन्यः ।
किन्तु [ अपि तु ], द्रव्य- स्तव एव ॥ ११० ॥
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________________
गा० १११-११२-११३]
( ५७
[ मुनीनामपि द्रव्य - स्तवः
एअस्स उ संपाडण - हेउ तह हंदि वंदनाए वि । पूअणमा - SSदुच्चारणमुववन्नं होइ जइणो वि. ॥१११॥
पश्चा० ६-३८ ।।
+ एतस्य = लोकोपचार- विनयैक-रु
द्रव्य-स्तवस्य
क रूप. " अण-वत्तियाए" [ इत्या- 55वि ]
(तु)
संदादन हेतोः = संपादनाऽर्थस्
इतरथा = तु अन-ऽर्थकम्
न च
तद-ऽनुचारणेन-
तथा
"हंदि " = इत्युपदर्शना - ऽर्थम् वन्दनायामऽपि = सूत्र - रूपायाम्
1
इअरहा, अण- ऽत्थगं तं.णय तय ऽणुच्चारणेण सा भणिया । ता अभिसंधारणमो संपाडणमिदुमेअस्स ॥ ११२ ॥
पञ्चा० ६-३९॥
उपपन्नम्
भवति
यतेऽपि ॥ १११
+ तत् = तस्मात्
अभिसन्धारणेन - विशिष्टेच्छा
रूपेण
तद् = उच्चारणम् ।
सा= [वन्दना ] विदिता भणिता = [यतेः ] |
संपादनम् -
इष्टम्
एतस्व= द्रव्य- स्तवस्य ।
इति-गाथा - ऽर्थः ।। ११२ ।।
सक्खा उकसिण-संजम दव्वा S-भावेहिं णो अयं (जइणो ) इट्ट । गम्मइ तंत-ट्टिइए- "भाव-प्पहाणा हि मुणउ . " ति. ॥११३॥
पञ्चा० ६-४० ॥
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________________
गा० ११४-११५ ]
(५८)
मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः
* "साक्षात्तु-स्व-रूपेणव
अयम् कृत्स्न-संयम-द्रव्या-5-भावाभ्याम् | इष्टः--द्रग स्तवः" इति कारणास्थाम
गम्यते
तन्त्र-स्थित्या पूर्वा--पर-निरुपणेन,:गर्भा-ऽर्थमाऽऽह, :
... "भाव-प्रधाना हि मुनयः” इति कृत्वा । ' "उपसर्जनमयम् ।
__ इति गाथा-ऽर्थः ॥ ११३॥ एएहिं तो अण्णे धम्मा-ऽहिगारीहं जे उ, तेसिं तु. । सक्खंचिय विण्णेयो. भाव-गतया, जओ भणियं, :-॥११४॥
पञ्चा० ६-४१॥ * एतेभ्यः = मुनिभ्यः अन्ये
ये-श्रावकाः धर्मा-ऽधिकारिणः तेषां तु
साक्षादेव_स्व-रूपणव . . विज्ञेयः
भावा-ऽङ्गतया = हेतु-भूतया । यतः
भणितम् वक्ष्यमाणम्], :- ॥११४॥
"अ-कसिण-पवत्तगाणं विरया-5-विरयाण एस खलु जुत्तो। संसार-पयणु-करण दव्व-त्थए कूव-दिट्ठ-ऽन्तो” ॥११५॥
पञ्चा०६-४२॥ अ-कृत्स्न-प्रवर्तकानाम् संयममऽधिकृत्य युक्तः स्व-रूपेणैव विरता-5-विरतानाम् = प्राणिनाम् । संसार-प्रतनु-करणःशुभा-ऽनुबन्धात्
द्रव्य-स्तवः।
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________________
गा० ११६-११७ ]
द्रव्ये स्तवेतस्मिन्
" स खलु = द्रव्य-स्तवः पुष्पा - SSदिकः
+ आक्षिप्य समाधत्ते :
सो खलु पुप्फा - ssइओ तत्थुत्तो, ण जिण भवणमाऽऽई वि. ।
आइ-सहा वृत्ती तय-S-भावे कस्स
पुप्फा - ऽऽई ! ॥ ११६ ॥
पञ्चा० ६-४३ ।।
तत्राऽऽह, :
"आदि-शब्दांत्
जिन भवना - SSदिरsपि = अनाकारात्" |
तद-s- भावे = जिन भवनाssusभावे
( ५९ ) .
[ मुनीनामऽपि द्रव्य- स्तवः
कूप- दृष्टाऽन्तः = प्रसिद्ध कथानकगम्यः ।। ११५ ॥
* " ननु ata aenar sधिकारे
मुनेः
तत्रोक्तः =
"पुफा - SS ण इच्छति ।" इति प्रतिषेध- प्रत्यासन्नः [प्रतिषेध-प्रत्यासत्तेः ]
उक्तः = जिन भवना -ऽऽविषऽषि ।
इति - गाथाऽर्थः ॥ ११६ ॥
"णौ कसिण-संजम ० "
कस्य
पुष्पा-55दि ।
"नणु तत्थेव य मुणिणो पुष्का - ऽऽइ-निवारणं फुडं अत्थि " । अत्थि तयं, सयं करणं पहुच्च, नऽणुमोयणा-ऽऽइ वि.” ॥११७॥
पञ्चा० ६-४४ ॥
| पुष्पा - SSदि-निवारणम्
स्फुटम्
अस्ति
इत्याऽऽवि-वचमात्। "
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________________
गा० ११८-११९ ]
+ एतदाऽऽशङ्कयाऽऽह, :
अस्ति
किन्तु -
स्वयं करणं
न तु
(६०)
इति - गाथा - Sर्थः ।। ११७ ॥
[ मुनीनामऽपि द्रव्य- स्तवः
| तत् = सत्यम्,
तथा -
वाचक-ग्रन्थेषु = [ तथा, धर्म- रत्न
माला - SSदिषु च ]
एतद्-गता - [ जिन भवना-: T-SSदि
प्रतीत्य = निवारणम्,
अनुमोदना ऽऽ ऽपि = प्रतीत्यः
+ एतदेव समर्थयति :
सुव्वइ अ वयर - रिसिणा कारवणं पि अ अणुट्ठि अभिमस्स. । वायग- गंथेसु तहा एअ-गया देसणा चेव ॥ ११८ ॥
पञ्चा० ६ ४५ ॥
+ आह, :
"एवम् : = द्रव्य-स्तव - विधाने
"हिंसाऽपि = (खलु) [धर्माय = [[क्रियमाणी ]
:
एतस्य = द्रव्य-स्तवस्य,
44
श्रूयते च, "वज्र -ऽर्षिणा पूर्व-धरेण माहेसरी उ० कारवणमपि च = तत्वतः [करणमऽपि ] पूरिअं०] इत्या-ssदि वचनात् अनुष्ठितम्
देशनाऽपि
11
चैव दृश्यते [ श्रयते ] । "यस्तृणमयीमऽपि ० इत्याSSदि-वचनात् ।
द्रव्य-स्तव-गता ]
["जिन भवनम् ०" इत्या- ऽऽवि । ] ॥ ११८
आहे [ह, :-"ए ]वं "हिंसा विहु धम्माय ण दोस-यारिणी "त्ति ठियं । छिज्जइ सेह. " वामाहो.” ॥११९ ॥
एवं च - "वेय - विहिआ
ܙܕ
दोष-कारिणी ।" इति स्थितम् = न्यायतः,
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________________
गा० १२०-१२१- ]
( ६१ ) . [मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः तामऽन्तरेण द्रव्य स्तवा-5-भावात् । एवं च% [स्थिते सति
इह = विचारे वेद-विहिता-[याग-विधाने] सा= हिंसा
। इष्यते, स व्यामोहः-भवताम्, तुल्य-योग-क्षेमत्वात् ।' ॥ ११९ ॥ : "पीडा-गरी त्ति. “अह सा”. “तुल्लमिणं हंदि अहिगयाए वि.'। "ण य पीडाउ अ-धम्मोणियमा, विजेण वभिचारा"॥१२०॥ "पीडा-कारिणी।" इति
सा= वेद-विहिता-हिंसा ।" अथ एतदाऽऽशङ्कय, आह, :"तुल्यम्
अधि-कृतोयामपि = जिन भवना
ऽऽदि-हिंसायामऽपि । हंदि उपपत्य-अन्तरमाऽऽह, :
अ-धर्मः पीडातः
नियमात् = एका-ऽन्तेनैव, वैद्यन =
। व्यभिचारात्, हित-कृतस्तस्यौषधात्
__पोडोत्पत्तावऽप्यऽ-धर्माऽनुपपत्तेः।" ॥ १२० ॥ "अह, तेसिं परिणामे सुहं तु.” "तेसिं पि सुव्यइ एअं. । तजणणे विणधम्मो भणिओ पर-दारगा-ऽऽईणं.”॥१२१॥ अथ
परिणामे तेषाम् जिन-भवना-ऽऽदौ हिस्य- सुखमेव, मानानास
इत्य-ऽदोषः।"
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________________
गा० १२२-१२३ ]
(६२) [ मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः एतवाऽऽशङ्कयाऽऽह, :तेषामऽपि-यागे हिंस्यमानानाम् | भ्रूयते
एतद्-[सुखम् ] स्वर्ग-पाठात् ।” उपपस्य-ऽन्तरमाऽऽह, :'तज्-जननेऽपि-सुख-जननेऽपि भणितः .
पारवारिका-ऽऽदीनाम् । धमः
"तस्मात्, एतदऽपि व्यभिचारि ।" इति-गाथा-ऽर्थः ।। १२१ ॥ ..
"सिय.” “तत्थ सुहो भावो तं कुणोणस्स” "तुल्लमेअंपि."। इयरस्स वि सुहो च्चिय णेयो इयरं कुणंतस्स.” ॥१२२॥
"स्वाद ।" "तत्र जिन-भवना-ऽऽदौ
ताम् =हिंसाम शुभोभाव:
कुर्वतः, इति ।” एतदाऽऽशङ्कय आह, :"तुल्लम्
एतदपि ।" "कथम् ?" इति आह, :-- "इतरस्थाऽपि वेद-विहित-हिसा-कर्तु: ज्ञेयः - भावः
इतराम = वेद-विहितां हिंसाम् एव
कुर्वतः=याग-विधानेन" ॥१२२॥ "एगिंदिया-ऽऽई अह ते." "इयरे थोव. "त्ति.” ता किमेएणं?" "धम्म-ऽत्थं सव्वं चिय वयणा एसा नदुदृ'. “त्ति."॥२२३॥
"एकेन्द्रिया-ऽऽदयः | ते=जिन-भवना-ऽऽदौ (य) हिंस्यते ।" अथ एतदाऽऽशङ्कय, आह, :
शुभः
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________________
"तत् किम्
गा० १२४-१२५]
( ६३ ) [ मुनीनामऽपि द्रव्य-स्तवः "इतरे
| स्तोकाः वेदाद् यागे हिंस्यन्ते" ।। एतेन = तवाऽभिनिवेशेन ?
भेदा-ऽभिनिवेशेन ?]" "धर्मा-ऽर्थम् -
एव = सामान्येन सर्वम्
वचनात, एषा= हिंसा
दुष्टा।"
ति। इति-गाथा-ऽर्थः ॥१२३।। एवम
पूर्व-पक्षे प्रवृत्ते सति, घाह,.:"एयपि ण जुत्ति-खमं,ण वयण-मित्ता उ होइ एवमिअं। संसार-मोयगाण वि धम्मा-ऽ-दोस-प्पसंगाओ." ॥१२४॥ एतदपि
युक्ति -क्षमम् = यदुक्तं परेण,
"कुतः ?" इति, आह, :
एवम
पचन मात्रात् = अनुपपत्तिकात् एतत् = सर्वम् [मेव]" भवति "कुतः ?" इति, आह, :संसार-मोचकानांमऽपि - वचना- | अ-दोष-प्रसङ्गात् = अ-दुष्टत्त्वा-ss . द्धिसा-कारिणाम् (अपि) __ पत्तेः।" इत्य-ऽर्थः। धर्मस्य = "दुःखिनो हन्तव्याः।"
इत्यस्य
[धर्मा-S-दोष-प्रसंगात, धर्म-प्रसङ्गात्, अ-दोष-प्रसङ्गाच्च ।] ॥ १२४ ॥ "सिय, "तंण सम्म-वयणं" इयरं सम्म-वयणं." ति किं माणं?" "अहलोम चिय
1 (5)पाठा, विगाणाय."॥१२५
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________________
गा० १२६ ]
(६४)
[ मुनीनामऽपि द्रव्य स्तवः
NA
+ "स्यात, "तत् = संसार मोचक-वचनम्
सम्यक् = वचनम् ।” इत्वाऽऽशङ्कय, आह, :"इतर = वैदिकम्
इति किं मानम् ?" सम्यग् वचनम्" "अथ,
। लोक एव = मानम् ।" इत्या-ऽऽशङ्कय, आह, :
। एतत् तथा, [न, तहाऽ-पाठा] = लोकस्य प्रमाण तयाऽ-पाठात्;
__अन्यथा, प्रमाणस्य षट्-संख्या विरोधात् । तथा, अ-विगानाच्च = न हि "वेद-वचनं प्रमाणम् ।" इत्येकवाक्यता
लोकानाम् , इति (?) ॥ १२५ ॥
''अह पाढोऽभिमओ चिय, विगाणमऽपि एत्थ थोवगाणं उ."। "एत्थं पि ण प्पमाणं, सव्वेसिं अ-दसणाओ उ." ॥१२६॥ अथ
एव = लोकस्य पाठः
प्रमाण-मध्ये, षण्णामुपलक्षणत्वात् अभिमतः "विगानमऽपि =
स्तोकानामेव = लोकानाम् ।" अत्र = वेदे-वचना--प्रामाण्ये एतदाऽऽशङ्कय, आह, :-- अनाऽपि-कल्पनायाम् [एवं कल्पनयाम्] सर्वेषाम् = लोकानाम् ,
अ-दर्शनादेव "अल्पत्व-बहुत्वे निश्चयाप्रमाणम्
s-भावाद" इत्यऽर्थः ॥ १२६ ॥
न
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________________
तथैव
यथा
• "नैवम् ,
गा० १२७-१२८-१२९ ] (६५) न बहुकानां प्रामाण्य मेव किं तेसिं दंसणेणं अप्प-बहुत्तं जहित्थ, तह चेव । सव्वत्थ समवसेयं णेवं वभिचार-भावाओ. ॥१२॥ * "किम्
| सर्वेषाम् = लोकानाम् तेषाम्
| दर्शनेन ? अल्प-बहुत्वम्
सर्वत्र क्षेत्रा-ऽन्तरेष्वपि इह = मध्य-देशाऽऽदौ वेद-वचन- समवसेयम = लोकत्त्वा-ऽऽदिप्रमाणं प्रति,
हेतुभ्यः, इति ।" + अत्राऽऽह, :--
व्यभिचार भावात्-कारणात् ॥१२७ एतदेवाऽऽह, :-- अग्गा-5ऽहारे बहुगा दिसति दिआ, तहाण सुद्द त्ति.। णय तहंसणओ चिय सव्वत्थ इमं हवइ एवं. ॥१२८॥ अग्रा-ऽऽहारे बहवः दृश्यन्ते
शद्राः ब्राह्मणाः,
इति ब्राह्मणवद् बहवो दृश्यन्ते,
एतद् तद्-दर्शनादेव = अग्रा-ऽऽहारे भवति बहु-द्वि-ज-दर्शनादेव
एव = द्वि-ज-बहुत्वम् , इति । सर्वत्र = भिल्ल पल्ल्या-ऽऽदावऽपि
॥गाथा-ऽर्थः ॥१२८॥ * उपपत्य-ऽन्तरमाह, :"णय "बहुगाणऽपि इत्थं अ-विगाणंसोहणं."ति नियमोऽयं."। "ण य “णो थोवाणं पि हु,” “मूढेयर-भाव-जीएणं". ४१२९॥
तथा
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________________
"न
च
गा० १३० -१३१ ] . ( ६६ )
[ बहुनां प्रामाण्ये दोषः
अ-विगानम् = एक-वाक्यता रूपम्, 'बहूनामऽपि
शोभनम् ।" अत्र: लोके
इति नियमोऽयम्।
(इति नियमः),["कुतः ?' इति, आह.] "न स्तोकानामऽपि = न शोभनमेव ।" मूढेतर-भाव-योगेन ।" "मूढानां बहूनामऽपि न शोभनम्,
___ अ-मूढस्य त्वेकस्यैव," इति-भावः [बहूनामऽपि मूढ-व्यापार-भावात्, स्तोकानामऽपि चाऽ-भावात् ।] ॥१२९॥
"नच
कश्चित्
"यत्,
"णय 'रागा-ऽऽइ-विरहिओकोऽविमाया विसेस-कारि” त्ति"। “जसव्वे विअ पुरिसा रागा-ऽऽइ-जुआ उ.” पर-पक्खे.॥१३०॥ "न च
विशेष कारी-विशेष-कृत् !" ''रागा-ऽऽदि विरहितः सर्वज्ञः इति =
[य एवं वेद, :-"वैदिकमेव प्रमा मताप्रमाता
णम्, नेतरद् । इति ]" ["कुतः ?" इति, आह, :-]
पुरुषाः सर्वेऽपि
रागा-5ऽदि-युता एव ।" पर-पक्षे - मीमांसकस्य
___ सर्व ज्ञा-ऽनऽभ्युपगन्तृत्त्वात् ।। १३० ।। : दोषा-ऽन्तरमाह, :"एवं च वयण-मित्ता धम्मा-5-दोसाइ मिच्छगाणं पि। घायंताणं दि-अ-वरं पुरओ णणु चंडिगा-ऽऽईणं. ॥१३१॥ एवं च=प्रमाण-विशेषा-5-परिज्ञाने | धर्मा-5-दोषौ [ते]-प्राप्नुतः
म्लेच्छा-ऽऽदीनामऽपि भिल्लावचन-मात्रात सकाशात् । ऽऽदीनामऽपि ।
- सति,
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________________
गा० १३२-१३३ ]
["क्व ?" इति, आह, :
घातयताम्
द्वि-ज-वरम् = ब्राह्मण- मुख्यम्
न वचनम्
"कुतः ?" इति, आह,
fuser-ssदीनाम्-देवता - विशेषा
पुरतः
णाम् ।। १३१॥
[ एवं च चण्डिका-ssदीनां देवता विशेषाणां पुरतो: द्वि-ज-वरं घातयतां म्लेच्छकाssatarasfu ननु वचन - मात्रात् धर्मा-s- दोषौ भवेताम्" इत्यन्वयः । सं० ) "न य तेसिं पिण वयणं एत्थ निमित्तं” ति, जं ण सव्वे उ. | तं तह घायंति सया, अरसुअ- तच्चोयणा-वक्का”. ॥१३२॥
↑ "न च तेषामऽपि = म्लेच्छानाम्
अत्र = द्वि-ज-घाते निमित्तम् " इति । किन्तु वचनमेव । "
"यत्,
न
सर्व एव =म्लेच्छाः
तम् द्वि-ज-वरम्
=
तथा
† "अथ,
--:
"तद् =
- म्लेच्छ-प्रवर्तकं वचनम्
( ६७ )
ननु
“अह "तं ण एत्थ रूढ़ं” “एअं पि ण तत्थ " तुल्लमेवेयं." । "अह "तं थोवमणु चियं” “इमं पि एयारिसं तेसिं. ॥१३३॥
""
इत्या-ऽऽशङ्कय, आह, :
[ म्लेच्छकानां किं न प्रमाणम् १
घातयन्ति
(सदा) [तदा ( ) अश्रुत- तच्-चोदना- वाक्या:= [द्विजघात-चोदना-वाक्यात्] अ-श्रुतं तच् चोदना-वाक्यं द्विज-घाति-विधिवाक्यं यैः, ते, तथा" ॥१३२॥
न
अत्र = लोके
रूटम् ? ।"
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________________
गा० १३४ ]
"एतदपि वैदिकम् (मsपि )
" तुल्यमेव
अथ,
1
" तत् =
[ म्लेच्छ-प्रवर्तकं वचनम्
इत्या - SSशङ्कय, आह, :" इदम् = वैदिक-चोदना- वाक्यम् अपि
( ६८ )
इत्या-ऽऽशङ्कया आह,
[ म्लेच्छ-वाक्य-वदे वाक्य चर्चा
S
तत्र - भिल्ल-मते [ म्लेच्छ-लोके] रूढम् ।" इति ।
+ "न
तवऽपि म्लेच्छ-प्रवर्तकम्
| इदम् = अन्यतरा-ऽ- रूढत्वात्
स्तोकम, अनुचितम् अ-संस्कृतम् । "
[१३४- १३५ - गाथयोः सम्यग् नाऽवबुध्यते ऽवचूरिका । यथैव मुद्रिते तथैव कलकत्ता-तपागच्छीय पुस्तका - Ssलय- स्थ- हस्त लिखित पुस्तके पाठः प्रायः । न गाथयोरवचूरिः, किन्तु द्वयोरवतरणिका-रूपेण पूर्वमेव कथञ्चित् पाठः | तथापि छायां कृत्वा, अर्थ संगति-करणे प्रयासः कृत उपरिष्टात् । पञ्च वस्तुमहा-ग्रन्थे, स्तव - परिज्ञा - ग्रन्थस्थ तयोर्गाथयोर्मूले वचुरिके चात्रैव कोष्टकाऽन्तरे प्रदर्शिते, अन - ऽन्य-गतिकत्वात् । संपादकः ]
एता दृशम् = [ ईदृशमेव स्तोका ssदिधर्मकम ] तेषाम् = [ म्लेच्छानाम्, आशय भेदात् । ] '
।। १३३ ।।
[" अह तं वेय - S' गं खलु” "न तं पि एमेव" "इत्थ विण माणं ।” 'अह तथाऽ-सवणमिणं" सिएअमुच्छिन्न- साहं तु . ” ॥१३४॥
+ अथ
तत्
(ण)
יין
वेदाऽङ्गम्
खलु द्विज प्रवर्तकम् ।"
=
एवमेव वेदे ।" इति
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________________
गा० १३५ ]
( ६९ )
[ म्लेच्छ वाक्य-वदे-वाक्य-चर्चा
* "अनाऽपि
मानम् ।"
एतदू,
:"अथ
अ-श्रवणम्तत्र = वेदे
इदम्मानम् ।
न हि तद् वेदे श्रूयते" इत्या.ऽऽशङ्कय, आह, :स्याद्
उत्सन्न-शाखं तु-उत्सन्न-शाखमेतदपि
संभाव्यते।" ___ इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १३४ ।। “ण य तव्वयणाओ च्चिय तदुभय-भावो ति, तुल्ल-भणिईओ."॥ अण्णा वि कप्पणेवं साहम्म-विहम्मओ दुट्टा. ॥१३५॥ "नच
तदुभय-भावः = धर्मा-s-दोष-भावः, तद्-वचनात-वेद-वचनादेव
इति । "कुतः ?” इत्याऽऽह, :तुल्य-भणितेः = म्लेच्छ-वचनादेव।" "एतदुभयम् = इत्यऽपि वक्तुं शक्यात्वात्," इत्य-ऽर्थः ।
भिल्ल-परिग्रहीतत्वा-ऽऽदि प्रकारेण, कल्पना = ब्राह्मण-परिग्रहीतत्वा- साधर्म्य वैधय॑तः = कारणात् ऽऽदि रूपा,
दुष्टा। एवम् = उक्तवत्
इति गाथाऽर्थः ॥ १३५ ॥] "म्लेच्छ-प्रवर्तकमेव वदेऽ स्त, न द्वि-ज प्रवर्तकम्, श्रवण-मात्रस्या:तन्त्रत्त्वात् । अ-श्रवणस्योच्छिन्न-शाखत्वेनोपपत्तेः" इति तैरपि वक्तुं शक्यस्वात् इति । (१३४)
अन्याऽपि कल्पना = ब्राह्मण-परिगृहीतत्त्वादि-रूपा भिल्ल-परिगृहीतत्वा-ऽऽवि, तुल्यत्वेन दुष्टा, (१३५) इत्याऽऽह, :
अन्याऽपि
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गा० १३६-१३७ ] . (७०)
[ विद्वदिभविचार्यम "अह तं ण वेइ खलु.” “न तं पि एमेव, इत्थ वि ण माणं।" "अह तत्थाऽ-सवणमिदं हविज्ज, उच्छिण्ण-साहत्ता. ॥ १३४ ॥ ण य तविवज्जणाओ उचिय-भावोऽत्थ, तुल्ल-भणिईओ। अण्णा वि कप्पणाइ साहम्म-विहम्मओ दुहा. ।। १३५ ।। ("अथ-तद्-न वैदिकं खलु" "न तदऽपि एवमेव, अत्राऽपि न मानम्", । "अथ-तत्रा-श्रवणमिदं भवेत्, उच्छिन्न शाखत्त्वात् ।। १३४ ॥ न च तद्-विवर्जनात् उचित.भावोऽत्र, तुल्य भणितितः. । अन्याऽपि कल्पना साधर्म्य वैधर्म्य तोदुष्टाः ॥ १३५ ॥ ) (?) . * यस्मादेवम् , "तम्हा ण वयणमित्तं सव्वत्थ ऽ-विसेसओ बुह-जणेणं। एत्थ पवित्ति-णिमित्तं. एअं दढव्वयं होइ.” ॥१३६॥ तस्मात्
__ अत्र-लोके
प्रवृत्ति निमितम = [हिता-ऽऽदौ] वचन-मात्रम् = उपपत्ति शून्यम् [एअं-एतद्] सर्वत्र
द्रष्टव्यम् अ-विशेषतः कारणान
भवति। बुध-जनेन = [विद्वज्जनेन] । ["न"इति वर्तते (?) ] ॥ १३६ ।। किं पुण विसिट्टगं चिय, जं दिद्विवाहि णो खलु विरुद्धं, । तह संभवं [त-रूवं] स-रूवं विआरिऊ सुद्ध-बुद्धिए ॥१३७॥ * किं पुनर्
विशिष्टमेव वचनं प्रवृत्ति -निमित्त
____ मिह द्रष्टव्यम्। "कि भूतम् ?" इत्याऽऽह, :यद
विरुद्धम् = "तृतीय-स्थान-संक्रान्तम्" दृष्टेष्टाभ्याम्
इत्य-ऽर्थः। न खलु
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गा० १३८-१३९
(७१) . [संभवत्रूप-स्व-रूपम् तथा,
विचार्य संभवत-स्व-रूपम् = यद् "न पुनः,- | शुद्ध-बुद्धया = मध्य-स्थया। अत्य-ऽन्ता-ऽ-संभवि" इति ।
इति-गाथा-ऽर्थः ।।१३७॥
"यथा,
जह,इह, दव्य-थयाओभावा-ऽऽवय-कप्प-गुण-जुआउ[सेओ]। जयणाए पिडुवगारो जिण-भवण-कारणाऽऽई उ[द् ति]न विरुद्धं.
॥१३८ ॥
इह = प्रवचने, द्रव्य-स्तवात्
"कि भूतान् ?” इत्याऽऽह, भावाऽऽपत्कल्प-गुण-युक्तात् : ! श्रेयस [ ज्यायत् ]
नाऽन्यथा रूपात्, यतनया = यत्नेन
जिन-भवन कारणा-ऽऽदेः = द्रव्यपोडोपकारः -पीडया उपकारः,
स्तवात् ।" बहु-गुण-भावात् . "इति
| विरुद्धम् = एतत्"।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १२८ ॥ + एतदेव स्पष्टयति, :सइ सव्वत्थाऽ-भावे जिणाणं, भावा-ऽऽवयाए जीवाणं,। तेसिं तित्थरण-गुणं णियमेण इहं तदाऽऽययणं. ॥१३९॥ + सदा
अ-भावे सर्वत्र = क्षेत्रे
जिनानाम् , भावा-ऽऽपदि = [सत्याम्] तेषाम् = [ जीवानाम् ]
इह = लोके निस्तर-गुणम् =
तदा-ऽऽयतनम् - जिना-ऽऽयतनम् । नियमेन = तावद्
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १३९ ॥
जीवानाम्,
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एव
गा० १४०-१४१-१४२] (७२ ) [जिन-भवना-ऽऽदि-गुण-साधनता तब्बिंबस्स पइट्ठा, साहु-णिवासो अ, देसणा-ऽऽइ अ, । इक्कक भावा-ऽऽवय-नित्थरण-गुणं तु भव्याणं. ॥१४॥
तबिंबस्स = जिन-बिम्बस्य पइ हा = प्रतिष्ठा, + तत्र, तथा-विध
साहु निवासश्च - विभागतः । * देशना-ऽऽदयश्च
| [आदि-शब्दात् ध्याना-ऽऽदि-परिग्रहः] + एकैकम् = तद्-बिम्ब-प्रतिष्ठा-ऽऽदि अत्र
भव्यानाम् = प्राणिनाम् ।१४० ।। भावा-ऽऽपद-निस्तरण-गुणम् पीडा-गरी वि एवं एत्थ पुढवा-ऽऽइ-हिंस-जुत्ताओ. । अण्णेसिं गुण-साहण-जोगाओ दीसइ इहं तु [हेव] ॥१४१॥ * पीडा-कारिण्यऽपि
पृथ्ष्या.ऽऽदि हिंसा एवम्
युक्ता अत्र = जिन भवने
एव, अन्येषाम् = प्राणिनाम
गुण-साधन योगात् ।
दृश्यते
एतच्च = गुण-साधनम्
एव,- । इति-गाथा-ऽर्थः ।।१४१॥
आरंभवओय इमा आरंभ-तर-निवित्तिका पायं. । एवं वि हु अ-णियाणा इछा, एसा वि मुक्ख-फला. ॥१४२॥ + आरम्भवतश्च
आरम्भा-ऽन्तर-निवृत्ति-दा इमा-विहिता (हिंसा)
प्रायः विधिना कारणात् । एवमऽपि च
परस्यअ-निदाना विहिता,
इष्टा च ।
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गा० १४३-१४४ ]
एषाऽपि पीडा
( ७३ ) [जिन-भवना-ऽऽदाव-s-हिंसा
| मोक्ष-फला="न अभ्युक्यायैव ।" इति-गाथा-5: ॥ १४२ ॥
ता एयम्मि[एईए] अ-हम्मो णो, इह जुत्तं पि विज-णायमिणं.। हंदि गुणहंऽतर-भावा. इहरा, विजस्स वि अ-धम्मो.॥१४३॥ * तत् = तस्मात्,
अ-धर्मः अस्याम् = पीडायाम्
न="गुण-भावेन" इति (-हे तोः) ।
वैद्य ज्ञातम् युक्तमऽपि
इदम् प्रागुक्तम् ।
गुणा-ऽन्तर-भावात् = दर्शितं चैतद् । + इतरथा = अ-विधिना,
वैद्यस्याऽपि गुणा-ऽन्तरा-5-भावे, अ-धर्मः = एव, पीडायां स्यात्, इति ॥
१४३॥
णय वेय-गया चेवं सम्मं, आवय गुण-ऽन्निया एसा,। णयदिद्व-गुणा, तज्जुय-तय-तर-णिव्यित्ति-आ नेव.॥१४४॥ न च .
एवम् = जिन-भवना ऽऽदि हितावत् वेद-गता[ऽपि]
सम्यग, * आपद-गुणा ऽन्विता । एषा = हिंसा, तामऽन्तरेणाऽपि जीवानां भावा-ऽऽपदोऽभावात् ।
दृष्ट गुणा साधु-निवासा-ऽऽदिवत्,
तथा-ऽनुपलब्धेः। * तद्-युक्त-तद-ऽन्तर-निवृत्ति-दा- नैव = न हि । हिंसा-युक्त-क्रिया-ऽन्तर-निवृत्ति-दा ।
"प्राक् तद्-वध-प्रवृत्ता याज्ञिकाः" ॥ १४४ ॥
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गा० १४५-१४६-१४७ ]
( ७४ )
[ हिंसायाम-धर्मः
'णय फलुद्देस - पवित्तिओ इयं मोक्ख - साइगा वि" त्ति । मोक्ख-फलं च सु-वयणं, सेसं अत्था - SSइ-वयणं समं ॥ १४५ ॥
•
मोक्ष-साधिका
अपि "
इति ।
+ "न च
फलोद्देश प्रवृत्तितः इयम् = हिंसा
" श्वेतं वायव्यम जमाSSलभेत् भूति कामः इत्या-ऽऽदिश्रुतेः ।
$ मोक्ष- फलं च
† शेषम् =
starssगम-विरोधमाऽऽह, :
सुवचनम् = "स्वा-SSगमे" इत्य-ऽर्थः । अर्था-ssदि-वचन- समम् = "फल - भावे sपि अर्थ - शास्त्राऽऽदि-तुल्यम् ।
इति गाथा - Sर्थः ॥ १४५ ।।
माम्
एतस्मात् = हिंसा कृताद्
"अग्गी मा एआओ एणाओ मुंच उ. त्तिय सुई वि. । तप्पाव-फला "अंधे तमसि " इच्चा - SSइ य सई वि. ॥१४६॥
1 "अग्निः
एनसः = पापात्
मुञ्चतु = छान्दसत्वात्, मोचयतु."
इति श्रुतिरपि = विद्यते, "वेद वागू " इत्यर्थः ।
1 तत्-पाप-फलात् तदुक्त-हिंसा-फलात् स्मृतिरऽपि विद्यते । "अन्धे तमसि ०" इत्या-ऽऽदिश्च
"अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ "
इति वचनात् । इति -गाथा - दर्थ ॥ १४६ ॥ अत्थि जओ, ण य 'एसा अण्ण-ऽत्था" [ तीरइ] सक्कए इहभणिउ . अ- विणिच्छया. ण येवं इह सुव्वए पाव-वयणं तु ॥ १४७॥
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गा० १४८-१४९ }
( ७५ ) [ जिन-भवना-ऽऽदावऽ-हिंसा "अस्ति
। यतः श्रुतिः स्मृतिश्च ।" न च
शक्यते "एषा-श्रुतिः स्मृतिश्च अन्या ऽर्था = अ-विधि-दोष-निष्पन्न- | वक्तुम् ।
पापा.ऽर्था ।" "कुतः ?" इत्याऽऽह, :अ-विनिश्चयात = "प्रमाणा-5-भावात्" इत्थ-ऽर्थः । न च
श्रूयते एवम एवम्
पोप-वचनम् प्रवचने · इह-जिन-नवना-ऽऽदौ
(तु) ।। इति गाथा-ऽर्थः ।।१४७।
न
परिणामे य [म-सु] सुहं णो तेसिं इच्छिज्जइ, णय सुहं पि. । मंदा-ऽ-वत्थ-कय-समं. ता तमुवण्णास-मित्तं तु. ॥१४॥ * परिणामे च .
तेषाम् जिन-भवनाऽऽदौ हिस्यसुखम्
मानानाम्
इष्यतेतन्निमित्तं जैनैः। नच
मन्दा-5-पथ्य-कृत-समम् = विपाकसुखम्
दारुणमिष्यते। + यस्मादेवम्, तस्मात्,
तदुपन्यास-मात्रमेव [यदुक्तम्
"अह तेसिं परिणाम० [१२१]" इत्या-ऽऽदिना] ॥ १४८ ॥ इय दिवट्ठ-विरुद्धं जं वयणं, एरिसा पवत्तस्स, । मिच्छा-ऽऽइ-भाव-तुल्ली सुह-भावो हंदि विण्णेयो. ॥१४९॥ * "इय" एवम् दृष्टेष्ट-विरुद्धम्
वचनम्,
यद्
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ग० १५० - १५१ ]
ईदृशात्
प्रवृत्तस्य = सतः
t " एकेन्द्रिया -ऽऽदि-भेदोऽपि
अ = व्यति करे
इति गाथा - Sर्थः ॥ १४९ ॥
↑ "एगिदिया sss अह ते० [१२३]" इत्या ऽऽदि यदुक्लम्, तत्परिहाराSर्थमाह :
इति
इष्टः तवाऽपि
“एगिंदिया - ऽऽइ-भेयो ऽवित्थ णणु पाव - भेय हे "त्ति । इट्टो तऽवि स-मए तह सुद्द दि -आ- SSइ भेएणं ॥ १५० ॥
ननु
( ७६ )
शूद्राणाम् सहस्रेणाऽपि
ส
ब्रह्म-हत्या
तथा
म्लेच्छा - SSदि-भाव तुल्यः
शुभ-भावः
हंदि विज्ञेयः = मोहात् ।
अल्प-बहुत्वम्
[ पात्र-भेदे हिंसा- तार-तम्यम्
पाप-भेद-हेतुः "
स्व-मते
तथा
= तेन प्रकारेण
+ एतदेवाऽऽह, :
"सुद्दाण सहस्सेणऽविण बंभ -हच्चेह घाइएणं" ति. । जह, तह अप्प - बहुत्तं, एत्थ वि गुण-दोस - चिंताए ॥१५१॥
शूद्र-द्वि- जा ऽऽदि-भेदेन ।
C
इति - गाथा - Sर्थः ॥ १५० ॥
इह
घातितेन"
इति
यथा = भवताम्,
अनाsपि -
गुण-दोष - चिन्तायाम् ज्ञेयम
इति - गाथा - Sर्थः ॥ १५१ ॥
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________________
मयमा
गा० १५२-१५३ ] (७७ ) [यतनयाऽल्पा हिंसा नाऽपि अप्पा य होइ एसा एत्थं जयणाए वट्टमाणस्स. । जयणा उ धम्म-सारो विण्णेया सव्व-कज्जेसु, ॥ १५२ ॥ * अल्पाच
अत्र भवति
यतनया एषा हिंसा
वर्तमानस्य जिन-भवना-ऽऽदौ । यतना च
विज्ञेया धर्म-सारः [हृदयम्
सर्व-कार्येषु - ग्लाना-ऽऽदिषु । . "यतना-भाव-शुद्धिभ्यां
हेत्व-ऽनुबन्ध-हिंसा-5-भावे . स्व-रूपतः पर्यवसानमेवाऽल्पत्वम् ।
न चाऽल्पोऽपि ततो बन्धः। • "इहा एसा वि मोक्ख-फला।" [१४२] इति
प्रागेवोक्तत्वात् । "अणुमित्तोऽपि ण कस्सऽइ बन्धो
___ वर-वत्थु-पचया भणिओ." त्ति-सैद्धान्तिकाः ॥ १५२॥ जयणेह धम्म-जणणी. जयणो धम्मस्स पालणी चेव. । तब्बुड्ढि-करी जयणा. एग-ऽत सुहा-ऽऽवहा जयणा.॥१५३
पश्चा० ९-३० धर्म-जननी = ततः प्रसूतेः।
यतना
यतना
| धर्मस्य पालना चैव-प्रसूत-रक्षणात् । तद्-वृद्धि-कारिणी
। यतना = इत्थं तद्-वृद्धः। एका-ऽन्त-सुखा-ऽऽवहा । यतना - सर्वतोभद्रत्वात् ।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १५३॥
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________________
गा० १५४-१५५-१५६ ]
(061
[ यतना महत्त्वम्
जयणाए वट्टमाणो जीवो समत्त - णाण चरणाणं । सा-बोहा - SS सेवणं भावेणाऽऽराहगो भणिओ. ॥ १५४ ॥
पञ्चा० ।। ७-३९ ॥
यतनया वर्तमानो जीवः परमार्थेन-
सम्यक्त्व-ज्ञान-चरणानाम् = त्रयाणामपि
तेन
निवृत्ति प्रधाना= तत्त्वतः
-
श्रद्धा बोधा SSसेवन भावेन हेतुना आराधकः
भणितः = तथा प्रवृत्तेः ।
-
1
एसाय होइ णियमा तय ऽहिग-दोस - विणिवारणी जेण, । तेण णिवित्ति- पहाणा विष्णेया बुद्धिमत्तेणं ॥ १५५ ॥
पञ्चा० ७-३२ ॥
एषा च भवति नियमात् = यतना
तदधिक- दोष-निवारिणी येन = अनुबन्धेन,
सा=यतना इह = जिन भवना - ssदौ
परिणतजल-दल- विशुद्धि - रूपा
अर्थ-व्ययः
यद्यपि -
महान् = भवति तत्र,
इति - गाथा ऽर्थः ॥ १५४
.
साइह परिणय-जल-दल- विसुद्ध रूवा उ होई विष्णेया. । अत्थ-व्वओ महंतो, सव्वो सो धम्म - हेउ" ति. ॥१५६॥
पञ्चा० ७-३३ ।।
विज्ञेया
बुद्धिमता = सत्त्वेन ॥ १५५ ॥
एव
भवति
विज्ञेया = प्रासुक ग्रहणेन ।
-
इति- गाभा-ऽर्थः ।। १५६ ॥
तथाऽपि -
सर्वोऽसौ
धर्म - हेतुः = स्थान - नियोगात् ।
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________________
गा० १५७-१५८-१५९ १६०-१६१] ( ७९ ).
+ प्रसङ्गमाऽऽह, :
एत्तो च्चिय णिद्दोस सिप्पा -ऽऽइ-विहाणमो जिणिंदस्स । लेसेण स - दोसं पिहु बहु दोस- णिवारणत्तेणं ॥ १५७ ॥ वर - बाहि-लाभओ सो सव्युत्तम - पुण्ण-संजुओ भयवं, । एग-त-पर-हिअ-रओ, विसुद्ध - जोगो, महा- सत्तो ॥ १५८॥ जं बहु-गुणं पयाणं, तं णाऊणं, तहेव देसेइ । तं रक्तस्स तओ ओचिअं कह भवे दोसो ? ॥ १५९ ॥ तत्थ पहाणो अंसो बहु- दोस-निवारणेह जग- गुरुणी. | नागा - ss३ - रक्खणे जह कढण - दोसे वि सुह-जोगो. ॥१६०॥ एवं णिवित्ति पहाणा विष्णेया तत्तओ अहिंसेयं. । जयणावओ उ विहिणा पूआ - इ - गया वि एमेव ॥ १६१॥
पञ्चा० ७-३५-३६-३७-३८-४२ ।।
[ आद्य - जिनोपकारः
आसां व्याख्या:, :
अत एव = यतना-गुणात्
जिनेन्द्रस्य
लेशेन
निर्दोषम् शिल्पा-ऽऽदि-विधानम् [ अपि ] बहु-दोष निवारणत्वेन = अनुबन्धतः । इति-गाथा - ऽर्थः १५७ ॥
स- दोषमपि = सत्
=
एतदेवाऽऽह :
वर- वोधि-लाभतः = सकाशात् सः [असौ] = जिनेन्द्रः एकान्त-पर-हित- रतः = : तत्-स्व-भावत्वात्. विशुद्ध - जोग:,
महा - सत्त्वः = इति - गाथा - ऽर्थः ॥ १५८ ।।
= आद्यस्य
सर्वोत्तम - पुण्य- संयुक्तः, -
=
भगवान्,
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________________
गा० १६२- ]
यदू बहु-गुणम्
तदू
ਰਯੈਕ
[तान
रक्षतः ]
कथं भवेत्
एतदेव स्पष्टयति, :
तत्र = शिल्पा-ऽऽदि-विधाने
प्रधान:
अंशः
नागा - SSदि-रक्षणे यथा= जीवित-रक्षणेन
(८०)
यतनावतस्तु विधिना = क्रियमाणा
l
ततः
यथोचितम् =अनुबन्धतः,
दोषः = ?,
इति - गाथा - Sः ॥ १५९ ॥
+ एवम्
निवृत्ति प्रधाना अनुबन्धमधिकृत्य विज्ञेया
इति - गाथा - Sर्थः
प्रजानाम् = प्राणिनाम् ।
ज्ञात्वा,
देशयते = भगवाँस्तावत्,
[ निवृत्ति प्रधाना हिंसा
नैव ।
बहु-दोष निवारणा इह = [जगति ] जगद्-गुरोः ।
आकर्षण-दोषेऽपि कण्टका -ऽऽदेः | शुभ योग := भवति ।
॥ १६० ॥
तत्त्वतः
अहिंसा
इयम - जिन भवनाऽऽदि-हिंसा |
इति - गाथा - Sर्थः ।। १६१ ॥
पूजा - ssदिगताऽपि एवमेव = तत्त्वतोs - हिंसा ।
प्रसङ्गमाऽऽह, :
सिय, "पूआओवगारो ण होइ कोऽवि पूअणिज्जाणं, । कय किंच्चत्तणओ तह जायइ आसायणा चेवं ॥ १६२॥
स्यात् ।
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गा० १६३-१६४ ]
( ८१ )
.
[पूज्य-पूजा-फल-चर्चा
* "पूजया
कश्चिद् उपकारः तुष्टया-ऽऽदि-रूपः न भवति
पूज्यानाम् तीर्थ-कृताम्, कृत-कृत्यत्वात् इति युक्तिः । तथा, जायते
एवम् अ-कृत-कृत्यत्वा-ऽऽपादनेन । इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १६२ ॥
आशातनाच
तअ-हिग-णिवत्तिए गुण-तरं णऽथि एत्थ णियमेणं. । इय एयगया हिंसा स-दोसमो होइ णायव्वा.” ॥ १६३ ॥ त,
| अस्ति अधिक-[धिकृत] निवृत्या हेतु-भूतया गुणा उत्तरम्
नियमेन = पूजा-ऽऽदौ ।
अत्र
इय (इति)
स-दोषैव एतद्गता-पूजा-ऽऽदि-गता भवति हिंसा
ज्ञातव्या - कस्यचिदऽनुपकारात्"
इति-गाथा ऽर्थः ॥ १६३ ॥ * अत्रोत्तरम्, :
"उवगारा-5-भावे वि हु चिंता-मणि-जलण-चंदणा-5ऽईणं। विहि-सेवगस्स जायइ तेहिंतो सो. पसिद्धमिणम्". ॥१६४॥ * उपकारा-5-भावेऽपि [विषया-ऽऽदेः] जायते चिन्ता-मणि-ज्वलन चन्दना-5 तेभ्यः एव दिभ्यः सकाशात
सा-उपकारः, विधि-सेवकस्यपुंसः
प्रसिद्ध मेतदू लोके,” इति ॥१६४॥
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गा० १६५-१६६-१६७] (८२) [पूज्य-पूजा-फल-चर्चा इय कय-किच्चेहिंतो तब्भावे णऽत्थि कोइ वि विरोहो.। एत्तोच्चिय ते पूजा. का खलु आसायणा तीए ?॥१६५॥ एवम्
नास्ति कृत-कृत्येभ्यः = पूज्येभ्यः सकाशात् कश्चिदऽपि तद्-भावे उपकार-भावे विरोधः, इति । अत एव = कृत-कृत्यत्वाद् गुणाद् पूज्या एव । ते: भगवन्तः [एवं च-]
आशातना का
तया पूजया ?।
खलु
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १६५ ॥ अहिगरण-णिवित्ती वि इह, भावेणऽहिगरणा णिवित्तीओ.। तहसण-सुह-जोगा गुण-तरं तीए परिसुद्ध. ॥१६६॥ * अधिकरण-निवृत्तिरऽपि । अत्र = पूजा-ऽऽदौ, भावेन
। अधिकरणानिवृत्तेः कारणात् । तद्-दर्शने शुभ-योगात् । तस्याम् = पूजायाम् । गुणा-ऽन्तरम्
| (परिशुद्धम्) । इति-गाथा-ऽर्थः ॥१६६ ता, एय-गयो चेवं (व)हिंसा “गुण-कारिणी” त्ति विण्णेया.। तह, भणिय-णायओं चिय एसा अप्पेह जयणाए. ॥१६७॥ तत् = तस्मात्,
| 'गुण-कारिणी" "एतद्-गताऽपि = पूजा गताऽपि इति
विज्ञेया। हिंसा
एबम् (व)
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________________
गा० १६८-१६९ ]
( ८३ )
[ वेद-वचनं न संभवत्स्व-रूपम्
तथा, भणित न्यायतश्च एव-अधिक-निवृत्त्या
एषा = हिंसा अल्पा इह यतनया। इति-माथा-ऽर्थः ॥१६७
तह, संभवंत रूवं सव्वं सव्व-ण्णु-वयणओ एअं । तं णिच्छिक] हिआ.ऽऽगम-पउत्त-गुरु-संपयाएहिं.॥१६८
तथा, संभवत्-स्व-रूपम्
सर्व-ज्ञ वचनतः सर्वम
एतत् । तत्
[कथित्ता-] हिता-ऽऽगम प्रयुक्त-गुरु निश्चितम
संप्रदायेभ्यः [तं णिच्छिअं [क] हिआ-ऽऽगम- पउत्त-गुरु-संपयाएहिं. एतद् यदुक्तम् ,
सर्व-ज्ञा-ऽवगत
कथिता-ऽऽगम-प्रयुक्ता--निवारितनिश्चित्य
गुरु-संप्रदायेभ्यः = सकाशात]॥१६८॥
तद
"वेय-वयणं तु णेवं, अ-पोरुसेयं तु तं मयं जेणं. । इअमञ्च-त-विरुद्ध "वयणंच" "अ-पोरिसियं च ॥१६९॥ * वेद-वचनं तु न
एवम् = संभवत्-स्व-रूपम् , अ-पौरुषेयमेव
मतम्,तत्
। अत्य-ऽन्तःविरुद्धम् वर्तते, यदुत, :
"अ-पौरुषेयं च"। वचनं च"
.. इति-गाथा-ऽर्थः ॥१६९॥
येन ।
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गा० १७०-१७१-१७२ ] (८४ ) [वेद-वचनं न संभवत्स्व-रूपम् * एतद्-भावनायायाऽऽह, :जं, “वुच्चइ" ति “वयणं.” पुरिसा-5-भावे अ णेवमेअं, ति.। ता तस्सेवाऽ-भावो णियमेण अ-पोरिसेयव्वे. ॥१७॥ यदु-यस्मात् ,
"वचनम्" = [ अयमऽन्व-ऽर्थः] "उच्यते" इति
इत्यऽन्व-ऽर्थ-संज्ञा । पुरुषा-5-भावे तु
नैवमेतत् = "नोच्यते" इत्य-ऽर्थः । तत्,
नियमेन, तस्यैव - वनस्यैव
अ-पौरुषेयत्वे - सति आपद्यते । १७०॥ अ-भावः
तव्वावार-विरहिण य कत्थइ सुच्चइ इह वयण, । सवणे वि य,णा.ऽऽसंका अ-दिस्स-कत्तुब्भवाऽवेइ."॥१७॥ [तत्वावार-विउत्तं ण य कत्थइ सुव्बई ह तं वयणं. ।] · + तद्-व्यापार-विरहितम् [शून्यम्] | इह= लोके न च कदाचित् = न [क्वचित्] [तद्] भ्रूयते
वचनम् । * श्रवणेऽपि च = [सति], अ-दृश्य-कर्बुद भवा
अपैति, प्रमाणा-5-भावात् ।" आशङ्का
| इति-गाथा ऽर्थः ॥ १७१ ॥ "अ-दिस्स-कत्तिगं णो अण्णं सुव्वइ, कहं हु आसंका ?' । सुव्वइ पिसाय चयणं, कयाइ, एअं तु ण सदेव. ॥१७२॥ + "अ-दृश्य-कर्तृकम्
श्रूयते, नो-नैव
कथंच (नु) अन्यत् *
आशङ्का ?="वि-पक्षा-ऽदृष्टेः,"
इत्य-ऽर्थः।" * कलकत्ता-हस्त-लिखित-पुस्तके-अन्यतः ।
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गा० १७३-१७४ ]
(८५)
[ वेद-वचनं न संभवत्स्व-रूपम्
* अत्राऽऽह. :"श्रयते
पिशाच-वचनम् । * कदाचित् = कथंचन, लौकिकम् [एतत्] + एतत्तु-वैदिक [वेद-वचन]मऽ-पौरुषयेम, सदैव
। श्रूयते" ॥ १७२ ।। + यथा-ऽभ्युपगमे दूषणमाऽऽह, :"वण्णा-5ऽद-5-पोरुसेयं.” "लोइअ-बयणाण ऽवीह सव्वेसिं.। वेयम्मि को विसेसो? जेण तहिं एसऽ-सग्गहो.” ॥१७३॥ • "वर्णा-ऽऽदि
। अ-पौरुषयेम् ," * “लौकिक पचनानामपि सर्वेषाम् = वर्णा [वर्ण-सत्त्वा-]-sऽदि
वाचकत्वा-ऽऽदेः पुरुषेरऽ-करणात्
[रऽ-विकरणात् । को विशेषः ? एषः अ-सद्-ग्रहा=अ-पौरुषेयत्वा-5-सद्-ग्रह,
___ इति" ।। १७३ ॥ "णय णिच्छओ वि हु तओ जुज्जइ पायं कहं चि,सण्णाया। जं तस्स ऽत्थ-पगासण-विसएह अइंदिया सत्ती.? ॥१७॥
युज्यते प्रायः
निश्चयोऽपि ततः वेद-वाक्यात् यद् यस्मात् , तस्य वेद-वचनस्य अर्थ-प्रकाशन-विषया
क्वचित् वस्तुनि सन्-न्यायात् । इह = प्रक्रमे अतीन्द्रिया शक्तिः । इति-गाथा-ऽर्थः ॥१७॥
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गा० १७५-१७६-१७७ ] (८६) [वेज-वचना-ऽ-पौरुषेयत्व-परिहारः णो पुरिस-मित्त-गम्मा तद-ऽतिससो वि ण बहु-मओ तुम्हं.। लोइअ-वयणेहिता दिट्ठच कहिं वि[चि] वेहम्म.?॥१७५॥ न [नो]
पुरुष-मात्र-गम्याएषा। तद-ऽतिशयोऽपि
बहु-मतः
युष्माकम् अतीन्द्रिय-दर्शी,। । लौकिक-वचनेभ्यः सकाशात् कथंचित् [कथमऽपि]
वैधर्म्यम् ? वेद वचनानाम् ।"
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १७५ ॥ ताणीह पोरिसेयाणि, * अ-पोरिसेयाणि वेय-वयणाणि. । सग्गुव्वसी-प्पमुहाणं दिट्ठो तह अत्थ-भेओ वि. ?॥१७६॥ + "तानि
। पोरुषेयाणि लौकिकानि ।"
दृष्टं च
"अ-पौरुषेयाणि
| वेद वचनानि"
इति वैधय॑म् । + "स्वर्गाशी-प्रमुखानाम् शब्दानाम् | तथा
अर्थ-भेदोऽपि - [अप्सरोा - '
। ऽऽदि-रूपः ? "एवं चय एव लौकिकाः, त एव वैदिकाः । ___स एवैषामऽर्थः, इति ।
यत् किञ्चिदेतद्" ॥ १७६ ।।
"ण य तं स-हावओ चिय स-ऽत्थ-पगासण-परं पईओ व्व.। समय-विभेआ-5-जोगा, मिच्छत्त-पगास-जोगा य ॥१७७॥
* वेय-वयणा ण-पोरिसियाणि: कल हस्त-लिखित-पुस्तके ।
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गा० १७८-१७९ ]
4 न च
तद्वेद वचनम्
स्व-भावतः
"कुत:
इत्थाऽऽह, :
समय-विभेदा-S-योगात् = संकेत
भेदा S-भावात्,
ܕ
+ तदाऽऽह, :
इन्दीवरे
दीपः
प्रकाशयति
चन्द्रोऽपि
पीत वस्त्रम्
न
निश्चयः
(८७)
अ-संतं पि ।
इंदीवर म्म दीवो पगासइ रत्तयं चंदो वि पि वत्थं " धवलं" ति, ण [य] णिच्छेओ तत्तो ॥ १७८॥
[ वेदा-पौरुषेयत्व- परिहार:
एव
स्वो ऽर्थ-प्रकान-परम्, प्रदीपवत् ।
+ एवम्
न
कथिता - SSगम प्रयोग-गुरु-संप्रदाय
भावोऽपि = प्रवृत्य ऽङ्ग-भूतः
=
मिथ्यात्व - प्रकाश-योगाच - "क्वचिदे तदा - ssपत्तेः" इति भावः ॥ १७७॥
रक्तताम्
अ- सतीमऽपि,
"धवलम्" इति = प्रकाशयति ।
ततः=वेद वचनात्-व्यभिचारिणः । इति - गाथा - Sर्थः ॥ १७८ ॥
एवं णो कहिया - SSगम-पओग-गुरु-संपयाय-भावो ऽपि । जुज्जइ सुहो इहं (अं) खलु णाएणं, छिन्न-मूलत्ता ॥ १७९॥
-
(शुभः),
यतः
इह खलु - वेद-वचने न्यायेन,
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गा० १८०-१८१ ]
( ८८ )
छिन्न- मूलत्वात् = " तथा विध-वचना-5-संभवात् । " इति-गाथा - ऽर्थः ॥ १७९ ॥
"ण कयाइ इओ कस्सर इह णिच्छयमो कहिंचि वत्थुम्मि । जाओ ." त्ति कहइ एवं जं सो तत्तं स वामोहो. ॥१८०॥
निश्चयः
+ "न
कदाचित्
- वेद-वचनात्
अतः =
कस्यचिदू
इह
कथयति एवम् = सति
यद्
असौ = वैदिकः
+ ततश्च = वैदिकादर्थात् [ वैदिका
ऽऽचार्याद् .
आगमः
यः व्याख्या - रूपः
एव
क्वचिद्
वस्तुनि
जातः "
इति ।
तओ अ आगमो जो विशेय-सत्ताण, सो वि एमेव । तस्स पओगो चेवं, अ-णिवारणगं च नियमेणं ॥१८१॥
विनेय-सत्त्वानाम् = संबन्धी,
तस्य = आगमा-ऽर्थस्य
प्रयोगः
अ-निवारणं च
[ वेदा-S-पौरुषेयत्व परिहारः
तत्त्वम्,
सः
व्यामोहः = स्वतोऽप्यऽ- ज्ञात्वा कथनात् [ ऽप्यs-ज्ञत्वात् ] ॥ १८० ॥
सः
अपि
एवमेव = व्यामोह एव ।
च
एवमेव व्यामोह एव ।
नियमेन = व्यामोह एव ।
इति - गाथा - Sर्थः ॥ १८१ ॥
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न
गा० १८२-१८३-१८४ ] ( ८९ ) [ प्रामाणिक-परंपरा-संप्रदाया--भावौः णेवं परंपराए माणं एत्थ गुरु-संपयाओऽवि. । रूव-विसेस-दुवणे जह जच्च-उधाण सव्वेसि.॥१८२॥
मानम्, एवम्
अत्र = च व्यतिकरे परंपरायाः
गुरु संप्रदायोऽपि, निदर्शनमाऽऽह, :रूप-विशेष स्थापने = सितेतरा-ऽऽदि- यथा रूप-विशेष-स्थापने
जात्य-ऽन्धानाम्
सर्वेषाम अना-ऽऽदि मताम् । १८२॥ * परा ऽभिप्रायमाऽऽह, :"भवतो वि य सव्व-ण्णू सव्वो आगम-पुरस्सरं जेणं, । तो सो अ-पोरुसेओ, इयरो वाणाऽऽगमो जो उ.”॥१८३॥ "भवतोऽपि च,
आगम-पुरस्सरः, सर्वज्ञः
येन-कारणेन । सर्वः "स्वर्ग-केवला.ऽथिना तपो-ध्याना-ऽऽदि-कर्त्तव्यम् ।” ____ इति-आगमः, अतः प्रवृत्तः, इति । तद्,
अ-पौरुषेयः। असौ इतरः = अना-ऽदिमान सर्वज्ञः । नाऽऽगमादेव कस्य चित् तमऽन्त[अना-ऽऽविमत् , सर्व ज्ञ-साधनत्वात् रेणाऽ-पि भावात् ।"
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १८३ ॥ * अत्रोत्तरम् , :णोभयमऽवि, जमऽणा-55ई बीय-ऽ'कुर-जीव-कम्म-जोग-समं,। अह व ऽत्थतो उ एवां, ण वयणओ, वत्त-ऽहीणं तं.॥१८॥
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गा० १८५ ] .
( ९० ) [वक्त्र-ऽधीनं वचनम् न = नैतदेवम् .
उभयमऽपि आगमः, सर्व-ज्ञश्च । यदु-यस्माद, अना-ऽऽदि
| बोजा-ऽङ्कुर-जीप-कर्म-योग-समम्। "न हिअत्र"इदं पूर्वम , इदं न ।" इति व्यवस्था ।
ततश्च-"यथोक्त-दोषा-5-भावः ।" + अथवा, अर्थत एव
एवम् -- बीजा-ऽङ्करा-ऽऽदि-न्यायः
सर्व एव । "कथञ्चिदाऽऽगममाऽसाद्य, सर्व ज्ञो जातः, तद-ऽर्थश्च तत्साधकः ।" इतिन वचनतः = न वचनमेवाऽऽश्रित्य,
"मरु-देव्या-ऽऽदीनां प्रकारा-ऽन्तरेणाऽपि भावात् । * तद् वचनम्
। वक्त्र ऽधोनम्,
"न तु
अना-ऽऽद्यऽपि, वक्तारमऽन्तरेण वचन-प्रवृत्तेरऽ-योगात् [उपाया-ऽन्तरा-5-भावात्] तद-ऽर्थ-प्रतिपत्तिस्तुक्षयोपशमा-ऽऽदेरऽ-विरुद्धा, तथा दर्शनात् ।”
एतत् सूक्ष्म-धिया भावनीयम् । १८४ ॥ "वेय-वयणम्मि सव्वं णाएणाऽ-संभवंत-रूवं जं. । ता,इयर-वयण-सिद्ध वत्थु कह सिज्झइ तत्तो ?"॥१८५॥ * वेद वचने
अ-संभवत्-रूपम् , सर्वम् - आगमा-Sऽदि,
यद् = यस्मात्। न्यायेन
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ग० १८६-१८७ !
( ९१ )
[ सन्न्यायो न लयुः कर्तव्यः
तत् तस्मात्,
कथम् इतर-वचन-सिद्धम् सद्-वचन-सिद्धम् सिध्यति वस्तुः = हिंसा-दोषा-ऽऽदि
ततः = वेद वचनाद् ? । इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १८५ ॥
ण हि रयण-गुणाऽ-रयणे कया-चिद ऽवि होंति उवल-साहम्मा. एवं वयण-नर-गुणा ण होति सामण्ण वयणम्मि.॥१८६॥ न हि
कदाचिदऽपि • रत्न-गुणाः शिरः शूल-शमना-ऽऽदयः भवन्ति अ-रत्ने
उपल-साधात् । * एवम्
न भवन्ति वचना-ऽन्तर गुणाः-हिंसा-दोषा-ऽऽदयः सामान्य-वचने = [विशेष-गुणा-5
योगात् ] || १८६ ।। तो एवं सण-णाओ ण बुहेण अ-ट्ठाण-ट्ठावणाए उ । सइ लहुओ कायव्वो चास-पंचास-णाएणं. ॥ १८७॥ तद,
अ-स्थान-स्थापनया = [वचना-ऽन्तरे एवम्
नियोगेन ] सन-न्यायः-विशेष वचनतः सदा
लघुः बुधेन
कर्तव्यः ।
["कथम् ?" इत्याऽऽह, :"चास-पञ्चाशन-न्यायेन (?)=] अ-संभविनोऽ-संभव-प्रदर्शन गत्या (?) ।।१८७॥ तत्र युक्तिमाऽऽह:
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गा० १८८ - १८९ - १९० ]
( ९२ )
[ वेदेs - हिंसा - हिंसोपदेश:
तह, वेदे च्चिय भणियं सामण्णेणं, जहा :- "ण हिंसिज्जा- । भृआणि " फलुदेसा पुणो य “हिंसज्ज " तत्थेव ॥१८८॥
भणितम् सामान्येन=उत्सर्गेण,
तथा,
वेदे
एव
यथा, :
"न
हिंस्यात्
भूतानि ।"
फलोद्देशात्
"हिंस्यात् " तत्रैव - भणितम् ।
पुनश्च "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग-कामः । " इति । इत्यर्थः ॥ १८८ ॥
ता, तस्स पमाणत्ते वि एत्थ नियमेण होइ दोसु.” ति फल - सिद्धिए वि, सामण्ण-दोस विणिवारणा-s-भोवा ॥ १८९॥
6
†' तत् तस्य : = वेदस्य
प्रमाणवेsपि,
नियमेन = चोदनायास्
भवति
दोषः "
इति ।
अत्र
फल- सिण्डावऽपि = सत्याम् |
"कुतः ?" इत्याऽऽह, :
सामान्य- दोष निवारणा-5-भावात् = औत्सर्गिक वाक्या ऽर्थ दोष प्राप्तेरेव । इति - गाथा - Sर्थः ॥ १८९ ॥
+ इहैव निदर्शनमाऽऽह :
जह, वेज्जगम्मि दाहं ओहेण निसेहिउं पुणो भणियं, :- ।
" गंडा - SSइ खय- णिमित्तं करेज्ज विहिणा तयं चैव. " ॥ १९०॥
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गा० १९१-१९२ ]
यथा, वैद्य, दाहम्-अग्नि-विकारम्
(पुनः)
rest-ss-क्षय-निमित्तम् "व्याध्य-sपेक्षया" इत्य -ऽर्थः
कुर्याद्
6
क्रियमाणे = अपि दाहे
ओघ - निषेधोद् भवः = "ओध-निषेधाद् भवति" औत्सर्गिक - निषेध - विषयः
तत्र
+ एबम् - अत्र - da
इति - गाथा - र्थः ॥ १९०॥
तत्तो वि किरमाणो ओह - णिसेहुब्भवो तहिं दोसो | जायइ फल- सिद्धिए वि, एवं
इत्थऽवि णायां ॥१९१॥
+ ततोऽपि = वचनात्
( ९३ )
"चोदनातोऽपि प्रवृत्तस्य फल -२
$ अन्र=
कृतम्
[ इति वेद - विचारः, द्रव्य-भाव- स्तवौ
ओघेन - उत्सर्गतः निषिध्य = दुःख-करत्वेन, भणितम् = तत्रैव फलोद्देशेन, :
* वस्तु - विचारे कल
विधिना
तमेव = दाहम् । "
दोष : =
. जायते
: = दुःख-करण लक्षण:
फल - सिद्धौ =
= गण्ड-क्षयाऽऽदि-रूपायां
सत्याम्
अपि ।
अपि
विज्ञेयम् ।
- भावेऽप्युत्सर्ग- निषेध - विषयो दोषः । "
इति - गाथा - Sर्थः । १९१ ।।
कयमित्थ पसंगेणं. जहोचिया चेव दव्व-भाव-त्थया । अण्णो ऽण्ण-समणु-विद्धा नियमेणं हौति णायव्वा ॥१९२॥
* द्रव्य -स्तव विचारे
प्रसङ्गेन ।
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गा० १९३-१९४ ]
+ यथोचितावेव द्रव्य-भाव-स्तवौ अन्योऽन्य- समऽनुविडौ = प्रथम(प्रधान) - गुण भावेन
1 [ अनयोविधिमाऽऽह :- ]
( ९४ )
$ एषः
अप्प - विरियस्स पढमो, सह- कारि-विसेस - भूअमो सेओ । इयरस्स बज्झ चाया इयरो चिय. एस परम - Sत्थो. ॥१९३॥ सह-कारि-विशेष-भूतः [ वीर्यस्य ]
अल्प- वीर्यस्य = प्राणिनः
=
प्रथमः = द्रव्य- स्तवः
द्रव्य-स्तवमऽपि - औचित्येन
कर्तुम् :
न
[ द्रव्य-भाव - स्तवा ऽधिकारिणः
[नियमेन
भवतः
ज्ञातव्यौ ।
अन्यथा, स्व-रूपा -S-भावः ] ।। १९२ ।
इतरस्य = बहु-वीर्यस्य साधोः
इतरः
बाह्य-त्यागात्-बाह्य-द्रव्य-स्तव ( ? ) त्यागे एव = श्रेयान्, "भाव- स्तवः " इति ।
परमा-ऽर्थः = अत्र-क्रममाऽश्चित्य
द्रष्टव्यः ।। १९३ ॥
अत:
श्रेयान् ।
"परिशुद्धम्
भाव -स्तवम् = " यथोक्तम्" इत्य-ऽर्थः करिष्यति = " इति,
+ विपर्यये दोषमाऽऽह, :
अप्प - विरिअत्तेणं, ।
दव्व-त्थयं पि काउं ण तरइ जो परिसुद्धं भाव-त्थयं काही सो. S - संभवो एस. ॥१९४॥
शक्नोति
यः = [सत्त्वः ]
अल्प- वीर्यत्वाऽऽदेः = [अल्प-वीर्य
त्वेन हेतुना ], अ-संभवः
एषः = द (ब) ला-s-भावात् ॥ १९४ ॥
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________________
गा० १५९-१९६ ]
[ तयोरऽल्पत्व-महत्त्वे * तदाऽऽह, :जं सो उक्ट्रियरं अविक्खइ विरियं इहं णियमा. । ण हि पल-सयं पि वोटु अ-समत्थो पळायं वहइ. ॥१९५॥ [यद्,
वीर्यम् = शुभा ऽऽत्म-परिणाम रूपम् असौ = भाव-स्तवः उत्कृष्टतरम्
नियमात् । अपेक्षते . नहि
अ-समर्थः =मन्द वीर्यस्सत्त्वः, पल-शतमऽपि
पर्वतम वोढुम्
वहति । ] "भाव-स्तवोचित-वीर्य-प्राप्त्युपायोऽपि द्रव्य-स्तवः एव, न च प्रतिमा-पालनवदऽ-नियमः। .. "जुत्तो पुण एस कमो।" इत्या-ऽऽदिना, द्रव्या-ऽऽदि-विशेषेण नियमनात्, गुण-स्थान-क्रमा-ऽ व्यभिचाराच्च," इति दिग् । "अत्र-पल-शत-तुल्यः-द्रव्य-स्तवः । पर्वत-तुल्यस्तु भाव-स्तवः" इति रहस्यम् ॥ १९५ ।। * उक्तमेव स्पष्टयति, :जो बझ-चाएणं णो इत्तरियं पि णिग्गहं कुणइ,। इह अप्पणो सया से सव्व-च्चाए कहं कुज्जा ?॥१९६॥
निग्रहम् पाय-त्यागेन = बाह्य-चित्त-विषय- न करोति = वन्दना-ऽऽदौ
व्ययेन इत्वरमऽपि
आत्मनः,
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________________
गा० १९७-१९८-१९९ ]
( ९६ )
[ तयोर्दामा-ऽऽदिषु घटना
क्षुद्रः
कथम् सदा असौ = यावज्जीवम्
कुर्यात् ? सर्व-त्यागेन
"आत्मनो निग्रहम्"।
इति-गाथा-ऽर्थः ।। १९६ ॥ * अनयोरेव गुरु-लाधव-विधिमाऽऽह, :आरंभ-च्चारणं नाणा-ऽऽइ-गुणेसु वड्ढमाणेसु । दव्व-त्थय-परिहाणी विण सोइ दोसाय परिशुद्धा. ॥१९७॥
आरम्भ त्यागेन = हतुना अपि ज्ञाना-5ऽदि गुणेषु
तत्क: वईमानेषु = सत्सु,
दोषाय द्रव्य-स्तव-हानिः
न भवतिः
परिशुद्धा= सा-ऽनुबन्धा।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १९७ ॥ + इहैव तन्त्र-युक्तिमाऽऽह, :- .. एत्तोच्चिय णिदिवो धम्मम्मि चउ-विहम्मि वि कमोऽयं । इह दाण-सील-तक-भावणामए, अण्णहाऽ-जोगा.॥१९८॥
अत एव = द्रव्य-स्तवा-ऽऽदि-भावात् । क्रमोऽयम् = वक्ष्यमाणः निर्दिष्टः = भगवद्भिः
इह-प्रवचने धर्म
दान-शील-तपो-भावनामपे-धर्मे, चतुर्विधेऽपि अन्यथा,
अ-योगाद् = अस्य धर्मस्य ।
इति-गाथा-ऽर्थः ॥ १९८ ॥ * एतदेवाऽऽह, :संतं पि बज्झमऽ-णिच्चं थाणे दाणं पि जो न वियरेइ, । इय खुद्दओ कहं सो सीलं अइ-दुद्धरं धरइ ? ॥१९९॥
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________________
गा० २००० २०१-२०२ ] ( ९७ ) [ दाना-ऽऽदि-क्रमः, परस्पर-घटनाया अतिदेशचे अ-सीलो ण य जायइ सुद्धस्स तवस्स हंदि विसओ वि.। जह-सत्तीए ऽ(अ-तवस्सी भावइ कहं भावणा-जालं ?॥२०॥
सद् [अपि] विद्यमानम् दानमऽपि = पिण्डा ऽऽदि बाघम् - आत्मनो भिन्नम् अ-नित्यम् - अ-शाश्वतम् स्थाने = पात्रा-ऽऽदौ
वितरति = न ददाति, क्षौ-द्यात, "इय" = एवम्
शीलम् = महा पुरुषा.ऽऽसेवितम् क्षदः= वराकः
अति-दुर्द्धरम् कथम्
धारयति = ? 'नेव" इत्य-ऽर्थः । असौ
इति-गाथा-ऽर्थः ।। १९९ ॥ अ-शोलश्च
तपसः = मोक्षा-ऽङ्ग भूतस्य न जायते शुद्धस्य
विषयोऽपि । यथा-शक्ति वा
कथम् अ-तपस्वी - मोह-परतया
भावना-जालम् ? = तत्त्वतो नैव । भावयति
इति-गाथा-ऽर्थः ।। २०० ॥ एत्थ कम-दाण-धम्मो दव्व-त्थय-रूवमो गहेयव्यो. । सेसा उ सु-परिशुद्धा णेयो भाव-त्थय-स-रूवा. ॥२०१॥ अत्र-क्रमे
द्रव्य स्तव रूपः = एव दान-धर्मः
ग्रायः = अ-प्रधानत्त्वात् । शेषास्तु
ज्ञेयाः सुपरिशुद्धाः = शील-धर्मा-ऽऽदयः - भाव-स्तव-रूपा:प्रधानत्वात् ।२०११ * इहैवाऽतिदेशमाऽऽह, :इह आगम-जुत्तीहिं य तं तं सुत्तम हिगिच्च धीरेहिं । दव्व-त्थया-5ऽइ-रूवं विवेइयव्वं सु-बुद्धीए. ॥२०२॥ .
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________________
एषा
गा० १०३ ]
( ९८ )
[ उपसंहारः, समासिब "इय" एवम्
धोरैः= बुद्धिमद्धिः आगम-युक्तिभिः
द्रव्य-स्तवा-ऽऽदि-रूपम् तत तत्
सम्यगा-ऽऽलोच्य, सूत्रम्
विवेक्तव्यम् अधिकृत्य
स्व-बुद्धया।
___ इति-गाथा-ऽर्थः ॥ २०२।। . * उपसंहारमाऽऽह, :-- एसेह थय-पइन्ना समासओ वन्निया मए तुझं, । वित्थरओ भाव-ऽत्थो इमीए सुत्ताउ णायव्यो. ॥२०३॥
समासत:
वणिता स्तव-परिज्ञा-पद्धतिः
मया
युष्माकम् । विस्तरतः
अस्याः = स्तव-परिजाया: भावार्थ:
सूत्रात
ज्ञातव्यः ।
इति । शिवम् ।। २०३ ॥ जयइ थय परिना, सार-निट्ठा, सु-वन्ना,
सु-गुरु-कय-अणुन्ना, दाण-वकखाण गुन्ना, । मय-निउण पइन्ना, हेउ-विट्ठ-त-पुन्ना, ..
गुण-गण-परिकिना, सव-दोहि सुन्ना. । १॥ इति स्तव-परिजया किमऽपि तत्वमुच्चस्तरां
यशो विषय-बाचकर्यदुदऽभावि भावा-ऽर्जितम् । ततः कु-मत-वासना.विष-विकार-वान्तेर्बुधा
सुधा रसपानतो भवत तृप्ति-भाजः सवा. ॥२॥ तन्त्रः किमऽन्यर्भग्नव भ्रान्तिः स्तव-परिज्ञया।
ध्वस्ता पान्थ-तृषा नद्या कूपाः सन्तु सहस्रशः॥३॥ ॥६७॥ .
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० ३८ ]
[ अष्ट- त्रिंशत् -गाथा - गत- परिष्कार - हार्द नन्दन - सूरिभिः शास्त्र-वचन- गाम्भीर्य - विद्वद्-वरैः ]
+ एवं च
"आज्ञा-शुद्ध वीतराग- गामि भाव- स्तव हेतु अनुष्ठानस् - द्रव्य स्तवः ।" इति
नियू ढम् ।
भाव स्तवेति व्याप्ति-वारणाय विशेष्यम् ।
अत्र
[ परिष्कर-हाम
प्रसादीकृतमाऽऽराध्य-पादैराऽऽचार्य श्री विजय
विशेषण-द्वयम् - भाव-स्तव हेतुतावच्छेदक-परिचायकम् ।
इति - "भाव स्तव हेतुत्वमेव लक्षणं सिध्यति ।"
यत्
पुनः
अनुष्ठानम्
( ९९ )
तत्राऽऽह,
जं पुण एअ - वियुत्तं एग - ऽन्तेणेव भाव-सुण्णं ति ।
तं वियम्मि विणतओ भाव-त्थया- - हेडओ उचिओ ॥३८॥
-:
तद् अनुष्ठानम्
विषये = वीत - रागा ssदौ
अपि
=
एतद् - वियुक्तम् - औचित्या-ऽम्बे
aur-ssदि-शून्यस्
"
एका Sन्तेनैव
नाव- शून्यम्,
इति ।
न
तक:- द्रव्य -स्तवः,
उचितः - [ यथा-भूतः ] "भाव-स्तवा-डङ्ग न ।”
भाव-स्थया - S- हेउओ" त्ति । ( भाव स्तवा-s- हेतुतः, इति ) "धर्म-पर-निर्देशात्
भाव स्तवा S- हेतुखात् । "
(स्पष्टा ऽन्वयः - पुनः, "यक्षऽनुष्ठानं एतद्- वियुक्तं ( औचित्या - ऽन्वेषणा - SSविशून्यस्) तद् अनुष्ठानं एका ऽन्तेनैव भाव- शून्यम्, " इति हेतोः विषयेऽपि वीतरागा-ssarasपि भावस्तवा-S-हेतुत्वात् न तकः ( द्रव्य- स्तवः) उचितः (भाव- स्तवा - ऽङ्गस्) भवति ॥ ३८ ॥ | )
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गा० ३८]
(१००)
[परिष्कार-हार्दम्
- 'अ-प्रधानस्तु भवत्येव । . हेतु-साध्या-ऽ-विशेष-परिहाराय'अ-प्रधान-व्यावृत द्रव्य-स्तवत्वेन व्यपदेश्यो न" इति साध्यं व्याख्येयम् ।।
१. अ-प्रधानो द्रव्य-स्तवतु भवत्येव । २. औचित्य-शून्यं यद-ऽनुष्ठानम् , न तद-ऽनुष्ठानं द्रव्य-स्तयः, भाव-स्तवा-5-हेतुत्वात् । यत्र यत्र भाव-सवा-s-हेतुत्वम् , तत्र तत्र द्रव्य-सवत्वा-5-भावः । यद् भाव-स्तवा-5-हेटुवा-5-भाववद्, तद् द्रव्य-सवा-5-भाववद् । यो द्रव्य-सवा-5-भावः, स एव भाव-स्तव-हेतुत्वा-5-भावः । एवम्-हेतु-साध्ययोरैक्यम् । तत्सरिहाराय
३. अ-प्रधान-द्रव्य-सवः-अ-प्रधान-व्यावृत-द्रव्य-स्तवत्वेन व्यपदेश्या-5-भाववान् , भाव-स्तवहेटुवा-5-भाश्वत्वात् । (हेत्व-s-भावात् ) यत्र यत्र भाव-सव-हेतुत्वा-ऽभाववत्वम्, तत्र तत्र अ-प्रधान-व्यावृत्त-द्रव्य-सवत्वेन व्यपदेश्यत्वा-5-भाववत्वम् । एवम्-यत्र यत्र भाव-सव-हेतुत्वम् , तत्र तत्र अ-प्रधान-व्यावृत्त-द्रव्य-स्तव-व्यपदेश्यत्वम्। ' एवम्-हेतु-साध्ययोभिन्न-विषयत्वम्
अत्र - यद्य'ऽपि (यञ्चाऽपि)
"शुद्ध तत्-तद्-द्रव्य स्तव 'व्यक्तीनाम् आज्ञा-''विशिष्टानां वा, न माव-स्तवत्वा-ऽवछिन्ने हेतुत्वम्, व्यभिचारात्, अन-ऽनुगमाच्च ।
४. हेतु-साध्ययोर्व्याप्ति-प्रक्रमे ५. "न शुद्ध हेतुत्वम्" इत्यऽचयः ।।
'नाऽपि शुद्ध हेतुत्वम्" इति चाऽन्वयः । ६. "शुद्ध न्” इति हेतुत्वस्य विशेषणम् । उत्तरत्रा-मि-अध्याहार्य एव विशेष्य-विशेषण-दले । ७. प्रथमं तावत्-व्यभिचारा-न-ऽनुगम-दोषयोः स्व-रूपे निदर्शनीये भवतः,-- (१) तत्सत्वे तत्सवमन्वयः ।
तद-5-भावे तद-5-भावो व्यतिरेकः । हेतु-सत्त्वे साध्य-सवमन्वयः ।
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ग०२८
( १०१ )
| ববিজ্ঞান
हेत्व-ऽ-सत्त्वे साध्या-5 सत्त्वं व्यतिरेकः हेतु-सवे साध्या-5-भावः-अन्वय-व्यभिचारः
हेत्वा-s-भावे साध्य-सत्त्वम्-व्यतिरेक-व्यभिचारः । (२) अनेक-कारणेष्वऽपि कारणा-ऽबच्छेक-धर्मस्यैकत्वमऽनुगमः ।
__ अनेक कारणेषु कारणता-बच्छेदक-धर्माणामऽनेकत्वमऽन-ऽनुगमः । (१) व्यभिचारो हेतु-गत-दोषः (२) अन-ऽनुगमश्च व्याप्ति-गतो दोषः ।" इत्येवं मे मतिः। ९. अत्र
भाव-सवस्य हेतुताया विचारो न, किन्तु, भाव-स्तवत्वा-ऽवच्छिन्ने हेतुता-ऽवच्छेदकत्व-स्य विचारः प्रस्तुतः ।
यावद्-भाव-स्तवैक-हेतुता-विचारः प्रस्तुतः, इति । १०. तेन, तत्-तद्-द्रव्य-सव-निष्ठा न हेतुता। जिन-दत्तस्य आज्ञा-निष्ठ-द्रव्य-स्तवे जिन-दत्तस्य भाव-सवस्य हेतुता वर्तते, किन्तु, नाऽर्हद्दत्तस्य भाव-सवस्य हेतुता । तेन, साध्य-सत्वे न हेतु-सत्त्वम् , तेन, परस्परं-व्यभिचारः । तथातत्-तद्-भाव-सवे तत्-तद्-द्रव्य-स्तवस्य-कारणता, अथवा, अनेकेषु द्रव्य-सवेषु भाव-सवस्य हेतुता, तेन, अन-ऽनुगमः । अनेकेषां कारणानां स्वीकारे कारणा-ऽऽन-ऽन्त्यम् । तेन, भाव-सवत्वा-ऽवच्छिन्ने साध्ये हेतुता-ऽवच्छेदकमेकमेव न। तेन, अन-ऽनुगमः । "पत्र"आज्ञा-निष्ठानाम्" इति विशेषणं १ पक्षा-ऽन्तरं वा १ इति न निर्णीयते । आज्ञा-निष्ठानामऽपि तत्-तद्-द्रव्य-स्तव-व्यक्तीनां वा हेतुत्वम् ? भाव-स्तव-निष्ठ-साध्यता-निरूपित-अ-प्रधान-द्रव्य-स्तव-च्यावृत्त-व्यपदेश्यत्वा-ऽवच्छिना हेतुता न तत्-तद्-द्रव्य-सव-निष्ठा, व्यभिचारात् ।
"नापिभाव-स्तव कारणत्वेन दण्डा-ऽऽदेरिव,
"आत्मा-श्रयात् ।
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मार ३८]
( १०२ ) [ বঙ্কিাল ११. नाऽपि
भाव-स्तव-कारणत्वेन शुद्ध हेतुत्वं तत्-तद्-द्रव्य-स्वव-व्यक्तीनाम्, “मात्मा-ऽऽश्रयात्"
इत्यऽन्वयः। १२. यथा, “घट-कारणत्वेन दण्डा-ऽदेरऽपि भात्मा-ऽऽश्रयात् , न शुद्ध हेतुत्वम्" इत्यऽन्वयः । १३. आत्मा-ऽऽश्रयः-कार्य-कारण-भाव-गतो दोषः।
अन-ऽवस्था-अन्योऽन्या-ऽऽश्रय-आत्मा-ऽऽश्रयाश्च कार्य-कारण-भाव-गता दोषाः । (१) कारणा-ऽन्तर-परंपरा-संततेर-5-विश्रामो ऽन-ऽवस्था-दोषः । (२) कार्य-कारणयोः परस्परं कार्य-कारण-भावोऽन्योऽन्या-ऽऽश्रय-दोषः। (३) यत् कारणम्, तदेव कार्यम् ,
एवम्-कार्य-कारणयोरऽ-भेद:-आत्मा-ऽऽश्रय-दोषः । अत्र
आत्मा-ऽऽश्रय-दोषस्य प्रयोजनमिति । घट-कार्ये दण्डस्य कारणता तत्-तद्-दण्डत्वेन नैव, तत्-तद्-दण्डत्वेन कारणतायामाssत्मा-ऽऽश्रय-दोषः। घटत्वा-ऽवच्छिन्न-कार्यस्यतत्-तत्-शाम-रक्त-दण्डेषु कारणतायाः सिद्धी, दण्डे घट-कारणतायाः सिद्धिः स्यात् । दण्डेषु घट-कारणातायाः सिद्धौ सत्यां दण्डे कारणातायाः सिद्धिः स्यात् । घटत्वा-ऽवच्छिन्ने कार्ये केन धर्मेण दण्डस्य कारणता ? एवम्-कारणताया अ-सिद्धी-आत्मा-ऽऽश्रय-दोषः । एवम् -- द्रव्य-स्तवे कारणतायाः सिद्धी, भाव-स्तवस्य कारणता-सिद्धिः स्यात् । भाव-स्तवस्य कारणतायाः सिद्धौ, द्रव्य-स्तवे कारणतायाः सिद्धिः स्यात् ।
भाव-स्तव-द्रव्य-स्तवयोः कार्य-कारण-भावोऽ-निश्चितः, तेन-अन्योऽन्या-ऽऽश्रय-दोषः। "तथाऽपि- अ-प्रधान-"म्यावृत्तेन द्रव्य स्तवत्वेन
अ-खण्डोपाधिना तत्त्वम्, "गडुच्या-ऽऽदीनाम्ज्वर-हरण-शवत्येव,
शक्ति-विशेषेणव वा।
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गा० ३८ ]
१४. " यद्य-प
( १०३ )
शुद्ध हेतुत्वं न, व्यभिचारात्, अन-ऽनुगमाञ्च नाsपि शुद्ध हेतुत्वम् आत्माऽऽश्रयात् । तथा -ऽपि -
- खएडोपाधिना तस्त्रम् - शुद्ध हेतुत्वम् ।
श्रथवा
“शक्ति - विशेषेणैव शुद्ध हेतुत्वम्” इति विषय संबन्धः ।
१५. भाग स्वस्वा ऽवच्छिन्न-कार्यता -निरूपिता श्रप्रधान. व्यावृत्तत्वावच्छिन- द्रव्यक्तवनिष्ठा हेतुता, प्र-प्रधान-व्यावृत्त- द्रव्य रतवत्व-रूपा-S-खण्डोपाध्य-ऽवच्छिन्ना यथा घटे दण्डस्य कारणता दण्डत्व-जाति-रूपेण
तथैव
- प्रधान-व्यावृत्त-द्रव्य-स्तवत्वेन ।
द्रव्य - स्तवत्वं न जातिः,
किन्तु, अ-खण्डोपाधिः, तद्-रूपतया कारणता,
न तु द्रव्य- रतवत्वा वच्छेदकैः कैरऽपि धर्मा - ऽन्तरैः ।
[ परिष्कार हाम्
१६. यथा -
गडूची - गो-तुरा - SS दि- द्रव्याणां सर्वेषां समूह-रूपैणौषध- द्रव्येण ज्वरस्य हरणं भवति । सर्व-ज्वर-हर-द्रव्य-समूहे एका ज्वर-हरण-रूपा विशिष्टा शक्तिः प्रादुर्भवति । तेन शक्ति - विशेषेण ज्वरस्या - ऽपहरणं भवति ।
तस्मात्
ज्वर-नाशे तत्-तद्-द्रव्यस्य तत्-तद्-द्रव्य-रूपेण न कारणता,
किन्तु, स-कल- द्रव्य-समूह-निष्ठ-शक्ति- विशेष-रूपणैव कारणताऽवगन्तव्या ।
एवम्
श्रथवा,
-प्रधान-व्यावृत्त- द्रव्य- स्तवत्वा ऽवच्छेदका यावन्तो धर्माः, तैर्न कारणता । किन्तु, स-कला-वा-ऽ-न्तर-धर्मा - ऽवच्छिन्ना भाव - स्तव - जनिका विशिष्टा शक्तिः अ-प्रधान-व्यावृत्त-द्रव्य - रतवे ।
सेन - शक्ति - विशेषेण कारणता ।
अर्थात्---खण्डोपाधिना शुद्ध हेतुत्वं भाव-स्तंवे अ-प्रधान - व्यावृत्त-द्रव्य-स्तवत्वेन ।
द्रव्य-श्व-निष्ठ-शक्ति-विशेषेण भाव-श्वव-निष्ठ-कार्यताया
निष्ठ-कारणता ।
श्र-प्रधान-व्यावृत्त-द्रव्य-रतव
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मा० ३८]
( १०४ )
[परिष्कार-हार्दम् , तिलक-प्रशंसा च
"विशेषण-द्वयं तु परिचायकम् ।
१७. तेन--
"आशा-शुद्धम्" "वीत-राग-गामि" एते द्वे विशेषणे हेतुता-ऽवच्छेदक-परिचायके, न तु हेतुता-ऽवच्छेदके, तेन--न तु लक्षणा-ऽन्तर्गतत्त्वेन दोष-व्यावृत्त्य-ऽर्थे ।
इति ।
मो-जिना-ऽऽज्ञा-धारकत्व-सूचक-स-शिख-केसर-चन्दन-तिलक-युक्त
ललाट-महत्त्वम् ।
तिलक-युत-ललाट-भ्राजमानाः स्व-भाग्या 5
करमिव समुदीतं दर्शयन्ते जनानाम् । स्फुरद-5-गुरु सुमा-ऽऽली-सौरभोद्गार-साराः
कृत-जिन वर पूजा देव रूपा महेभ्याः ॥ १ ॥ आनन्दमाऽन्तरमुदारमुदाहरन्ती
रोमा-ऽश्चिते वपुषि स-स्पृहमुल्लसन्ती। पुंसां प्रकाशयति पुण्य-रमाः समाधि
मौभाग्यमर्चन-कृतां निभृता दुगेव ॥ २ ॥ स्पृशयति तिलक शून्यं नैव लक्ष्मीर्ललाटॅम
. मृत सु-कृतमिव श्री-शौच संस्कार हीनम् ।। अ-कलित-भजनानां वल्कलान्येव वस्त्रा- .
ग्यपि च शिरसि शुक्लं छठ मऽप्युग्र-भारः ।३।। अकृतार्हत्पूजस्य (8) तस्करस्येव लोचने ।
शोचनेनैव संस्पृष्टे गुप्त पातक शङ्किते ।। ४ ।।
[ प्रतिमा-शतक-वृतिः-६८].
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"K" नमः
न्याय-विशारद-न्याया-ऽऽचार्य-श्री-मद्-यशो-विजयजी-वाचक
वर-विरचित-अवत्रिका सहित-अज्ञात-नामोश्री-पूर्व-धर-पूर्वा-ऽऽचार्य-भगवन्त-विरचित
स्तव-परिज्ञा
---को-. [हिन्दी] भावाऽर्थ-चन्द्रिका ।
योजक-प्रकाशक-संपादकःप्रभुदास बेचरदास पारेख
राजकोट
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गा० १]
(२) [ स्तव-परिज्ञा ( हिन्दी ) भावार्थ चन्द्रिका अथ स्तव-परिज्ञया प्रथम देशना देश्यया
__गुरोर्गरिम-सारया स्तव-विधिः परिस्तूयते । इयं खलु समुद्धृता स-रस-दृष्टि-चादा-ऽऽदितः
श्रुतं निर-ऽघमुत्तमं समय-वेदिभिर्मण्यते. ॥ १॥
अब,
श्री-तीर्थकर प्रभु की प्रथम-देशना रूप और
गंभीर सार से भरपूर श्री स्तव परिज्ञा-नामक ग्रन्थ द्वारा (द्रव्य और भाव रूप) स्तव का विधि
का प्रारंभ करता हूँ। इस (स्तव-परिज्ञा ) ग्रन्थ का उद्धार श्री दृष्टिवाद आदि से किया गया है,
और श्री शास्त्रज्ञ महापुषो का कहना है कि--- ___"यह निर्दोष और उत्तम शास्त्र-ग्रन्थ है" ॥१॥ "स्तव-परिज्ञा" ग्रन्थ खूब उपयोगी है।" यह समझकर, (श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी विरचित ) पञ्च वस्तु शास्त्र में जिस प्रकार देखने में आया है, उसी प्रकार सेइस प्रकार लिखा जाता है,
(१ प्रास्ताविक ) "एअमिहमुत्तम-सुअं 'आई'-सद्दाओ थय परिणा-ऽऽई."।
"वणिज्जइ जोए थओ दु-विहो वि गुणा ऽहि-भावेण." ||१|| * यहां
''यह उत्तम शास्त्र है" यह आदि शब्द से "स्तव-परिज्ञा" आदि प्राभतों को समझने चाहिये।
(२ प्रारंभ ) जिस ग्रन्य में
गौण और मुख्य भाव से दोनों प्रकार के भी स्तवों का वर्णन हो, उसका नाम स्तव परीक्षा है ।। १ ।।
पाठकों को सूचना-पंच.वस्तु ग्रन्थ गत विशेषता [ ] इस प्रकार के कोष्टक में, और--संपादकीय विशेषता ( ) इस प्रकार के कोष्टक में-प्रायः निर्दिष्ट है। संपादक।
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गा० २ ]
(३)
[ द्रव्य-भाव-स्तव-व्याख्या
विशेषार्थ१, उत्तम अर्थों का वर्णन जिसमें पाया जाय, उसे उत्तम शास्त्र कहा
जाता है। २. “स्तव-परिज्ञा" आदि विशेष प्रकार के प्राभृत है। * ३. पंच-वस्तु शास्त्र के अनुज्ञा अधिकार में उत्तम शास्त्रों की गणना में
स्तव-परिज्ञा और ज्ञान-परिज्ञा प्राभृतों का निर्देश किया गया है । * ४. "स्तव परिज्ञा का भावार्थ क्या है ?"
इस प्रश्न का उत्तर-"गौण रूप से और प्रधान रूप से, द्रव्य स्तव शब्द से वाच्य, और भाव स्तव शब्द से वाच्य है-कहे जाते हैं, उन दोनों का
वर्णन जिस ग्रन्थ रचना में किया गया हो, वह स्तव परिज्ञा है। + यही आगे बताया जाता है,
(३ द्रव्य स्तव और भाव स्तव ) दव्वे भावे अ थओ. "दव्वे-भाव-थय-रागओ विहिणा
जिण-भवणा-ऽऽइ विहाणं." "भाव-थओ-संजमो सुद्धो." ॥२॥ + १. द्रव्य-स्तव और भाव स्तव दो प्रकार के स्तव है। * २. द्रव्य-स्तव-भाव स्तव के प्रति अनुराग से जिन मंदिर आदि को विधि . पूर्वक करना, और कराना । आदि-शब्द से -जिन-बिम्ब, पूजा आदि
का संग्रह समझना चाहिये । * ३. भाव स्तव-निरतिचार पूर्वक साधु क्रिया रूप शुद्ध संयम का पालन समझना चाहिये ॥२॥
विशेषार्थ भाव स्तव करने की इच्छा ( भावना ) की प्रेरणा के बल से"जिन-भवन-कराना" आदि प्रवृत्ति में जिस जिस प्रवृत्तियों का समावेश होता है, वे सभी द्रव्य-स्तव शब्द से व्यवहार करने योग्य है। ( अर्थात्-द्रव्य स्तव और भाव स्तव में ही जैन धर्म के सभी आचारो का एव चरणानुयोग का पूरा समावेश हो ( देखिये गाथा २०२ ) सकता है ।
(४ जिन भवन कराने का संक्षिप्त विधि)
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गा० ३-४-५ ]
(४) [ जिन भवन कराने की विधि "जिण-भवण-कारण-विही : सुद्ध भूमि दलं च कट्ठा-ऽई।
भिअगा-Sण-इ-संधाणं साऽऽसय-बुड्डी, समासेण." ॥ ३ । + जिन भवन कराने का संक्षेप में यह विधि है१. शुद्ध भूमि, २. काष्ठादिक ( शुद्ध ) पदार्थ- दल। ३. कर्म कर-मंदिर आदि के काम करने वाले कारीगर के साथ निखालस एवं ___ स्पष्ट व्यवहार से वर्तन रखना। ४. हृदय में स्व शुभ-भाव की वृद्धि ।। ३ ।।
"दव्वे भावे अ तहा सुद्धा भूमी." “पएस-5-कोला य ।
दव्वे. "5-पत्तिग-रहिया अन्नेसि होइ, भावे उ." ॥ ४ ॥ * १. शुद्ध भूमि
द्रव्य से और भाव से एवं शुद्ध भूमि दो प्रकार से देखी जाती है, + १. तपस्वी जन के निवास योग्य और हड्डी आदि मे रहित भूमि हो, वह .
द्रव्य से-शुद्ध भूमि । * २. भाव से शुद्ध भूमि
जिसमें जिन मंदिर बनवाना हो, उस भूमि के आस पास में किसी को किसी तरह के दुःख की अनुभूति न हो, और अप्रीति न हो, अ-समाधि न हो । ४ "धम्म-ऽत्यमुज्जएणं सव्वस्सा-ऽ पत्तियं न कायव्वं." ।
इय संजमो वि सेओ. इत्व य भयवं उदा-ऽऽहरणं. ॥ ५ ॥ * जो धर्म करने के लिए तैयार हुआ हो, उसका कर्तव्य है, कि-सभी
के लिए वह लेशमात्र भी अ-प्रीति के कारण भूत न हो। + संयम भी इसी से ही कल्याणकारी सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं । (अ-प्रीति युक्त संयम भी कल्याणकारी नहीं)
इस विषय में खुद श्री महावीर वर्धमान स्वामी तीर्थकर प्रभु दृष्टान्त
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(५)
गा०६-७-८]
. [ भूमि-शुद्धि "सो तावसा-ऽऽसमाओ तेसिं अ-अप्पत्तियं मुणेउणं, ।
परमं अबोहि बोअं, तो गओ हंत-काले वि." ।। ६ ।। + (गुणों के द्वेष से होने वाली एवं) परम अ-बोधि (सम्यक्त्व गुण के अभाव) के कारण उन तापसों की) अप्रीति को (मनः पर्याय ज्ञान से) समझकर, वह भगवान ने अ-काल में भी वर्षा चातुर्मास में भी-तापस के आश्रम से विहार कर दिया था ।। ६ ।।
विशेषार्थः + वह तापस के आश्रम के कुलपतिजी प्रभु के पिता के मित्र रूप एवं पितृव्य-चाचा तुल्य थे : इससे चातुर्मास के लिए आग्रह किया था। किन्तु वर्षा न होने के कारण गौओं के समूह ने झोंपडी के तृण को खा डाला। निरीह प्रभु ध्यान में थे । तापसों की अप्रीति का यह कारण बन गया था। ६ इसी रीति से• "इय सव्वेण वि सम्मं सक्कं ण-प्पत्तियं सइ जणस्स। णियमा परिहरियव्वं." "इयरम्मि सत्तत्त-चिंत्ताओ.” ॥ ७ ॥
परलोक ( हित ) को चाहने वालों ने प्रयत्न पूर्वक जहां तक वने वहां तक-सदा के लिए, सभी जीवों की अप्रीति से अवश्य ही दूर रहना चाहिये । जहां पर
अप्रीति दूर न की जा सके, वहां परउत्तम तत्त्व की विचारणा करनी चाहिये ॥ ७ ॥
विशेषार्थ पाह्य से-"यह मेरा हो दोष है।" ऐसा उत्तम तत्त्व का विचार करना चाहिये । और अन्तर्मुख से-उदासीन रहना चाहिये ॥७॥
॥ भूमि शुद्धि समाप्त ।। १२. काष्ठाविक पदार्थो को-दलों-की शुद्धि
कहा-ऽऽई वि दलं इह सुद्धं, जं देवता-Sऽदुपवणाओ। नो अ-विहिणोवणी, सयं च कारावियं जं नो. ॥ ८ ॥
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गा०९-१०- ]
(६) ___ [ काष्ठादि-दल-शुद्धि श्री जिन मन्दिर बनवाने में काष्ठादि-दल-पदार्थ-वही शुद्ध होती है, कि जो१. देवताओं आदि के वागों से
और २. आदि-शब्द से श्मशान आदि से लिया गया न हो, ३. अ-विधि से लिया गया न हो,
(अर्थात् बेल आदि को कष्ट पहुँचा कर न लाया गया हो।) ४. और (ईंट आदि स्वयं पकाकर न बनाया गया हो, किन्तु दूसरों से
उचित मूल्य से खरीदा गया हो) ॥ ८॥ तस्स वि अ इमो णेओ सुद्धा-5-सुद्ध परिजाणणोवाओ,:-। . तक्कह-गहणाओ जो सउणेयर सनिवाओ उ, ॥९॥
और वह-काष्ठादि पदार्थो की शुद्धि और अ-शुद्धि जानने का उपाय यह समझना चाहिये,- उन पदार्थों को १. प्राप्त करने का खरीदी-सौदा-वार्तालाप करने का
और २. ग्रहण करने का
१. शुभ शकुनो की उपस्थिति में हो, तो शुद्धि। २. और अशुभ शकुनो की उपस्थिति में हो, तो-अशुद्धि ।। ९ ॥
शुभ और अ-शुभ शकुने नंदा-ऽऽइ-सुद्धो सद्दो, भरियो कलसो य सुन्दरा पुरिसा, ।
सुह-जोगाऽऽइ य सउणो. कंदिय-सदा-ऽऽइ इयरा उ. ॥१०॥ + १. शुभ शकुन-१ वाजीन्त्र आदि के मांगलिक शब्द,
२ शुभ जल आदि से भरा हुआ पूर्ण कलश (घडा), ३ धर्मनिष्ठ पुरुषों का सामने दर्शन .
४ लग्नादि शुभ व्यवहार का योग *२. अ-शुभ शकुन- रुदन आदि के शब्द, इत्यादि, ॥१०॥
दल शुद्धि समाप्त
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गा० ११-१२-१३-१४ }
+ दल शुद्धि में विशेषता -
($)
सुस्स वि गहिस्स पसत्थ दिअहम्मि सुह-मुहतेणं. । संकमणम्मि वि पुणां विष्णेया सउणमा -ऽऽईया ॥ ११ ॥
[ कर्मकर संतोष प्रदान
ग्रहण किया हुआ शुद्ध काष्ठादिक पदार्थों का उपयोग भी करने के लिए प्रवेश कराने का भी, शुक्ल पंचनी आदि उत्तम दिन में
और
शुभ मुहूर्त में करना चाहिये ।
उस समय भी सुभाशुभ शकुनों को देखना चाहिये । ( अर्थात् - शुभ शकुनो में उनका उपयोग करने का प्रारंभ करना चाहिये, और अशुभ शकुनो में नहीं ॥ ११ ॥
+ फल बताये जाते हैं
I
३ काम करने वालों के साथ अच्छा व्यवहार, -
------
कारवणे वि य तसिह भयगाणाऽतिसंघाणं ण कायव्वं ।
अवि याऽहिय- प्पयाण, दिट्ठाऽदिट्ठ-फलं णेयं ॥ १२ ॥
जिन मंदिर बनवाने के कार्य में भी काम करने में कार्य करने वालों
hi हीं करना चाहिये, और योग्य शुल्क देना चाहिये ।
और अधिक देने से निम्न लिखित प्रत्यक्ष और परोक्ष फल जानने चाहिये ||१२||
ते तुच्छया वराया अहिएण दढं उवेंति परितोस. ।
१३ ॥
तुट्ठा य तत्थ कम्मं तत्तो अहियं पकुव्वंति. प्रत्यक्ष फल - वे कर्मकर वर्ग थोड़े में संतुष्ट रहता है, और मृदु स्वभाव का भी रहता है। अधिक देने से खूब खुशी रहते हैं । और खुशी में आकर - ( मंदिर जी के काम में पूर्व से अधिक काम करते रहते हैं । ।। १३ ।। ( यह दृष्ट फल है )
धम्म-प्रसंसाए तह केइ निबंधिंति बोहि आई ।
अन्ने य लय- कम्मा एतोचिय संपबुज्झति ॥ १४ ॥
+ १ परोक्ष फल - १ आत्मा में कुशल भाव होने से ।
धर्म की प्रशंसा करते करते कोई-कोई कार्यकर बोधि बीज की परंपरा को प्राप्त कर लेता है । और
२ पूर्व का पाप कर्म अल्प होने से कितनेएक कार्य कर उदारता का पक्षपाती बनकर बुझकर धर्म मार्ग भी प्राप्त कर लेते हैं ।। १४
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गा० १५-१६-१७-१८ ]
(८) [ उदारता का फल और सु- श्राशय की वृद्धि
लोगे अ साहु-वाओ अ-तुच्छ भावेण 'सोहणी धम्मो ". । “पुरिसुत्तम-पणीओ" पभावणा एवं तित्थस्स ॥ १५ ॥ कंजूसपना न होने से -
"यह धर्म बहुत अच्छा है.” कि जो "पुरुषोत्तम महापुरुषों का बतलाया हुआ है ।" "जिससे दया की प्रवृति सर्वत्र फैलती है" ।
इस प्रकार से लोक में धर्म की प्रशंसा होती है, और
जैन शासन की प्रभावना भी बढ़ती है ॥ १५ ॥ इस प्रकार परोक्ष फल होता है
1
कार्य करों को संतुष्ट रखने का दोनों फल कहा गया । ४. ( मन में ) शुभ भाव की वृद्धि
सा-[सु-आ]SSसय-बुढ्ढो वि इहं भुवण गुरु-जिणिंद गुण परिण्णाए । तबिंब - ठावण-त्थं सुद्ध पवित्तीह नियमेणं. ॥। १६ ।।
१. " संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए प्राणियों को उसे बचने के लिये यही एक सहारा है ।"
इस प्रकार त्रिभुन गुरु श्री जिनेश्वर भगवंतो के गुणों की योग्य समझ पूर्वक उनके प्रतिमाजी की स्थापना करने को शुद्ध प्रवृत्ति की जाती है । जो अवश्य ही शुभाशय की वृद्धि रूप है ॥ १६ ॥ "पेच्छिस्सं एत्थ अह वंदणग निमित्तमाऽऽगए साहू । कय- पुण्णें भगवंते गुण- रयण निही महा सत्ते ॥ १७ ॥ २. "पुण्यशाली, गुण रूपी रत्नों के भंडार, महा सात्विक, दर्शन करने के योग्य और मोक्ष मार्ग के साधक साधु भगवंतो - इस मंदिर में श्री जिनेश्वर देव को वंदना करने के लिए अवश्य पधारेंगे, तब मेरे को भी, इस मंदिर में उन्हीं के दर्शन करने का प्रसंग प्राप्त होगा ही " ॥ १७ ॥
पडिबुज्झिस्संति इह दृहूण जिणिंद - बिम्बम कलंक, । अण्णे वि भव-सत्ता काहिंति ततो परम धम्मं ॥ १८ ॥ ३. मोह रूप महा अंधकार को नष्ट करने में कारण रूप निष्कलंक श्री जिन प्रतिमाजी का इस जिन मंदिर में दर्शन पाकर और भी अनेक लघुकर्मी भव्य आत्माओं प्रतिबोध पायेंगे, और संयम रूप परम धर्म को प्राप्त करेंगे ' ॥ १८ ॥
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[ जिन बिंब कराने का विधि
गा० १९-९०-२१-२२
( ९ )
"
"ता, एअं मे वित्तं जद-त्थ विणिओगमेति अण - ऽवरयं. ” ।
इय चिन्ता - परिवडिया सा- [सु-आ]ssसय बुड्ढी उ मोक्ख फला. ॥ १९ ॥ ५. " इन कारणों से यह मेरा धन प्रशंसनीय है, कि जो सदा इस मंदिर के काम में लगता रहता है । "
इस प्रकार की धारा प्रवाह बद्ध सतत चिन्ता, विचारणा, भावना उत्तम आशयों की वृद्धि रूप ही है ।
इसका फल मोक्ष है ही । । १९ ।।
जिन मन्दिर बनवाने का संक्षिप्त विधि कहा गया । + (५ श्री जिन मंदिर बन जाने के बाद के कर्तव्य - )
. निष्फाइय जयणाए जिण-भवणं सुदर, तहिं बिंबं । fafe कारियमse विहिणा पट्ठविज्जा अ-संभंतो. ॥२०॥ "छाना हुआ पानी आदि का ही उपयोग करना" इत्यादि यतना पूर्वक सुंदर जिन मंदिर बनवाकर, उस मंदिर में -
विधि पूर्वक बनवायी हुई श्री जिनेश्वर भगवंत के प्रतिमाजी को प्रतिष्ठा स्वस्थता से विधि पूर्वक करानी चाहिये ॥ २० ॥
+ (६ श्री जिनेश्वर देव को प्रतिमाजी को कराने का विधि)
जिण - बिंब-कारण-विही, :- काले संपूइऊण कत्तारं । विवोचिअ - मुल्लप्पणमण Sहस्स सुहेण भावेण ॥ २१ ॥
जिन प्रतिमाजी बनवाने का विधि, -
१ बनाने वाले कारीगर को सुगंधि चूर्ण और चन्दनादि से शुभ मुहूर्त में पूजा करनी चाहिये,
२ उस पवित्र कारीगर को शुभ भाव से और सन्मान पूर्वक स्व वैभव के अनुसार मूल्य को धन को अर्पण करना चाहिये ॥ २१ ॥
तारिसयस्सा-भावे तस्सेव हिप-इत्थमुज्जओ णवरं ।
for मेइ बिंब-मोल्लं जहोचियं कालमाSSसज्ज. ||२२||
३ यदि ऐसा पवित्र कारीगर न मिले तो, दूसरे प्रकार के कारीगर की बाधाओं को विधि पूर्वक दूर कर, उसके हित में तत्पर रहना चाहिये ।
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गा० २३-२४-२५]
(१०)
[बिंब प्रतिष्ठा-विधि और समय समय पर जो मूल्य योग्य माना जाता हो, एवं उचित हो, वह मूल्य प्रतिमाजी का निर्माण करने का रुपये आदिक की संख्यादिक से ठहरा लेना चाहिये, जिससे अपने को भी ठगाना न हो, और कारीगर को
भी ठगना न चाहिये । ॥२२॥ * (७ प्रतिष्ठा-विधि)
णिफण्णस्स य सम्म तस्स पइट्ठावणे विही ऐसो, :स-हाणे सुह-जोगे अहि वासणमुचिय-पूआए. ॥ २३ ॥ चिह वंदण-थुइ-बुड्ढी, उस्सग्गो सासण-सूरीए, । थय सरण, पूआ काले, ठवणा मंगल-पुव्वा उ. ॥ २४ ॥ सत्तीए संघ-पूआ, घिसेस-पूआ उ बहु-गुणा एसा.
जं एस सुए भणिओ,:-"तित्थ-यराऽण-रो संघो." ॥२५॥ * सर्व गुण संपन्न प्रतिमाजी को बन जाने के बाद शुभ भाव पूर्वक प्रतिष्ठा कराने
को विधि यह है,(१) जहां वह (प्रतिमाजो) महाराज विराजमान हो वहां जाकर, . (२) (काल की अपेक्षा से) शुभ योग में, (३) स्ववैभव के अनुसार, (४) उचित पूजा पूर्वक अधिवासना करनी चाहिये ॥२३॥ बाद में__ अच्छी तरह से(५) चैत्यवंदना, (६) वृद्धि पूर्वक स्तुति (प्रथम छोटे वृत के श्लोक से, उत्तरोत्तर बड़े बड़े
वृत्त के श्लोक से स्तुति करनी चहिये) जाग्रती पूर्वक(७) शासन देवता का और (८) श्रुत ज्ञान देवता का कायोत्सग करना, (९) स्मरण पूर्वक चतुर्विशति जिन स्तव कहना, (१०) पुष्पादि से पूजा और (११) उचित समय में
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गा० २५-२६-२७]
(११) [श्री संघ-पूजा का अति महत्त्व (१२) श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण पूर्वक (१३) श्री जिन प्रतिमाजी की स्थापना करनी चाहिये, (१४) तथा शक्ति अनुसार और स्ववैभव के उचित श्री संघ की पूजा करनी
चाहिये, क्योंकि-(दिगादि गत) विशिष्ठ पूजा से भी संध पूजा अधिक लाभकारी है। संघ की पूजा का विषय बहुत ही व्यापक है, इससे इसका महत्व बहुत ही है । शास्त्र में भी कहा गया है कि"श्री तीर्थ कर परमात्मा के बाद महत्त्व की वस्तु श्री संघ है।" इससे वह महान है।
विशेषार्थ "व्याप्य से व्यापक का महत्त्व अधिक रहता है" (श्री तीर्थ कर प्रभु स्थापित श्री जैन शासन और श्री संघ व्यापक है, और सभी धर्म प्रवत्ति व्याप्य है
यह रहस्य समझना चाहिये। सं०)॥ २३, २४, २५ ॥ * यही बात आगे कही जाती है,
गुण-समुदाओ संघो. पवयण, तित्यं, ति होइ एग-हा. ।
तित्थ-यरो वि य एअं णमए गुरु-भावओ चेव. ! २६॥ "गुण का समुदाय को संघ कहा जाता है" क्योंकि-संघ के अनेक आत्माओं में सम्यग दर्शन आदि गुण भरे रहते हैं"प्रवचन, तीर्थ” इत्यादि श्री संघ के अनेक पर्याय शब्द है। श्री तीर्थकर परमात्मा भी धर्म कथा का प्रारंभ करने से पहले, गुरु भाव से ही "णमो तित्थस्स" "तीर्थको नमस्कार हो।" एसा कह कर, तीर्थ शब्द से श्री संघ को नमस्कार करते हैं। इस कारण से श्री संघ का बड़ा महत्व है ॥ २६ ॥ * इस विषय में दूसरा भो प्रमाण दिया जाता है,
तप्पुब्धिया अरहया पूइय-पूआ य, विणय-कम्म्मं च । कय-किचो वि जह कहं कहेइ, णमए तहा तित्थं. ॥ २७॥
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गा०-२८-२९ ]
( १२ )
[श्री संघ का महत्त्व अरिहंतपना तीर्थ से प्राप्त होता है, इस कारण से पूजित (तीर्थ) की पूजा की जाती है, जो विनय-कर्म रूप है। कृत-कृत्य होने पर भी जिस तरह तीर्थकर भगवान् धर्मकथा करते हैं, उसी प्रकार (प्रभु) तीर्थको भी नमस्कार करते हैं ॥२७॥
विशेषार्थ १. तीर्थ द्वारा हो धर्मानुष्ठान प्राप्त कर तीर्थ करपना प्राप्त होता है, २. लोक में भी पूजित की पूजा की जाती है । ३. जिससे लाभ प्राप्त हुआ हो उसके प्रति कृतज्ञता धर्म पूर्वक भगवान ने
भी विनय कर्म किया है। ४. वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर प्रभु कृत-कृत्य होने पर भी तीर्थंकर नाम कर्म
का उदय से जिस तरह धर्म कथा रूप प्रवृत्ति करते हैं, उसी तरह तीर्थको भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि इस प्रवृत्ति में औचित्य भी है ।।२७॥ एअम्मि पूइयम्मि, णऽत्थि तयं, जं न पूइयं होइ. .
भुवणेऽवि पूअणिज्जं ण अत्यि ठाणं [ण गुण-हाणं] तओ अण्णं. ॥२८॥ १. उस (श्री संघ को-तीर्थ की) पूजा करने से, (इस विश्व में) एसा कोई भी
पूजनीय नहीं हुआ है, कि जिसको पूजा न हो जाय । २. त्रिभुवन में एसा कोई भी स्थान नहीं है, जो उससे अधिक पूजनीय हो ।॥२८॥
तप्पूआ परिणामो हंदि महा विसयमो मुणेयव्वो. ।
तद्-देस-पूअओ वि हु देवय-पृआ-5ऽइ-णाएणं. ।। २९ ।। १. श्री संघ माहान्-तम होने से, उसकी पूजा का परिणाम होना, यह भी
सचमुच महा विषय रूप है,= अति महत्त्व की वस्तु है। २. उसका एक देश की पूजा भी,- देव के एक देश की पूजा को तरह सर्व पूजा रूप हो जाती है ॥ २९ ॥
विशेषार्थ १ जिस तरह देव के एक भाग की-अंग की-पूजा देव की सर्व पूजा रूप होती है, उसी तरह श्री संघ के एक भाग की पूजा करने से, संपूर्ण श्री संघ की भी पूजा हो जाती है, क्योंकि- संघ एक ही होने से उसका एक भाग भी संपूर्ण माना जाता है।
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गा० ३०-३१ ]
( १३ )
[आगे का पूजा विधि
सु-विशेषार्थ यहां पर समझने का सार यह है, कि-एक विभाग को क्रिया में जिस तरह (सर्व-) देश का परिणाम होता है, उसी तरहव्यक्तिगत क्रिया में नजदीक-पना के सम्बन्ध विशेष से-सभी व्यक्ति सम्बन्धि भी-सामान्य संबन्धि परिणाम भी हो जाता है" यह सिद्धांत सिद्ध करने में कोई मुश्किल बात नहीं है (?) ॥२९।। * फिर भी आगे का पूजा विधि बताया जाता है,
तत्तो य पइ-दिणं सो करिज्ज पूअं जिणिंद-ठवणाए ।
विभवा-Sणुसार-गुरुई काले णियमं विहाणेणं. ।। ३० ॥ प्रतिष्ठा के बाद में श्रावक श्री जिनेश्वर देव की स्थापना की-प्रतिमाजी की१५ प्रतिदिन स्व-विभव अनुसार-योग्य धन व्यय पूर्वक१६ दर रोज-प्रतिदिन, १७ योग्य समय में १८ भोजनादि के समान निश्चित रूप से-अवश्यंतया१९ भव्यता पूर्ण २० अभ्यर्चना रूप २१ पूजा करनी चाहिये ।।३०॥ * जिन पूजा ही बता रहे है,
जिण-पूआए विहाणं,-सूई-भूओ, तए चेय उवउत्तो, ।
अण्ण-उंगम-ऽछिवन्तो करेइ जं [प]वर-वत्थूहि ॥३१ ।। पूजा का विधि१ पूजा करने का उद्देश्य से-उसमें ही उपयुक्त होकर प्राणिधान पूर्वक-दत्त
चित्त वाले-होकर, . २ स्नानादिक से पवित्र होकर, ३ (स्वशरीर के भी) मस्तक आदि किसी भी अंग का स्पर्श न करते हुए, ४ सुगन्ध युक्त पुष्पादि उत्तम पदार्थो से पूजा करनी चाहिये ॥३१॥ * शेष विधि भी यहां बताया जाता है
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गा० ३२-३३-३४ ]
( १४ )
सुह-गंध-धूव- पाणीय- सव्वोसहिमा - SSइएहिं ता पहवणं, ।
कुंकुमगा -ऽऽइ-विलेवणमऽइ-सुरहिं मण-हरं मल्लं ।। ३२ ।।
[ पूजा विधि शास्त्र विहित है
५ शुभ गन्ध वाला धूप,
६ सर्व औषधि आदि से मिश्रित पानी से प्रथम खूब अच्छी तरह स्नान कराना,
७ अति सुगन्धि कुंकुम आदि का विलेपन करना,
८ और ऐसे ही मनोहर मालाएं प्रभु को चढाइ जाय ||३२||
विविह-निवेअणमाSSरत्तिगा SSइ धूव-थय- वन्दणं विहिणा । जह सत्ति गोअ-वाइअ णच्चण दाणा ऽऽइअं चेव ॥ ३३ ॥ ९ विविध प्रकार के नैषध ढौकना,
१० आरात्रिक आदि उतारना,
११ धूप उवेखना,
१२ स्तवन- करना
१३ वन्दना करनी
ये सभी विधि पूर्वक करने चाहिये, और यथा शक्ति-१४ गीत
१५ वाद्य
१६ नृत्य और
१७ दान देना, आदि,
१८ आदि शब्द से - उचित स्मरण करना ।
अर्थात् - जिन पूजा में जो जो उचित हो, उन सभी का स्मरण कर उपयोग में लेना ||३३||
“विहिया - ऽणुडाणमिणं" ति एवमेयं सया करिंताणं ।
होइ चरणस्सू हेऊ. णो इह लोगाद वेक्खाए ॥ ३४ ॥
"
+ "यह शास्त्राज्ञा से विहित-धर्मं अनुष्ठान है ।"
इसी प्रकार मन में बराबर समझकर, सदैव उसको करने वालों के लिए वह
चारित्र का कारण बनता ही है ।
किन्तु - इस लोक के सुख आदि के लिए यदि किया जाय, तो
वह
हेतु भूत नहीं बनता है ।
आदि-शब्द से - कीर्ति आदि की अपेक्षा का त्याग भी समझ लेना नाहिये ॥ ३४ ॥
चारित्र का
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गा० ३५-३६- ]
(१५) . [प्रधान-अप्रधान द्रव्य स्वव
विशेषार्थ "यावज्जीव धर्म की आराधनाउत्तम पुण्य विशेष का और विशिष्ट निर्जरा की कारण बनती है" यह गभित अर्थ समझना चाहिये । ३४.!
एवं चिय भाव-त्थए आणा-आराहणा उ रागो वि.।
जं पुण एय-विवरियं, तं दव्व-थओ घिणो होइ. ॥ ३५ ॥ 1 इस विधि से जिन पूजा- (द्रव्य स्तव) करने पर
आज्ञा की आराधना होती है, और भाव स्तव में-राग भी होता है । * यदि, वह द्रव्य-स्तव भी विपरीतपना से - स्वछंद वृत्ति से -आज्ञा रहित पना से. किया जाय, तो यह [प्रधान द्रव्य स्तव भी नहीं होता है । ।।३५ ।
विशेषार्थ १ द्रव्य पूजा यदि भाव स्तव के राग से किया जाय, तब ही वह द्रव्य स्तव
बनता है, क्योंकि-द्रव्य स्तव भी अपेक्षा से भाव स्तव का एक भाग
रूप ही है। २ तार्किक विद्वानों का भी कहना है कि "सूत्र की आज्ञा सिद्ध द्रव्य स्तव
ही भाव स्तव का कारण बनता है, उत्सूत्र रूप द्रव्य स्तव भाव स्तव का
कारण नहीं बनता है ॥३५॥ * आज्ञा रहित पना से किया गया द्रव्य स्तव को भी यदि द्रव्य स्तव माना जाय, तो दोष बताया जाता है,. भावे अइ प्पसंगो, आणा विवरीयमेव जं किंचि ।
इह चित्ताऽणुट्ठाणं, तं दव्व-त्थओ भवे सव्वं ॥ ३६॥ १ यदि सूत्र की आज्ञा से विरुद्ध जिन भवनादिक को द्रव्य-स्तव के रूप में
माना जाय, तो अतिव्याप्ति दोष आ जाता है। २ इस लोक मेंघर बनाना इत्यादि जो कुछ विविध प्रवत्तियां आज्ञा के विरुद्ध की जाती, वे सभी,द्रव्य स्तव हो जाय, ३ क्योंकि
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गा० ३७-३८-]
( १६ )
[प्रधान द्रव्य स्तव की व्याख्या
द्रव्य स्तव की व्याख्या में-- सूत्राज्ञा पूर्वकता रूप निमित्तविशेष को यदि न रखा जाय, तो, इस प्रकार से संसार की सारी प्रवृत्तियां समान रूप से ही द्रव्य स्तव सिद्ध
हो जाय ॥३६॥ * "इस अतिव्यप्ति दोष के निवारण के लिए क्या क्या विशेषण जोड़ना चाहिये ?" इस प्रकार की शंकाएं उठाकर, कहा जाता है, कि
"जं वीय-राय-गामि, अह तं" 'नणु सिट्टणा-ऽऽदि वि स एवं । सियं ?” "उचियमेव जं, तं,' "आणा-राहणा एवं.” ॥ ३७॥ "जो अनुष्ठान वीतराग गामि हो, उसको द्रव्य स्तव कहा जाय ?" "तो-श्री वीतराग प्रभु की यदि कोई निंदा करे, तो वह कार्य भी वीतराग गामि प्रवृत्ति (अनुष्ठान) बन जाती है । तो-बह कार्य ओर निमित्त न होने पर भी, क्या द्रव्य स्तव हो ही जाय ?" "नहीं" इस कारण से-"जो अनुष्ठान वीतराग गामि हो, और उचित हो,” वह द्रव्य स्तव बनता है । इस प्रकार-"जो अनुष्ठान वीतराग गामि-वीतराग भगवंत के प्रति हो और वही अनुष्ठान उचित भी हो, तो वह अनुष्ठान द्रव्य रतव है," ऐसा कहने से द्रव्य स्तव को निर्दोष व्याख्या बनती है। "तब तो, द्रव्य-स्तव की व्याख्या में उपरोक्त कोई दोष नहीं आता है न ? इस प्रकार से आज्ञा को आराधना अवश्य होती है-दोष नहीं रहता है। "प्रायः" उचित भी वही है, कि-जो आज्ञा सिद्ध हो" यह भाव है ।।३७ ।
विशेषार्थ १ उचित शब्द रखा जाय, अथवा आज्ञा सिद्ध शब्द रखा जाय, वह
समान ही है ॥३७॥ + (अति सूक्ष्म विचारणा) १ इस प्रकार से
१ "आज्ञा शुद्ध हो, . २ वीतराग गामि हो, और
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गा० ३८]
( १७ ) [ द्रव्य-भाव स्तव में भौचित्य ३ भाव-स्तव हेतु-भूत हो,
ऐसा अनुष्ठान हो, ___ यह द्रव्य स्तव है।
यह सार फलित होता है। इस लक्षण में"भाव-स्तव के जो हेतु भूत" यह विशेष्य पद है, उस को रखने का प्रयोजन यह है कि-भाव-स्तव में अति ध्याप्ति न हो। अर्थात्द्रव्य स्तव का लक्षण भाव-स्तव में न चला जाय । किन्तु उस विशेष्य पद को रखने से भाव-स्तव में द्रव्य-स्तव का लक्षण चला जा सकता नहीं। प्रथम के दो विशेषण जो है, वे भाव स्तव में रही हुई जो कार्यता, उसकी हेतुता जो द्रव्य स्तव में रही है, उस हेतुता के स्वच्छेदक धर्म-बनते हैं। अर्थात्जो अनुष्ठान१ आज्ञा-सिद्ध न हो और, २ वीतराग-गामि न हो, वह अनुष्ठान
भाव-स्तव का हेतु हो सकता ही नहीं । आज्ञा सिद्धपना और वीतरागगामिपना ही यहां हेतुता का अवछदक बनता है। वास्तविकतया देखा जाय तो"भाव स्तव को हेतु ही द्रव्य-स्तव का लक्षण ठीक बनता है। इस विषय को यह निम्नोक्त गाथा कुछ विशेष स्पष्ट करती है, ----
"जं पुण एय वियत्री एग ऽतेणेव भाव मुण्णं ति। तं." विसयम्मि वि ण तओ भाव-त्थया-5-हेउओ उचिओ. ॥३८॥
पञ्चा० ६.९ ॥ "जो अनुष्ठापनऔचित्यादि से रहित हो, (जिस अनुष्ठान में औचित्य न हो,)
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गा० ३६]
(१८)
[द्रव्य स्तव में भाव की अल्पता
वह अनुष्ठान-- एकान्त से ही
भाव शून्य होता है, (क्योंकि-वह आज्ञा से निरपेक्ष-आज्ञा से रहित होता है । 'वीतराग-गामि" होने पर भी, वह द्रव्य-स्तव नहीं बन सकता है। क्योंकि-वह भाव-स्तव का हेतु नहीं है, क्योंकि- वह उचित नहीं है,आज्ञा सिद्ध नहीं है । ३८॥
विशेषार्थ ऐसा (भाव-शून्य-भाव स्तव के कारण भूत न बन सके ऐसा जो द्रव्य स्तव हो, उसको-अप्रधान द्रव्य स्तव कह सकते हैं । ( जो भाव स्तव का अंग बन सकता नहीं) ॥ ३८॥ (इसकी विशेष स्पष्टता आगे स्वतंत्र प्रबन्ध से की जायगी) ३८ शास्त्र में१ "द्रव्य" शब्द प्रधान "अर्थ में"
और
२ "अप्रधान" अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अप्रधान=निकम्मा, अनुपयोगी, अधिकृत प्रयोजन रहित ।
इत्यादि अर्थ में प्रयुक्त होता है। (मुख्य फल न मिले, और) .. आनुषंगिक फल मिले, वह तो उचित नहीं है, यह समझाया जाता है,
भोगा ऽऽइ फल विसेसो उ अस्थि एत्तो वि विसय भेएणं, । तुच्छो य तओ. जम्हा हवह पगार-तरेणाऽवि. ॥ ३९ ॥
॥ पञ्चा० ६.२५ ॥ + "कोति आदि जो आनुषंगिक फल मिलते हैं, वे अनुचित हैं।” इसका स्पष्ट कारण दिया जाता है। ..
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गा० ४०-४१ ]
द्रव्य स्तव से वीतराग संबंधी कुछ प्रवृत्ति-विशेष द्वारा विशेष प्रकार के भोगादि सांसारिक ही फल प्राप्त होते हैं, किन्तु वे तुच्छ-नगण्य है ।
क्योंकि वे फल तो अ-काम निर्जरादि और प्रकारों से भी प्राप्त होते हैं । ॥३९॥ * "द्रव्य स्तव में भाव स्तव से उचित अनुष्ठान पना की कौनसी विशेषता है ?" + उस प्रश्न का उत्तर यहां दिया जाता है
उचिया-Sणुट्ठाणाओ विचित्त-जह-जोग-तुल्लमो एस. । जंता कह दव्व-थवो ? तद्-दारेणऽप्प-भावाओ. ॥४०॥
। पञ्चा० ६.१६॥ उचित अनुष्ठानपना से यह द्रव्य स्तव भी शास्त्र विहित होने से, मुनियों के विचित्र (भाव-स्तव)-योग के समान है। "यदि एसा है, तो उसे भाव स्तव ही क्यों न कहा जाय ? और द्रव्य स्तव कसे कहा जाय ? उसका उत्तर"भाव स्तव की अपेक्षा द्रव्य स्तव से अल्प भाव होता है, अर्थात्, उस हेतु से फल कम मिलता है ।। ४० ॥ + "क्योंकि-अधिकारी भेद से अल्प भाव होता है।" यह समझाते हैं
जिण-भवणा'ऽऽइ-विहाण-दारेणं एस होइ सुह जोगो.।। - उचिया-ऽणुट्ठाणं, वि य तुच्छो जह-जोगओ णवरं ।। ४१ ॥
" पञ्चा० ६-१७॥ जिन भवनादि बनवाने के द्वारा यह द्रव्य अनुष्ठान शुभ व्यापार है, और उचित उत्तम-अनुष्ठान भी है । तथापि-मुनि के योग से तुच्छ है, अल्प है। ४१ ॥
३aser 20, विषेशार्थ 3 "मलीन आरंभ को करने वाला गृहस्थ का अन्य स्तव शुभ योग होने पर भी,
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गा० ४२-४३-४४-४५ ] :
( २० )
[ सौषध-विनौषधि से रोग हरण
मुनि का योग से वह बहुत ही अल्प है, और शुभयोग साधर्म्यसे समान भी है ।" यह रहस्य है | ॥ ४१ ॥
+ इस विषय में ओर भी रहस्य बताते हैं,
सव्वत्थ रि-भिसंग तणेण जइ-जोगमो महं होइ. । एसोउ अभिसंगा कत्थइ तुच्छे वि तुच्छो उ. ।। ४२ ।। ।। पञ्चा० ६-१८ ॥
4. जीवन के सर्व प्रसंग में अनासक्तिपना होने से मुनि का योग बड़ा है। और द्रव्य स्तव आसक्ति युक्त आत्मा का होने से तुच्छ वस्तु में भी तुच्छ ही है । ( इस कारण से वह अल्प है ) ।। ४२ ।।
अम्हा उ अभिसंगो जीव' दुसेइ नियमओ चेव. । तद्-सियस्स जोगो विस-घारिय-जोग-तुल्लो उ. ।। ४३ ।।
+ क्योंकि - आसक्ति आत्मा को स्वभाव से ही मलिन बना देती है । उस ( आसक्ति ) से दूषित आत्मा का योग विष से मिश्रित योग के समान है, अर्थात्- अशुद्ध होता है, ॥ ४३ ॥
जहणो अ-दूसियस्स हेयाओ सव्वहा णियत्तस्स | सुडो अ उवावेए, अ-कलंको सव्वहा सो उ. ॥ ४४ ॥
।। पञ्चा० ६ २० ॥
+ हेय तत्त्वों से स्वभाव से ही सर्वथा निवृत्त एवं दूर रहने से, सामायिक भाव में स्थिर रहने से और उपादेय वस्तु में आज्ञा पूर्वक प्रवृत्ति करने से मुनि का योग निर्दोष -शुद्ध होता है । उसी कारण से वह यति- योग सर्वथा निष्कलंक होता है || ४४ ॥
-
विषेशार्थ
" सभी शुभयोग मात्र से जो जो छोटे बड़े फल मिलते हैं, उसके छोटे-बड़े पना का कारण आसक्ति सहकृत शुभ योग, और अनासक्ति सहकृत शुभयोग होता है। इससे शुद्धि और अ-शुद्धि में भेव घटता है ।" यह न्याय का मार्ग है । ४४ + उदाहरण पूर्वक उन दोनों का उपर कहा गया स्वरूप को स्पष्ट करते हैंअ- सुह-तरंडुत्तरण- पाओ दव्व-त्थओऽ-मत्थो य. ।
इयरो पुण ईमाssसु समस्थ [स] बाहु-ततरण- कप्पो. ।। ४५ ।।
।। पञ्चा० ६ २१ ॥
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गा०४६-४७-४८-] . ( २१ ) [ द्रब्य स्तव से भाव स्तव बड़ा है + दोष सह-कृत होने से द्रव्द स्तव अशुभ एवं कांटे से युक्त शाल्मली आदि वृक्ष के तरापा से नदी आदि को पार करने के समान है।
और इस हेतु से वह मोक्ष देने में असमर्थ है । और, भाव स्तव समर्थ बाहु से नदी आदि को तैर जाने के समान है। इस हेतु से- उसे ही मोक्ष होता है ।। ४५ ॥ कडुओ [अ-ओ] सहा-ऽऽइ-जोगा मंथर-रोग-सम-सण्णिहो वा वि। पढमो विणोसहेणं तक्खय-तुल्लो य बीओ.।। ४६ !!
॥ पञ्चा० ६-२२॥ 1 अथवा, पहिला-द्रव्य स्तव, कटु औषधि आदि के योग से आस्ते से होने वाली रोग की उपशांति के समान है, और दूसरा (भाव स्तव) औषध के बिना ही एवं स्वबल से ही रोग का क्षय करने के समान है ॥ ४६ ॥ * अब, दोनों के अलग अलग फल बताये जाते हैं
पढमा उ कुसल-बंधो. तस्स विवागेण सु-गईमा-ऽऽईयो.। तत्तो परंपराए बिईओ वि हु होइ कालेण, ॥ ४७ ।।
॥ पश्चा० ६.२३ ।। पहिला-द्रव्य-स्तव-से सरागता का योग होने से कुशल बंध-अर्थात् पुण्य बन्ध होता है। . और इस कुशल बन्ध का विपाक से सु-गति आदि-एवं संपत्ति, विवेक आदि को प्राप्ति होती है। उस द्रव्य स्तव के अभ्यास के बल से कालक्रम से दूसराभाव स्तव-भी प्राप्त होता है । ४७ ।।। * और विशेष प्रकार से यह निम्नोक्त भी कहा जाता है,
जिण-बिष-पइहावण-भाव-ऽज्जिय-कम्म-परिणइ-वसेणं । सु-गइअ पह-छावणमण-ऽहं सह अप्पणो जम्हा. ॥ ४८ ।।
। पच्चा० ७-४५ ।। + क्योंकिजिन प्रतिमाजी महाराज को प्रतिष्ठा कराने की जो भावना, उसे उपाजित किये हुए (शुभ) कर्म परिणाम के बल से-अर्थात्-और भी बहुत कारण-सामन्त्री
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गा० ४९-५०-५१-५२ ]
(२२)
[ अट्ठारह सहरस शीलांग
मिलने से आत्मा की सु-गति में सदा पवित्र प्रतिष्ठापना होती है ।। ४८ ॥ + ओर भी विशेष कहा जाता है, कि
तत्थ-वि य साहु- दंसण-भाव- Sज्जिय-कम्मओ उ गुण-रागो । काले य साहु-दंसणं जह-क्कमेण गुण-करं तु ॥ ४९ ॥
·
।। पञ्चा० ७.४६ ॥
ओर - सुगति में भी साधु पुरुषों का दर्शन की भावना से जो कर्म उपार्जित होते हैं, उसे गुणों का राग उत्पन्न होता है । और कालान्तर में साधु महात्माओं का दर्शन होता है। उस कारण से उसी क्रम से वह भी लाभ का कारणभूत होता है ॥ ४९ ॥
" पडिवुज्झिरसंतपणे" भाव -ऽज्जिय-कम्मओ उ पडिवत्ती. । भाव-चरणस्स जायइ. एअं चिय संजमो सुडो. ॥ ५० ॥
।। पश्चा० ७ ४७ ॥
+ "इस मंदिर में आ कर जिन प्रतिमा जी के दर्शन से अनेक आत्मायें प्रतिबोध पायेंगी. " इस प्रकार का जो भाव रहा था, उससे बन्धा हुआ कर्म के बल से मोक्ष का अपूर्व हेतु रूप भाव चारित्र की प्राप्ति होती है । यही भाव चारित्र रूप ही शुद्ध संयम है ॥ ५० ॥
भाव-त्थओ अ एसो थोअव्वोचिय प्पवत्तिओ णेओ ।
रि-sवेक्खा SSणा करणं कय- किच्चे हंदि उचियं तु. ॥ ५१ ॥
+ स्तुति करने के योग्य के प्रति प्रवृत्ति रूप होने से शुद्ध संयम को ही भाव-स्तव समझना चाहिये । कृत-कृत्यों के प्रति एवं स्तुति योग्य के प्रति निरपेक्षपना से आज्ञा का पालन करना ही उचित है, और कुछ भी उचित नहीं है। क्योंकिसांसारिक भाव के प्रति निरपेक्ष भाव उसे प्राप्त हुआ करता है ॥ ५१ ॥
एअं च भाव- साहुं [हु] विहाय, नऽण्णो चएइ काउ' जं [जे] । सम्मं तग्गुण- नोणा-ऽ- भावा सह कम्म- दोसा य. ॥ ५२ ॥ ।। पञ्चा० ६-२५ । + इस प्रकार, आज्ञा का पालन करने का कर्त्तव्य साधु को छोड़कर, दूसरा कोई पामर आत्मा अच्छी तरह से कर पाता नहीं । क्योंकि उस आज्ञा का पालन
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गा० ५३-५४-]
( २३ ) से जो लाभ होता है, उसे वह अज्ञात स्थिति में रहता है। और चारित्र मोहनीय कर्म का उदय से भी वह उसको अच्छी तरह से कर सकता नहीं॥५२
विशेषार्थ इस प्रकार, आज्ञा का पालन करने के लाभों का ज्ञान न होने से, आज्ञाका पालन करने पर भी "रत्न परिक्षा" का न्याय की तरह, बुद्धि को लगाने को आवश्यकता रहती है । (जिस तरह रत्न परीक्षा करने का सिखने वाले को सदैव रत्न परीक्षा करने का अभ्यास करना पड़ता है, और जो बुद्धिमान होता है-पारंगत होने की बुद्धि रखता है-वही रत्न परीक्षा में पारंगत हो सकता है । तथा प्रकार की बुद्धि के सिवाय रत्न परीक्षा में प्रवीण होना मुश्किल है, नहीं हो सकता है ।। ५२ ।। : "आज्ञा का पालन इतना मुश्किल क्यों है ?" इसका कारण कहा जाता है,
जं एअं अट्ठा-रस-सील-उंग-सहस्स-पालणं णेयं ।
अच्चऽत-भाव-सारं. ताई पुण हुंति एआइं- ॥ ५३ ॥ क्योंकि-यह अधिकृत आज्ञा का पालन अत्यन्त भाव सार रूप-अट्ठा-रह सहन शीलांगो का पालन रूप समझना चाहिये । वे शीलांग बताये जाते हैं। वे शीलांग इस प्रकार है, ।। ५३ ।।
शीलांगो का स्वरूप __ जोए करणे सण्णा इंदिय-भीमा-ऽऽह समण-धम्मे य.। . सील-इंग-सहस्साणं अट्ठा-रसगस्स णिप्फत्ती. ॥ ५४ ।।
पञ्चा० १४-३ ॥ मन आदि का व्यापारमन आदि करणआहार की इच्छा आदि संज्ञाएं - (४) स्पर्शन आदि इन्द्रियांभूमि आदि-पथ्वीकाय, अपकाय, तेजः काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, और अजीघ । (१०) और क्षमा आदि श्रमण धर्म (१०)
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गा० ५५-५६-५७- ]
( २४ ) यह सब मिलकर अट्ठारह हजार भेदों बन जाते हैं, जो चारित्र के कारण है। ३ x ३ x ४ x ५४ १० x १० = (१८०००) गाथा का अर्थ ॥ ५४ ।।
करणा-ऽऽइ तिण्णि, जोगा मणमा-ऽईणि उ हुँति करणाई. । आहारा-ऽई सण्णा, सवणा [सोत्ता] •ssइं इंदिया पंच, ।। ५५॥ भोमा-ऽऽइ णव अ-जीव-काओ अ, पुत्थ-पणगं च,। खंता-ऽऽइ-समण धम्मो. एवं सइ भावणा एसी-।। ५६ ॥
पञ्चा० १४-१५ ॥ यह दोनों गाथा का अर्थ स्पष्ट ही है, किरण आदि तिन-स्वयं किया गया हो, अन्य से कराया गया हो, और अनुमत किया गया हो (२) मन आदि तिन योग - मन वचन और काया रूप तिन साधन (३) आहारादि संज्ञाएं-आहार-भय-मैथुन-परिग्रह (४) श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियां-स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः- श्रोत्र (५) . उत्तरोत्तर “सोलांग गुणों को प्राप्ति से शीलांग प्राप्त होते हैं" यह बताने के लिए इन्द्रियों का पश्चात् क्रम बताया गया है।" भूमि आदि नव-पृथ्वीकाय्-अपकाय, तेजः काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, पन्चेद्रिय, (९)
और पुस्तकादि पञ्चक अजीव कायपुस्तक, चर्म, तृण, सुषिर,.. ......रूप (९+ १ = १०) क्षमा आदि दश श्रमण धर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति निर्लोभता, तपः, संयम, सत्य, शौच, अकिञ्चनता, ब्रह्मचर्य ( ब्रह्मचर्य पूर्वक-गुरु कुलवास में रहना (१०) इस प्रकार के अट्ठारह हजार शीलांग की घटना इस प्रकार है ।५६।।
[भोमा-ऽऽह-णव जीवा, अ-जीव-काओ य, समण धम्मो उ ।
खंता-ऽऽइ-दस-पगारो, एवं ठीए भावणा एसा, ।। ५७ ।। भूमि आदि नव जीवकाय और अजीवकाय, क्षमादि दश प्रकार के श्रमण धर्म, इस प्रकार होने से शीलांगों को घटना निम्न प्रकार से होती है ।।५६॥]
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गौ० ५७-५८-५९-६० ]
(२५)
[ शीलांग स्वप घटना इस प्रकार से की जाती है -
ण करेइ मणेणा-ऽऽहार-सण्णा विप्पजदगो उ णिय मेणं। सोइंदिय-संवुडो पुढवी-काय आरंभं खति-जुओ. ।। ५७ ।।
पञ्चा० १४.६ ॥ न करना, मन से, आहार संज्ञा का नियम से त्याग कर, श्रोत्र इन्द्रिय का संवरण करके,
पृथ्वी काय का आरंभ,
'क्षमा से युक्त होकर, ॥५७। इय मद्दवा-ऽऽइ-जोगा पुहवा-काये हवंति दस भेया.। आउ-कायाऽऽईसु घि. इय ए ए विडियं तु सयं. ॥ ५८ ॥
पञ्चा० १४.७।। इस प्रकार मार्दवादि श्रमण धर्म से युक्त होकर, पृथ्वीकाय का आरंभ का त्याग करने का दश भंग होता है । इस प्रकार अपकायादि से घटना करनी । इस प्रकार सब मिलाकर एक सो भंग होते है ।। ५८॥
सोई [अ-इं] दियेण एअं, सेसेहिं वि जं इम, तओ पंच। . आहार-सण्ण-जोगा इय, से साहिं, सहस्स दुगं. ॥ १९॥
पञ्चा. १४.८॥ इस प्रकार श्रोत्र इन्द्रिय से (१००) भंग हुए, इस प्रकार-ऐसे हो सो-सो भंग शेष इन्द्रियों से करने से पांच सो होता है। ये आहार संज्ञा का त्याग से (५००) हुए. और भय आदि संज्ञा का त्याग से दो हजार भंग होते हैं।
एवं मणेणं, वयमा-ऽऽइएसु. एअंनि, हस्सहस्साई। ण करणं, सेसेहिं पि य, ए ए, सम्वेवि अट्ठारा. ॥ ६०॥
पश्चा० १४९॥ इस प्रकार मन से (२०००) भंग हुए। इस प्रकार वचन और काया से मिलाकर छःजार भंग न करने के हुए। . .
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६०-६१ ]
( २६ ) __. [शीलांग स्वरूप और न कराने का, न अनुमोदना करने का. सब मिलाकर अट्ठारह सहस्र हुए ॥ ६० ॥
स्पष्टार्थ १ आहार संज्ञाका २ मन से त्याग कर ३ क्षमा युक्त होकर ४ श्रोत्र इन्द्रिय से ५ पृथ्वीकाय का आरंभ ६ न करना । इस प्रकार एक भंग हुआ। मार्दवादि दश श्रमण धर्म से भंग १० अपकाय आदि दश का आरंभ न करनाश्रोत्र इन्द्रिय से भंगसभी इन्द्रियों से---
और सभी संज्ञा का त्याग से--
२०००
x३
६०००
वचन और काय योग के भंग मिलाकरन करना, और न कराना, न अनुमोदित करने का, छ-छ हजार सब मिलाने से
१८०००
॥६०॥
इत्य इमं विण्णेयं अइदं-पज्जं तु बुद्धिमंतेहिं. । एकम्मि वि सु-परिसुद्धं सोल-इंगं सेस-सम्भावे. ।। ६१ ॥
पञ्चा० १४-१० ॥ • इस विषय में, बुद्धिमान पुरुषोंने, ऐदम्पर्य अर्थात्-रहस्य-यह समझने का है,-"सभी शीलांग होने पर ही एक शीलांग अवश्य परिशुद्ध हो सकता है। अर्थात-उसको तब शीलांग कहा जाता है। * यहां, बुद्धिमान पुरुषों को रहस्यमय बात यह समझनी चाहिये, कि"सर्व शीलांग होने पर ही एक शीलाङ्ग परिशुद्ध हो सकता है, अन्यथा, एक भी परिशुद्ध नहीं होता" ॥ ६१ ॥ * इस विषय में दृष्टांत बताया जाता है, कि
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गा० ६२-६३ ]
( २७ ) [शीलांगो का अखंडपना इक्को वाऽऽय-पएसो अ-संखेअ-पएस-संगओ जह उ, एअंपि तहा णेयं, स-तत्त-याओ इयरहा उ. ॥ ६२॥
. पश्चा० १४-११।। जिस तरह, असंख्य प्रदेशी एक ही अखंड आत्मा है, एक भी प्रदेश को . न्यूनता से आत्मा नहीं होता है, उसी तरह, एक भी शिलांग, अन्य सभी शीलांग के बिना-एक भी शीलांग भूत-नहीं होता है। यदि ऐसा न हो, और एक भी शीलाङ्ग केवल हो सके, तो एक प्रदेश की आत्मा भी रह सके.किन्तु, ऐसा संभवित नहीं. एक प्रदेश का अभाव से आत्मा नहीं हो सकती है, उसी तरह एक शील भी रह सकता कहीं ।। ६२ ।।
. विशेषार्थ "समुदायो-यानि अखंड पदार्थ-समुदाय पूर्वक ही अपना अस्तित्व रख सकता है।" यह सिद्धांत है । (कई ऐसे यंत्र होते हैं, कि-यदि इस यत्र के अलग अलग विभागों की-अवयवों की-ऐसी योजना रहती है, कि एक छोटा भी भाग हट जाय-निकल जाय-तो सारा यंत्र काम के लिए असमर्थ हो जाता है) ।।६।। + उसकी ही स्पष्टता की जाती है,
जम्हा समग्गमेयंपि सम्व-सा-5-वज्ज-जोग-विरईओ. । तत्तेणेग-स-रूवं ण खंड-रूवत्तणमुवेइ. ॥ ६३ ॥
पञ्चा० १४-१२ ॥ सर्व सावद्य योगों को संपूर्ण विरति रूप जो अखण्ड धर्म है, उसका अस्तित्व एक भी शीलांग न रहने से बन सकता नहीं। क्योंकि - एक भी शीलांग न रहने से-वह विरति नहीं रहने से, अर्थात्-सर्व सावद्य योगों की संपूर्ण सर्वविरति नहीं रहती है, उसको सर्व सावध योगों की विरति नहीं कहा जा सकती है। उसी कारण से-सर्व सावद्य योगों की विरति, स्वरूप से-तत्त्व से-एक रूप ही है । अखंड स्वरूप से हो सर्व सावध योग को विरति का स्वरूप को वह प्राप्त कर सकता है, अन्यथा, नहीं प्राप्त कर सकता है ।। ६३ ।।
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गा० - ६४-६५ ]
( २८ )
विशेषार्थ
उसी कारण से उसका कोई भी अंग केवल एक पृथक् - शीलांगपना से रहता
-
नहीं - संभवित होता नहीं ॥ ६३ ॥
+ यहां प्रश्न किया जाता है.
कि
+ उसका उत्तर, -
[ शीलांगो का अखंडपना
-
[ श्री मुनिराज को ] विहार में नदी को पार करना पड़ती है, तब जल जीवों की हिंसा होती हो। वहां अखण्डितता किस तरह टिक सकती है ? वहां, अखण्डितता अवश्य बाधित हो जाती है, तो सभी शिलाङ्ग चले जाने से भ्रमण पना ही सर्व सावद्य विरति ही किस तरह टीक सकती है ? ।
एअं च एत्थ एवं विरइ-भावं पडुच्च दट्ठवं, :
ण उबपि पवित्ति, जंसा भावं विणा विभवे ।। ६४ ।
पञ्चा० १४-१३ ॥
यहां पर ऐसा समझना चाहिये, कि
सर्व सावद्य की विरति रूप एक ही यह शोल समझना चाहिये । अर्थात्आंतरिक विरति भाव की अपेक्षा से अखंड समझना चाहिये ।
बाह्य प्रवृति की अपेक्षा से (अखंड) नहीं समझना चाहिये । क्योंकि - बाह्य प्रवृत्ति आंतरिक भाव बिना भी संभवित हो सकती है । इस कारण से—
मुनिराज को नदी को पार करना हो, उस प्रसंग में द्रव्य प्रवृत्ति से बहार से - अपकाय जीवों की विराधना का आरंभ दोष का संभव दिखाई देता है, तथापि प्रमाद न होने से भाव से शीलाङ्ग का भंग नहीं होता है, किन्तु पालन ही होता है । अर्थात्-सभी शोलाङ्ग अखण्डित रहने से सर्व सादद्य योग की निवृत्ति रूप अखण्ड चारित्र रहता है || ६४ ||
+ जिस तरह
जह उस्सग्गम्मि ठिओ खित्तो उदगम्मि केण वि तवस्सी । तवू - वह पवित्त काओ अनलि-भावोऽ-पवत्तओ अ. ॥ ६५ ॥
पञ्चा० १४-१४ ।
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६५ ]
( २९ )
जिस तरह कोई अबुध व्यक्ति अज्ञानता से, कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित कोई मुनिराज को उठाकर जलाशय में फेंक देवे, उस समय उक्त मुनिराज का शरीर से पानी को धक्का लगे, और उससे अपकाय जीवों का वध हो जाने की पूरी संभावना है. - होता है। तथापि उस महात्मा का अहिंसक भाव अचलित रहने से वह स्वयं हिंसा में प्रवृत्त नहीं होने से शीलांग का खण्डन में प्रवृत्त
-
नहीं है ।। ६५ ।।
-
विशेषार्थ
क्योंकि - माध्यस्थ्य भाव को टोकाई रखने से - अखण्डितता टीक रहती है । स्व बुद्धि पूर्वक दोषयुक्त को गई प्रवृति को ही दोषित प्रवृत्ति कहा जा सकती है ।
श्री धर्मसागर उपाध्यायजी महाराज का जो मत है, -
"उस हिसा में मध्यस्थ मुनिराज का कायादिक का योग कारण भूत नहीं है, किन्तु, जिसकी हिंसा होती है, उस (अपकाय जीव) का योग उसमें कारण भूत रहता है । उसी कारण से - मुनिराज का शील का भंग नहीं होता है ।" यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें अति प्रसंग- अति व्याप्ति-दोष आता है । और
"एगया गुण समीपस्स रीअतो काय-संफास समपुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंतित्ति ।*
]
[ श्री आचारांग सूत्र-सूत्र १५८, अ०५, उद्दे० ४. पृ० २१० इस प्रकार के - आगम सूत्र से विरोध आता है । योग युक्त की काया का स्पर्श में एक काय योग का ही व्यापार रहता है ।
इस विषय को चर्चा का विस्तार दूसरे स्थान पर ग्रन्थान्तर में किया गया है (प्रायः स्वोपज्ञ धर्म परोक्षा वृति में (?) ।
* इस सूत्र की वृति का भावार्थ:
एगया = कीसी समय पर
बुन समियस्स= गुणों से युक्त अप्रमत्त मुनिराज को
पौषमाणस्स = सम्यग् अनुष्ठान में उपयुक्त रहने से - ( अर्थात्- )
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गा०६५- ]
(३०)
[ सूत्र प्रामाण्यः
AD
racere
अति-क्रमण करने वाले की, परिक्रमण करने वाले की, (अंगो का) संकोच करने वाले की,
प्रसारण-फैलावा करने वाले की,
पीछे घुमने की प्रवृत्ति करने वाले की, और-संपरिमार्जन-प्रमार्जन-करने वाले की, कीसी भी अवस्था मेंकाय = शरीर, तत्संस्पर्शमनुचीणी:
उसके स्पर्श को प्राप्त हुए,-शरीर के साथ का संयोग को प्राप्त हुए,-ऐसे संगातिम-आदि-जीवों-हो,
अर्थात्-अप्रमत्त मुनिराज की कीसी भी प्रवृत्ति से उन्हीं की काया की साथ संपातिमउड़ते हुए जोवों-आदि जीव का संयोग हो जाय, और,उसमें से कोई परिताप को प्राप्त करे,
" म्लान हो (करमा) जावे,
और मरण के पूर्व की स्थिति की प्राप्ति के विषय में तो-सूत्रकार भगवंत स्वयं सूत्र से ही बतलाते हैं, किएगया पाणा उद्दायंति = प्राणों से वियुक्त हो जाय-मरण प्राप्त कर ले, इस विषय में कर्म के बंध में विचित्रता रहती है, उस की समझ इस प्रकार है१ शंलेशी अवस्था में-मच्छर आदि के साथ काया का संपर्श से प्राण का त्याग हो जावे, वह मर भी जावे, तो भी, कर्म का बन्ध होता नहीं, क्योंकि-कर्म बन्ध के आदान कारण रूप योग नहीं रहता है। (२-३-४) उपशान्त और क्षीण-मोही, तथा सयोगी केवल ज्ञानी भगवंतो को-एक समय काकर्म का बन्ध होता है, क्योंकि-स्थिति बन्ध के योग्य-अध्यवसाय-उन्हीं को न होने से, स्थिति का बन्ध होता नहीं, (मात्र प्रदेश बन्धं ही होता है, जो उसी समय में निवृत्त हो जाता है।) (५) अप्रमत्त मुनिराज कोजघन्य से-अन्तमुहूर्त प्रमाण-स्थिति होती है, और उत्कृष्ट से-अंत: कोटा कोटि ( वर्षों ) की स्थिति प्रमाण बन्ध होता है। (६) प्रमत्त योग में रहे हुए श्रात्मा कोअनाकुहिक पना से-स्वयं सामने हो कर प्रवृत्ति न करने से- प्राणी का अवयव का संस्पर्श होने से-प्राणी को पीड़ा-आदि होने से१ जघन्य-कर्म बन्ध होता है, और उत्कृष्टता से-प्रथम का जो विशेष विशेष हो, वह बन्ध होता है।"
(परम पूज्य आचार्य महाराज श्री विजय धर्म सूरि महाराज श्री की कृपा से वृत्ति का भाग की प्राप्ति -संपादक)
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- गा० ६६-६७-].. ( ३१ ) आज्ञा से अविराधक भाव
"बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति न हो, ऐसे दृष्टान्त में, और बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति हो, ऐसे प्रसंग में भी-एवं दोनों में माध्यस्थ्य रूप एक ही हेतु रहता है ॥६५॥ * यह घटाकर बतलाया जाता है,
एवं चिय मझ-त्यो आणाइ उ कत्थइ पयट्टतो! सेह-गिलाणा-ऽऽहऽहा, अ-पवत्तो चेव गायवो. ॥६६॥
. पश्चा० १४.१५ ।। इस प्रकार, मध्यस्थ भाव रखकर, आज्ञा से किसी भी (सावद्य) प्रवृत्ति में प्रवृत्ति को जावे-जैसी कि-नवीन शिष्य, रोगो मुनि आदि के पुष्टालंबन पाकर, उसके लिए महत्व के कारण विशेष में (आज्ञा पूर्वक) कुछ भी प्रवृत्ति करनी पड़े, तथापि, उस मुनि को अप्रवृत हो समझा जाता है। ज्ञानादिक की प्राप्ति के लिए भी जो प्रवृत्ति की जावे, वह-बहार से आश्रव रूप दिखाई देने पर भी-परिश्रव-(अनाश्रव-संवर-निर्जरा) रूप रहने से, सर्व सावद्य योग विरति को अखण्डितता में क्षति आती ही नहीं ।। ६६ ॥
आणा-पर तंतो सो, सा पुण सव्व-ण्णु-वयणओ चेक.। एगात-हिया विज्जग गाएणं सव्ध-जीवाणं. ॥६७ ॥
॥पञ्चा० १४-१६ ।। * इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाले श्री मुनिराज, आज्ञा से परतंत्र होकर प्रवृत्ति करते हैं, उसे वह सदोष नहीं होती है ।
आज्ञा भी श्री सर्वज्ञ भगवंत के वचन से ही की गई हो। जिन आज्ञा तो एकान्त से ही सुवैद्य की तरह, सर्व जीवों के हितों को करने वाली रहती है ।।.६७ ॥
विशेषार्थः वह हित भी सर्व जीवों का होता है, क्योंकि-आज्ञा से होने वाला उपकार दृष्टि भी रहता है, और अदृष्ट भी रहता है । अर्थात्-वह उपकार देखने मेंआवे, न भी आवे । तथापि-अवश्य होता रहता है । ६७ ॥
भावं विणा वि एवं होइ पवित्ती. ण पाहए एसा।
सम्पत्य अणा-ऽभिसंगा विरह-भावं सु-साहूस्स. ॥ ६८॥ .. .
॥ पञ्चा० १४.१७॥
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गा०६९ ] .
- ( ३२ ) [ उत्सूत्र प्रवृत्ति से कर्म बन्ध * विरुद्ध भाव बिना भी प्रवति होती है, सर्वत्र अनासक्त भाव से की जाने वाली-ऐसी प्रवृत्ति - उत्तम साबु का विरति भाव की बाधक नहीं होती ॥ ६८ ॥
विशेषार्थ मोक्ष रूप उपेय, और उसके उपाय रूप शुद्ध चारित्र, उसकी इच्छा से रहित जो भाव, अर्थात् संसार की आसक्ति रूप जो भाव हो, वही कर्म बंध का कारण बनता है, किन्तु -अनासक्ति युक्त प्रवृत्ति कर्म के बंध का कारण भूत नहीं होती है । यह रहस्य है ।। ६८॥ उस्सुत्ता पुण बाहह स-मइ-विगप्प-सुद्धा वि नियमेणं. । गीय णिसिड पवज्जण-रूवा णवरं गिरऽ-णुबंधा. ॥ ६९ ।।
पञ्चा० १४-१८॥ * स्वमति कल्पना से. "शद्ध है" ऐसी समझ होने पर भी, जो प्रवृत्ति उत्सूत्रसूत्राज्ञा से विरुद्ध हो,-वह तो पिरति भाव को बाधा पहुंचाती ही है। वास्तव में-वही अशुद्ध ही होती है। शास्त्र के वचन है, कि"सुदर-बुद्धि कयं पहुयपि ण सुंदरं होइ " .
[श्री उपदेश माला] (मात्र) "सुदर बुद्धि से किया हुआ कार्य बहु होने पर भी, सुंदर नहीं हो सकता है।" और, गीतार्थ महापुरुषों ने जिस प्रवृत्ति को करने का निषेध किया हो, उसकी आज्ञा को मान्यकर उसको न करने से-उस प्रवृत्ति-आज्ञा पालन रूप-अनाग्रह बुद्धि से की जावे, तो कर्मबन्ध को परंपरा से रहित रहती है ।। ६९ ॥
विशेषार्थ एक वख्त भूल हो जाने पर, गीताथं गुरु को उसको न करने की आज्ञा हो जाय-निषेध किया जावे, तो उसका स्वीकार कर, पुनः ऐसी झूलन की जावे, तो कर्मबन्ध की परंपरा चलती नहीं। क्योंकि ऐसा सरल आत्मा समझाने से
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गा० ७०-७१- ]
( ३३ )
[गीतार्थ-निश्रित-मुनि
समझाने वाला रहता है, ऐसी उस की सरल और समझदारी रखने की प्रकृति रहती है, जिससे कर्म बन्ध का अनुबन्ध रहता नहीं ।। ६९ ।। इअरहा उ, अभिणिवेसा इयरा, ण य मूल-छिज्ज-विरहेणं. । होएसा एत्तोच्चिय पुव्वा-ऽऽयरिया इमं चाऽऽहु.:-॥ ७० ॥
पच्चा० १४ १९॥ दूसरी रीति से (विचार किया जावे, तो-) गीतार्थो ने जिसका निषेध किया हो-जो कार्य करने की मनाई को हो, उसको करे, अर्थात्-मनाई का स्वीकार न कर, उसको करे, अर्थात्-स्वाग्रह के वश वर्ती होकर,-मिथ्या आग्रह से उस कार्य किया जावे, तो वह प्रवृत्ति-कर्म बन्ध की परंपरा को चलाने वाली ही होती है।
क्योंकि-ऐसी प्रवृत्ति संसार का मूल को उछिन्न करने वाला चारित्र गुण के अभाव बिना नहीं हो सकती है । अर्थात्-चारित्र पात्र यानि चारित्र गुण प्राप्त-आत्मा ऐसी प्रवृत्ति किसी भी हालत में कर सकता नहीं हैउसे, वह नहीं ही हो सकती है।
निषिद्ध प्रवृत्ति भी स्वाग्रह से की जावे तो. उस प्रवृत्ति को सानुबन्ध प्रवृत्ति कहा जाती है। क्योंकि उससे कर्म बन्ध को परंपरा चलती है ॥७०॥ * इस कारण से ही श्री पूर्वाचार्य भगवंतो ने निम्न प्रकार की व्यवस्था बतलाई है,
"गीअ-ऽत्यो य विहारो, बीओ गोअ-ऽत्थ-मो नि) सिओ भणिओ. । इत्तो तहय विहारो णा-Sणुण्णाओ जिण वरेहिं. ।। ७१ ।।
॥ पञ्चा० १४-२० ॥ गीतार्थ का जो विहार है, वह एक है, क्योंकि-गीतार्थ और उसकी प्रवत्ति, उन दोनों का अभेद उपचार कर, दोनो को एक ही रूप से कहे गये हैं। दूसरा-गीार्थ निश्रित का विहार कहा गया है । गीतार्थ की आज्ञा में रहा हुआ आत्मा का विहार-मुनि जीवन-कहा गया है । उन दोनों विहार से रहित तीसरा विहार ( श्रामण्य ) श्री जिनेश्वर देव ने फरमाया ही नहीं।
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गा० ७२-७३-७४-]
( ३४ ) [गीतार्थ-और तन्निश्रित की चर्या (यहां पर, विहार शब्द का अर्थ-जिस चर्या से साधु जीवन बना रहे, उस जीवन को समझना चाहिये ॥ ७१ ॥ * इस गाथा का भावार्थ समझाया जाता है
गीअस्स ण उस्सुत्तो. तज्जुत्तस्सेयरस्स वि तहेव. णियमेण चरणवं, जं. न जाउ आणं विलंघेइ.।। ७२ ॥
पञ्चा० १४.२१ ।। श्री गीतार्थ की प्रवृत्ति उत्सूत्रप्रयुक्त नहीं रहती है. और गीतार्थ युक्त-यानिगीतार्थ की आज्ञा में जो निष्ठ हो, उस दूसरा की भी प्रवृत्ति ऐसी ही रहती है। (अर्थात्-ससूत्र ही रहती है, उत्सूत्र रूप नहीं रहती है, आज्ञा युक्त रहती है ।) क्योंकि-चारित्रवंत आत्मा आज्ञा का उल्लंघन कभी भी करता ही नहीं। क्योंकि-चारित्रवंत आत्मा अज्ञान और प्रमाद से रहित होता है, अर्थात्ज्ञान और अप्रमाद से-जागरुक भाव से-युक्त रहता है। यह रहस्य है ॥७२॥
ण य गीअ-ऽत्थोअण्णं ण णिवारेइ जोग्गयं मुणेऊणं.। एवं दोण्हं वि चरणं परिसुद्ध, अण्णहा णेव. ।। ७३ ।।
पश्चा० १४-२२ । : अहित में प्रवृत्ति करने वाला अगीतार्थ-अजाण आत्मा को गीतार्थ गुरु अहित से रुकावट नहीं करते हैं, ऐसा नहीं, अहित से रुकते ही हैं, । क्योंकिरोकने योग्य की योग्यता समझकर रुकावट की जाती है ।
और-वह आत्मा रुकावट का स्वीकार भी कर लेती है। इस कारण से दोनों का ही चारित्र सुपरिशुद्ध रहता है ।। ७३ ।।
विशेषार्थः १ एक-अहिल मार्ग से रुकावट करता है, २ दूसरा-उसको मान्य कर लेता है, जिससे-दोनों का चारित्र शुद्ध होता है ।
जो ऐसा न करे, तो वे दोनों ही शुद्ध चारित्र रहित होते हैं ।। ७३ ।। + (उपसंहार)
ता, एवं विरह-भावो संपुण्णो एत्थ होइ णायव्यो ।। णियमेणं अट्ठा-रस-सील-उंग-सहस्स-रूवो उ. ।। ७४ ।।
॥ पञ्चा० १४-२३ ॥
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गा० ७५ ]
इसी कारण से
इस स्थिति में संपूर्ण विरति भाव को अवश्य होने का समझ लेना चाहिये । जो अठारह हजार शीलांग रूप है । सभी पाप की विरति का परिणाम एक रूप होने से वह भाव भी एक रूप ही है । यह रहस्य है ।। ७४ ।।
( ३५ )
[ विरति भाव का एकपना
उणतं ण कयाइ वि इमाणं, संखं इमं तु अहिगिन्च, जं, एय धरा ते णिद्दिट्ठा बंदणिज्जा उ. ॥ ७५ ॥
पञ्चा० १४-२४ ॥
( इसी कारण से ) संख्या की अपेक्षा से शीलाङ्गो की न्यूनता कदापि भी हो सकती नहीं । उसी कारण से श्री [प्रतिक्रमण ] सूत्र में अठारह हजार शीलाङ्ग को धारण करने वाले श्री मुनिराज को वंदन करने योग्य बतलाये है, ( अन्य को (ऐसी) वन्दना नहीं की जाती है )
"अट्ठारस - सहस्स-शील Sगखरा । "
( अड्डाइज्जेसु० [० सूत्र - आवश्यक सूत्र में )
"अट्ठारह हजार शीलाङ्ग के धारक ( मुनिवरों को वंदना ) " इत्यादि वचन के प्रमाण से -सूत्र में वन्दना की गई है ।। ७५ ।।
विशेषार्थ
यहां पर समझने का यह है, कि कुच्छ अल्प अंश में एक आदि उत्तर गुण की न्यूनता होने पर भी, मूल गुणों की स्थिरता की अपेक्षा से, चारित्र शील की योग्यता से शीलांगों की संख्या की पूर्ति समझने की है । प्रतिज्ञा के काल के अध्यवसाय स्थान को, और पीछे से अन्य काल के अध्यवसाय स्थान को
――
षट् स्थानक पतित होने पर भी, आगे कहा गया मुजब
( आत्म प्रदेश के दृष्टान्त से - अखण्डितता ) समानता घटती है ।
और
"संजम-ठाण-ठियाणं किहकम्मं बहिरोण भहअव्वं ।"
[
]
वंदना में भजना रहती है, वंदना के भेद पड़ते हैं (?)”
"बाहय संयम स्थानों से भेद मालूम पड़ने से अर्थात्-ताबिक वन्दता, वन्दना क्रम, आदि से
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गा०७६-७७-७८-७९-८० ]
( ३६ )
[ मुनि पना के सच्चे गुण
इस प्रकार जो कहा गया है, वह भी उसी प्रकार से ही घटमान हो सकता है। - इस विषय का अधिक विस्तार हमारा रचा हुआ:
गुरुतत्त्व विनिश्चय-ग्रन्थ में है। अथवा“एक अंग को भी न्यूनता नहीं हो सकती है।" इत्यादि जो कहा गया है, उसको उत्सर्ग नियम का विषय समझना चाहिये ।। ७५ ॥
विशेषार्थ ("उत्सर्ग से-पूरा अठारह हजार अंग) होना चाहिये, अपवाद पद से- कुछ न्यूनाधिकता भी हो सके.” यह भाव मालूम पड़ता है) ।। ७५ ।। . + यह ही कहा जाता है
ता, संसार-विरत्तो अण-त-मरणाऽऽइ रूपमेअंतु। .. णाऊ, एअ-विउत्तं मोक्खं च गुरुवएसेणं. ।। ७६ ।।...
पञ्चा० १४-२५ ॥ परम-गुरुणो आणं[०णो अ अण ऽहे] आणाए गुणे, तहेव दोसे य,। मोक्ख-ऽत्यो पडिवज्जिअ भावेण इमं विसुद्धेणं ॥ ७७ ॥
- पञ्चा० १४-२६ ॥ विहिया-Sणुट्ठाण-परो, सत्त-ऽणुरुवमियरं पि संघतो. । अन्नत्थ अणुवओगा खवयंता कम्म-दोसेऽवि, ॥ ७८ ॥
पञ्चा० १४.२७ सव्वत्थ-णिर-ऽभिसंगो, आणा मित्तम्मि सव्वहा जुतो।, एग-ऽग्ग-मणो धणियं, तम्मि तहाअ-मूढ लक्खो य, ॥७९॥ तह, तेल्ल-पत्ति-धारग-णाय-गओ राहा-घेहग-गओवा। एअंचएइ काऊण उ अण्णो खुद्द-सत्तो ति ॥ ८० ।।
पञ्चा १४-२८-२९॥
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गा०
गा० ]
( ३७ ) मुनिपना के सच्चे गुण संपूर्ण शोलाङ्गो का पालन का यह कार्य अति दुष्कर कार्य है । इस हेतु सेशास्त्र के अनुसार गुरु के उपदेश से१ (जन्म जरा) मरणादि रूप संसार को अनन्त समझ कर, २ मरणादि से रहित मोक्ष को भी समझ कर, ।। ७६ ।। ३ परम गुरु श्री-तीर्थ कर देव की उत्तम आज्ञा के गुणों को समझ कर , ४ आज्ञा को विराधना के दोषों को समझ कर, ५ मोक्षार्थी हो कर, ६ विशुद्ध भाव से - उपर कहा गया शील का अच्छी तरह से
स्वीकार कर, ॥ ७७ ॥ ७ शास्त्रोक्त विहित अनुष्ठानो में शक्ति अनुसार तत्पर हो कर, ८ दूसरे जो-अनुष्ठान अशक्य है, उनको भी भाव की प्रतिपत्ति से-एवं__ आंतरिक भाव से करने का अनुसंधान रखता हो, ९ विहित अनुष्ठान शिवाय, दूसरे कार्यों में शक्ति का उपयोग न
लगा कर , . १० (आत्म विकास कर शील का पालन में) प्रतिबन्ध करने वाले कर्म दोषों
को खपाने वाला ।। ७८ ॥ ११ सभी पदार्थों में आसक्ति रहित-मध्यस्थ, १२ भगवंत की सभी आज्ञाओं में सर्वथा लगा हुआ, वचन की आराधना में .. ही एक निष्ठा रखने वाला- । अर्थात् -मन में विस्त्रोतसिका-उत्थल-पात्थल से-विरुद्ध भावों से- रहित होकर, उस आज्ञा में-जाग्रत् भाव के लक्ष्य-रखकर, मूढ़ भाव का लक्ष्य से रहित हो कर.-तत्पर रहने वाला, ॥ ७९ ॥ १३ (आज्ञा में अतत्परता की-हानि समझकर) तैल पात्र के धारक के दृष्टांत से, अथवा, राधावेध करने वाला का दृष्टांत से, अप्रमत्त भाव में सदा सावधान हो। भुद्र चित्त वाला-निर्बल मन वाला-आत्मा इस प्रकार करने का अधिकारी
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गा० ]
(३८) [ तैल पात्र धर-राधा वेधकर न होने से-इस प्रकार का शील का पालन करने में दूसरी आत्मा शक्ति नहीं रख सकती है।
विशेषार्थ तैल पात्र धर को कथा, और राधावेध करने वाला की कथा प्रसिद्ध है॥१॥ राजा की आज्ञा का भंग करने वाला को देहान्स दंड की शिक्षा फरमाई गई, उससे बचने का मार्ग यह बतलाया गया, कि ''यदि तैल से पूरा भरा हुआ दो पात्र अश्वारूढ होकर, दोनो हाथ में लेकर, नगरभर में फिराने पर भी, एक बिन्दु भी, उसमें से न गिरे, तो तुम बच जायगा"। अपराधी ने यह मंजूर किया, और उसी तरह नगर में घूमने लगा। स्थल स्थल पर उतको स्खलित करने के लिए--मन को आकर्षित करने वाले अद्भुत अद्भुत नाटकादि दृश्य स्थापित किये गये । अन्त में पूछा गया कि-"नाटक कैसे थे ?" उसने कहा-"नाटकादिक क्या ? मैने तो कुछ भी देखा नहीं।' उसको छुटकारा दिया गया। यदि नाटकादि से आकर्षित हो जाता, तो एकाग्रता का भंग होने से-तैल का बिन्दु भी गिरे तो, मरण सामने था । उसे बचने के लिए कितनी एकाग्रता रखी गई होगी?। उसी तरह--अप्रमत्त भाव से साधक मुनि जीवन का रहस्य बताया गया है। ॥२॥''राधा पूत्तलो । उसका वेध-उसको आंखों में बाण लगाकर उसको बोध देना, उसका नाम राधा-वेध । उसको करने वाले को भी पूर्ण एकाग्र होना पड़ता है। क्योंकि-उस पुत्तली, उपर के एक शीघ्रगामी चक्र में फिरती रहती है। उसकी आंख भी चपला रहती है। नीचे-उकलता हुआ तेल का बड़ा भारी कटाह-कडाया रहता है। ऊपर तराजू
और उस के दो छाबड़े रहते हैं। तराजू के दोनों छाबडे में दोनों पांव रखकर, तेल की कडाह में दृष्टि कर
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गा० ८१-८२ ]
( ३६ )
ऊपर बाण चलाकर, चक्र से फिरती पुत्तली को आंख बींधी जावे, राधावेध कहा जाता है ।
कितना एकाग्र होना पड़े ? सोचिये ।
जरा भी चूक जावे, तो तेल की कडाह में पड जावे, तराजू में दो पाऊं रख कर, समतुला न रख सके, तो भी पड़ जाने का, और लक्ष्य पर बाण को न लगने का भय रहता है, सब होने पर भी, फिरते चक्र में राधा को लक्ष्य बनानी पड़े, फिर भी उसकी चपल आंख की काली कीकी को बींधने का है । फिर भी, स्वमुख नीचा रखकर, भारी धनुष उठाकर बाण चलाने का रहता है, इस हालत में कितना एकाग्र होना पड़े ? जरा भी चूक जाय, तो परिणाम क्या आवे ?
( सुने हुए दृष्टांत को बाते लिखी गई है।
[ भाव साधु
उसको
अन्य ग्रन्थ से यथार्थ समझ लेवें - सम्पादक)
७६-७७-७८-७९-८०
+ अब पूरा सार कहा जाता है,
तोचि fest पुन्वा ऽऽयरिएहिं भाव साहु" ति । हंदि पमाण-ठिअ स्थो. तं च पमाण इमं होइ ॥ ८१ ॥
Ai
पञ्चा० १४-३० ॥
जिसका पालन करने का खूब कठिनतम कार्य है, इस कारण सेश्री भद्रबाहु स्वामी आदि पूर्वाचार्य भगवंतो ने भाव साधु को पारमार्थिक यति - मुनि बतलाया है ।
और यह बात - प्रमाण भूत भी है।
+ और वह प्रमाण ( निम्न गाथा में) इस प्रकार बताया जाता है ॥ ८१ ॥ सत्थुक्त - गुणो साहू, ण सेस, इइ [ह] णे [णो] पण्ण, इह हेउ । अ-गुणत्ता, इति णेओ दिट्ठ-तो पुण सुवण्णं च ॥ ८२ ॥
पञ्चा० १४-३१ ॥ " शास्त्र में कहे हुए गुणों से युक्त को ही साधु कहा गया है, दूसरे को साधु नहीं कहा गया है। ऐसे दूसरे, शास्त्र से बाहर है ।"
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गा० ८३-८४-८५ ]
(४०)
[ सुवर्ण के गुण
इस प्रकार की हमारी प्रतिज्ञा है । दूसरे को सच्चा साधु न कहा जाय, उसमें कारण यह है कि-'वे गुण रहित है, ऐसा समझना चाहिये ' अर्थात् साधु के योग्य गुणों से रहित वह रहता है । यहां, सुवर्ण का दृष्टांत समझना चाहिये ॥ ८२ ॥ .
विशेषार्थ यहां सुवर्ण का व्यतिरेक दृष्टांत है । सुवर्ण-सोना में जो गुण है, वे गुण जिस साधु में न हो, वह साधु नहीं ऐसा भाव है, अर्थात् -जिस में सुवर्ण के समान गुण हो, वही सच्चा साधु ॥ ८२ ॥ * सोने के गुण बताये जाते हैं ---
विस-घाइ-रसा ऽऽयण-मंगल-5 त्थ-विणए पयाहिणा-ऽऽवत्ते । [ग] गुरुए अ-डज्झ-ऽकुत्थे अट्ठ सु वण्ण-गुणा हुँति. ॥ ८३ ॥
__ पश्चा० १४-३२ ।। सोना-१ विष को-झहर को-विनिष्ट करता है,
२ रसायण रूप है, ३ मंगलों के कार्य करने वाला है, ४ नम्र है-मदु है, यथेच्छ वल सकता है, ५ अग्नि से गाला जावे, तब स्वभाव से ही दाहिनी ओर घूमता है
( बांया नहीं घूमता है), ६ सारभूत होने से-गुरु है- भारी है. ७ वह भस्म रूप न होने से अदाय है,
८ कभी भी वह सड़ता नहीं। + सोने में इस प्रकार के आठ मुख्य गुण हैं ।। ८३ ॥ प्रस्तुत विषय में वे गुण घटायें जाते हैं,- .
इह [अ] मोह -विसं घायइ, सिवोवऐसा रसा-ऽऽयणं होइ. । गुणओ अ मंगल-इत्थं कुणह, विणीओ अ “जोग्गं" त्ति. ॥८४॥ मग्ग-ऽणुसारि पयाहिणं, गंभीरो गुरुअओ तहा होइ, । कोह-ऽग्गिणा अ-उज्झो. अ-कुत्थो सह सील-भावेण. ॥ ८५ ॥
पञ्चा० १४-३३-३४॥
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गा० ८६-८७-८८ ]
( सुसाधु) -
१ कितने ही जीवों का मोह रूप विष का घात करते हैं- मोह को नष्ट करते हैं ।
( ४१ )
[ चार प्रकार से परीक्षा
२ कितनेक जीवों को मोक्ष का उपदेश देकर रसायन रूप बनते हैं,
३ परिणत जीवों के लिए - मुख्य गुणों से मंगल के कार्य करते हैं ।
४ स्वभाव से ही योग्य होने से - विनयशील होते हैं ॥ ८४ ॥
५ सन् मार्ग के अनुसरण रूप प्रदक्षिणावर्त करते हैं- दाहिनी ओर घूमते हैं, उन्मार्ग में वाम मार्ग में नहीं घूमता है,
६ गंभीरता गुण से गुरु है, गौरव युक्त है, गौरव पात्र है ।
७ क्रोध रूप अग्नि से कभी भी दग्ध नहीं होते है ।
८ और उचित शील को सवा धारण कर रखने से बिगड़ता नहीं- सड़ता नहीं, ताजा ही प्रसन्न ही पवित्र ही रहता है ।। ८५ ॥
...
. एवं दिट्ठ-S'त गुणा सज्झम्मि वि एत्थ होंति णायव्वा. ।
ण हि साहम्मा 5-भावे पायं जं होह दिट्ठ-ऽन्तो ॥ ८६ ॥ पश्चा० १४-११ ।
विष घाति आदि सोने के जो गुण कह गये, वे साध्य रूप साधु में मी होते है, यह समझ लेना ।
क्योंकि - साधर्म्य के अभाव में प्रायः दृष्टान्त बनता ही नहीं । (महां, दोनों के समान धर्म है हो ) || ८६ ।।
२ छेद ३ ताप
चउ-कारण- परिसुद्ध' कस छेअ-ताव- तालणाए अ. ।
जं, जं विस-घाइ - रसा ऽऽयणा-ऽऽइ-गुण-संजुअं होइ ॥ ८७ ॥ इयरम्मि कसा - SSइआ विसिह लेसा, तहेग सारतं । अवगारिणि अणुकंपा. वसणे अइ- णिच्चलं चित्तं ॥ ८८ ॥
पञ्चा० १४-३६-३७ ॥
* यह सुसाधु और सोना भी, चार कारणों से शुद्ध होने का मालूम पड़ता है ।
चार कारण
१ कष,
४ और-ताडन ।
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( ४२ )
[ सु-साधु-स्वरूप
परीक्षा में जो शुद्ध मालूम पड़ता रहे, वह
गा० ८९-९०-९१ ]
कषादि चार कारणों से की जाती सोना विषघाती - रसायन आदि भाव गुणों से युक्त होता है ॥ ८७ ॥
उसी प्रकार - सुसाधु दान्तिक में—
अनुक्रम से कषादि चार इस प्रकार घटमान होते हैं
१ उत्तम लेश्या - स्वभाव सौष्ठव रूप-कष परीक्षा है । अपूर्व सारपना रूप-छेद परीक्षा है ।
w
३ अपकार करने वालों पर भी अनुकंपा-हित करने को बुद्धि हो जाय, वह ताप परीक्षा है ।
४ और कष्ट परंपरा में मन की स्थिति क्षोभ रहित हो- स्थिर हो, वह तान परीक्षा है । ८८ ॥
तं कसिण- गुणोवेअ होइ सु-वण्णं, न सेसयं, जुत्ती. ।
ण वि णाम रूव मित्रोण' एवम - गुणो हवइ साहू. ॥। ८९ ।।
।। पञ्चा० १४-३८ ॥ .
+ उक्त सभी गुणों से युक्त हो, वही सच्चा सोना होता है । और दूसरी तरह से- मिश्रण से बनाया हुआ सच्चा सोना नहीं होता है । वह युक्ति सोना है । उस प्रकार से - जो गुण रहित होते हुए भी, बाह्य नाम और रूप मात्र से सच्चा साधु नहीं होता है ।। ८९ ॥
जुत्ती सु-वण्णयं पुण सु-वण्ण-घण्णं तु जइ वि कीरिज्जा. । णहु होइ तं सु-वण्णं सेसेहिं गुणेहिं असंतेहिं ॥ ९० ॥ पञ्चा० १४-३९ ।। मिश्रण कर युक्ति से बनाया हुआ कृत्रिम सोना सच्चा सोना नहीं होता है, क्योंकि - किसी न किसी हालत से वह सोने का पीला रंग धारण कर लेता है, किन्तु - विषघाति आदि शेष सभी गुण नहीं होते हैं ॥ ९० ॥
+ अब चली आती मूल बात पर ग्रन्थकार श्री आते हैं
जे इह सुत्ते भणिया साहु-गुणा, तेहिं होइ सो साहू. । वण्णेणं जच-सु-वण्णयं व संते गुण निहिम्मि ॥ ९१ ॥
पञ्चा० १४-४० ॥
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गा० ९२-९३-९४ - ]
( 83 )
[ साधु परीक्षा
इस शास्त्र में जो जो मूल गुण कहे गये हैं, उनको धारण करने से सच्चा साधु
हो सकता है ।
मात्र बाह्य
वर्ण होने पर भी विषघाति आदि गुणोंके भंडार हो, तो वह सच्चा सोना और सच्चा साधु होता है ॥ ९१ ॥
4 [दृष्टान्त घटाया जाता है- ]
जो साहू गुण-रहिओ भिक्खं हिंडई, [ण होइ] कह णु सो साहू ? | वर्णणं जुत्ति-सु-वण्णयं वाऽ-संते गुण निहिम्मि. ॥ ९२ ॥
पञ्चा० १४-४१ ॥
उfts-ne भुंजइ छक्काय पमद्दणो, घरं कुणइ । पञ्चखं च जल-गए जो पिवइ, कहं णु सो [साहू ?] भिक्खू साहू ॥ ९३ ॥
पञ्चा० १४-४२ ॥
गुणों से रहित होने पर भी जो साधु भिक्षा लेने के लिए जावे, वह सच्चा साधु किस तरह हो सकता है ?
जिस तरह, मात्र रंग से पीला हो, तथापि विषघाति पना आदि गुणों से रहित हो, ऐसा सोना सच्चा सोना नहीं होता है, मिलावट से वह बनाया हुवा रहता है ।। ९१ ॥
खास जान बूझ कर ( आकुट्टिका से ) वह औद्देशिक आहार करता है, बे-दर कारी से छ जीव निकाय का मर्दन करे - हिंसा करे, देव के गृह के बहाना से अपने के लिए गृह बना लेवे, और ( आकुट्टिका से ) जंतु से पूर्ण (सचित्त) पानी पीता है, वह साधु किस तरह माना जाय ? उसको साधु नहीं माना
जा सकता ।। ९३ ।।
अन्ने उ कसा - SSइआ किर एएत्थ हुँति णायव्वा, 1 एयाहिं परिक्खाहिं साहु-परिक्खेह कायव्वा ॥ ९४ ॥ पश्चा० १४-४३ ।
-
अन्य आचार्य महाराजाओं का कथन यह है, कि - "प्रथम जो कष छेद आदि से चार प्रकार
परीक्षा बतलाई है, - वे औद्द शिक
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गा० ९५- ]
(४४)
[ सु-साधु की परीक्षा आहार करना इत्यादि उपरोक्त चार दोष रहितपना साधु के अधिकार में समझ लेना चाहिये ।" इस प्रकार सचोट परीक्षा से साधु की परीक्षा करने का होता है ।। ९४ ॥
विशेषार्थ दूसरे आचार्य महाराजाओं का अभिप्राय भेद यह है, कि१ कप परीक्षा-जान बूझकर उद्दिष्ट आहार न करे, २ छेद परीक्षा-षट्काय का प्रमाद से-निरपेक्षतया मर्दन न करे, ३ ताप परीक्षा-देव के बहाना से अपना घर न करे, ४ताउन परीक्षा-किसी भी हालत में सचित्त जल का पान न करे। साधु की परीक्षा के लिए-यह भाव-सार [उच्चकक्षा को परीक्षा है। अर्थातसाधु के योग्य सारभूत योग्यता की परीक्षा के यह सचौट साधन है, उसे साधु की परीक्षा हो सकती है। बहार से समानता दिखाई देने से-"सु साधु है ? या कुसाधु ?" ऐसा संशय पड़ जाय, तो उसे दूर करने के लिए क्या किया जाय ? १ शुद्ध आचार को देखकर-शुद्ध साधुपना मानकर प्रथम तया-अभ्युत्थान वन्दना
आदि-की जावे। २ परंतु-आगे के लिए कैसा बर्ताव करना ? यह परीक्षा के बाद जो समझ
में आवे, ऐसा बर्ताव करना चाहिये । सुसाधु मालुम पड़े, तो तदुचित, और कुसाधु मालूम पड़े, तो तदुचित बर्ताव करना चाहिये। इस-शास्त्र चर्चा का यह सार है। यह दिशा सूचन मात्र ही है ॥१४॥ + उपसंहार किया जाता है
तम्हा, जे इह सत्थे साहु-गुणा, तेहिं होइ सो साहू.। "अच्च-ऽत-सु परिसुद्धहि मोक्ख सिद्धि" त्ति काऊणं ।। ९५ ॥
पश्चा० १४-४४॥ इस कारण सेइस शास्त्र मेंप्रतिदिन की क्रिया स्वरूप साधु के जो जो गुण कहे गये हैं, उन-अत्यन्त
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गा० ९६-९७- ]
(४५)
[द्रव्य स्तव से भाव स्तव की प्राप्ति
सुपरिशुद्ध गुणों से ही (शुद्ध) भाव साधु ही होता है, क्योंकि-ऐसे-उपधा [ कसौटियों से ] शुद्ध गुणों से ही मोक्ष की-सिद्धि प्राप्त होती है। अन्यथा-(भाव साधुपना विना-मात्र (अप्रधान) द्रव्य रूप साधुपना से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शुद्ध भाव साधुपना विना शुद्ध चारित्र और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है ॥ ९५ ॥
॥सु-साधु-और सुवर्ण का दृष्टान्त का विचार पूरा ।। + (द्रव्य स्तव से भावस्तव की प्राप्ति होती है । इस प्रसंग में भाव स्तव का स्वरूप विस्तार से बताया गया, और द्रव्य स्तव और भाव स्तव का जो भेद बताया जा रहा था, उस विषय को आगें चलाया जाता है ।)
अलमित्थ पसंगेणं. एवं खलु होइ भाव-चरणं तु. ।
"पडिबुझिस्संतपणे" भाव-ज्जिय-कम्म-जोएणं ॥१६॥ (प्रमाण पूर्वक भाव स्तव के विषय में जो कहा जाता था-) वह प्रसंग समाप्त किया जाता है। जिस का स्वरूप ऊपर बताया गया है, उस प्रकार का भाव चारित्र होता है। उस को भाव चारित्र क्यों कहा जाता है. ? "जिसका आलंबन से दूसरे अनेक जीवात्माएं प्रतिबोध पायेंगे," ऐसा जिनायतन कराना आदि द्रव्य स्तव से शुभ-भाव पूर्वक बान्धा गया जो शुभ कर्म,-उस शुभ कर्म से- आगे जाकर भावस्तव रूप भाव चारित्र की प्राप्ति होती है, जो मोक्ष को देने वाला होता है। इस कारण से द्रव्यस्तव को भाव चारित्र का कारण कहा जाता है। यह रहस्य है । ९६ ।।
अ-पडिवडिय-सुह-चिंता-भाव-ऽज्जिय-कम्म-परिणइए उ. । एअस्स जाइ अंतं, तओ सो आराहणं लहइ. ॥ ९७ ॥
. पञ्चाशक ७-४८ ॥ अस्खलित शुभ-विचारणा-आशय-अध्यवसाय रूप-भाव से उपार्जित किये गये कर्म (के उदय के सहयोग) से जो जिनायतन बनवाने की परिणति होती है, उसके
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गा० ९८-९९-१००- ]
(४६) [ द्रव्य और भाव स्तव का परस्पर संबन्ध
बल से वह आत्मा चारित्र का अन्त तक पहुँच जाता है, उसी कारण से, वह
आत्मा (द्रव्य स्तव से भी)-शुद्ध आराधना को प्राप्त कर सकता है ।। ९७ ॥ * यही कहा जाता है,
णिच्छय-नया जमेसा चरण पडिवत्ति-समयओ पभिई ।
आ मरण-ऽतमऽ[ज वस्सं संजम-परिपालणं विहिणा. ॥ ९८ ।। निश्चय नय के मत से तो-इस आराधना-चारित्र का स्वीकार करने का समय से लेकर, मरण पर्यन्त निरंतर विधि पूर्वक संयम का परिपालन करना ही क्योंकि-निश्चयनयके मत से यह ही आराधना है ।। ९८ ।।
आराहगो य जीवो-सत्तऽह भवेहि सिज्झइ णियमा ।
संपाविऊण परमं हंदि अह-क्खाय-चारित्तं । ९९ ॥ इस प्रकार से आराधना करने वाला-आराधक जीव (परमार्थ से) सात आठ भव में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है ! किस तरह मोक्ष प्राप्त करता है ? कषाय के उदय से सर्वथा रहित उत्तम यथा-ख्यात चारित्र को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।। ९९ ॥
दव्व-त्थय-भाव-स्थय-रूवं एअमिह होइ दृढव्वं,- । अण्णुण्ण-समणुविद्धं णिच्छयओ भणिय-विसयं तु ।। १०० ।।
पञ्चाशक ६.२३॥ * इस प्रकार सेद्रव्य स्तव का और भाव स्तव का स्वरूप यहां ठीक रूप से इस प्रकार समझ लेना चाहिये, कि .. गौण रूप से और प्रधान रूप से प्रत्येक परस्पर में गुंथा हुआ रहता है। क्योंकि-दोनों ही-श्री अरिहंत भगवंत की साथ संबंध रखने वाले हैं। १००॥
विशेषार्थ द्रव्य-स्तव और भाव स्तव दोनो ही श्री अरिहंत प्रभु के साथ संबंध रखने वाले हैं, तथापि-दोनों के स्वरूप में भेद भी है, जिस तरह- १ पुष्प पूजा रूप-अंग. पूजा, आमीष-नैवेद्य पूजा रूप-अग्र पूजा, स्तुति रूप-भ व पूजा और प्रभुनी
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गा० १०१-१०२-१०३ ] ( ४७ ) (मुनि का अनुमोदना रूप द्रव्य स्तव आज्ञा का विशिष्ट प्रकार से पालन रूप देश विरति और सर्वविरति का पालन रूप-प्रतिपत्ति पूजा । उन चारों पूजा श्री अरिहंत प्रभु की भक्ति रूप होने से भी-उत्तरोत्तर में प्राधान्य-मुख्यता-विशिष्टता रखती है । अर्थात-अंग पूजा से अग्र पूजा श्रेष्ठ है, अन पूजा से भाव पूजा श्रेष्ठ है, भाव पूजा से प्रतिपत्ति पूजा श्रेष्ठ है । उसी तरह द्रव्य-स्तव-भाव स्तव में भी परस्पर के संबन्ध समझना चाहिये ॥१००। "जहणो वि हु दव्व त्यय-भेओ अणुमोयणेण अधि"-त्ति । एअंच इत्थ णेयं इय सि सु]इं तंत-जुत्तीए. ॥ १०१ ॥
पञ्चा० ६.२८॥ * मुनिराज को भी अनुमोदना द्वारा द्रव्य-स्तव के लेश-भाग का मिश्रण रहता है।
और अनुमोदना शास्त्र-युक्ति से भी इस प्रकार सिद्ध [शुद्ध] होती समझनी चाहिये,- ॥ १०१ ॥ (वह अनुमोदना रूप द्रव्य स्तव का लेश, किस प्रकार है ? वह शास्त्र प्रमाण से बताया जाता है,.) तंतम्मि वंदणाए पूअण-सकार-हेऊ उस्सग्गो। जहणो वि हु णिदिट्ठो. ते पुण दव्व-त्थय-स-रूवे. । १०२ ।।
॥ पञ्चा० ६-२९॥ शास्त्र में भी, चैत्य वन्दना के अनुष्ठान में-पूजन निमित्तक और सत्कार निमित्तक कार्योत्सर्ग करने का है, सो मुनि को भी करने का बताया गया है । - पूअण-वत्तियाए
सक्कार वत्तियाए" (श्री अरिहंत-चेइयाणं. नामक चैत्य स्तव सूत्र में इस प्रकार पाठ है।) पूजा और सत्कार यह दोवों द्रव्य स्तव रूप है। अन्य स्वरूप नहीं है । १०२।।
मल्ला-ऽऽइए हिं पूआ, सक्कारो पवर-वत्थमाईहिं. । अण्णे-विवज्जओ-इह. दुहा वि दव्व-
त्थओ इत्थ. ॥ १०३ ॥
॥पञ्चा० ६-३० ॥ माला आदि से पूजा होती है, और उत्तम वस्त्रादि से सत्कार होता है ।
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गा० १०६-१०५ ]
( ४८ ) [प्रभु से अनुमोदित का विचार दूसरे आचार्य महाराज - इस वचन में-विपर्य व उल्टो रीति से-फरमाते हैं, कि-"पूजा उत्तम वस्त्रादि से की जावे, और सत्कार माला आदि से किया जावे. तथापि-दोनों मतों से-द्रव्य स्तव का ही तात्पर्य तो सिद्ध रहता है । १०३ ॥ इसमें ही दूसरी युक्ति भी बताई जाती है,
ओसरणे बलिमाई ण चेव जं भगवया वि पडिसिद्ध. । ता, एस अणुण्णाओ डचिआणं गम्मइ तेण. ।। १०४ ॥
॥पञ्चा० ६-३१ ॥ (भगवंत के) समवसरण में बलि आदि (का वितरण) होता है, उसका श्री तीर्थकर प्रभु ने भी निषेध किया ही नहीं है। इससे उस प्रकार का द्रव्य स्तव की आज्ञा श्री तीर्थकर प्रभु की भी जब रहती है । अर्थात्-“जिस प्राणी को जो उचित घटित होता हो, उसको उस कार्य करने की-प्रभु की अनुज्ञा रहती है," ऐसा जाना जाता है। चेष्टा के समान मौन भी अनुज्ञा का सूचक हो सकता है । "प्रभु ने निषेध तो न किया, किन्तु मौन से अनुज्ञात भी किया।" ऐसा समझना चाहिये ॥१०॥
"णय भयवं अणुजाणइ जोगं मोक्ख-वि-गुणं कयाचिदवि [दविण्णेयं]। ण यऽणुगुणोऽवि तओ [जोगो]ण बहु मओ होइ अण्णेसि ? ॥१०५।।
पञ्चा० ६.३२ । "मोक्ष से विरुद्ध किसी भी योग को भगवंत कदापि अनुज्ञात करते ही नहीं। क्योंकि-भगवंत मोह से रहित है।" इस कारण से- वह योग-प्रवृत्ति-भी मोक्ष के अनुकूल होने से नहीं है ? और दूसरे को भी अत्यन्त मान्य करने के योग्य हो सकती है। बहुमान्य करने योग्य है हो। इस कारण से-वह भी द्रव्य स्तव रूप होने से, अर्थ से भी; अनुमति की कक्षा में शामिल रहती है। यह रहस्य है ॥ १०५॥ # भगवंत तो भाव को ही अनुमोहना कर सकते हैं, द्रव्य को अनुमोदना नहीं
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गा० १०६- ]
( ४९ ) . [ द्रव्य स्तव की भी अनुमोदना करते है। इस शंका "सत्कार्य नय की अपेक्षा सेद्रव्य में भाव को सत्ता का स्वीकार होने से" दूर की जाती है,''जो चेव भाव-लेसो, सो चेव य भगवया पहु-मओ उ." 'ण तओ विणेयरेणं." ति, 'अत्यओ सो वि एमेव." ॥१०॥
॥पञ्चा० ६-३३ ॥ "जो लेशमात्र भी भाव हो, उस का ही अनुमोदन भगवंत करते हैं (द्रव्य को नहीं )"
विशेषार्थ "अपुनर्बन्धक भाव से लेकर चतुर्दश गुण स्थानक तक की सभी अवस्थाओं में जिस भाव का समावेश होता है, उसको ही अनुमोदना भगवंत करते हैं। उसी कारण से-वे सभी भगवंत की आज्ञा में आ जाते हैं। क्योंकि जो जो योग्य कर्तव्य है, वे मोक्ष के साधन होने से, निषेध विना-मौन आदि व्यापार-से, अनुमोदित किये जाते हैं । यदि ऐसा माना जाय, कि-'जो जो हीन कक्षा के अनुष्ठान है, उनकी अनुमोदना ही नहीं है।" तो अतिप्रसंग दोष आ जाता है। [क्योंकि-तीर्थंकर अवस्था में संभवित शुद्ध प्रवृत्ति को ही प्रभु अनुमोदित करे, और की प्रवृत्ति को अनुमोदित न रखें, कि-जो-स्वअवस्था से हीन हो। तो-देश-विरति और अन्य साधु की सर्व विरति भी प्रभु से अनुमोदित न रहने से, वे आज्ञा सिद्ध कर्तव्य ठहरेगा ही नहीं। यह बड़ा दोष बहुत सी बातों में आ जायगा । और कोई धर्मानुष्ठान आज्ञा-सिद्ध नहीं रहेगा।] यह बात उपदेश रहस्य में हमने कही है
'जह होणं दव्व-त्थयं अणुमणेज्जा ण, संजमो." त्ति मई,
"ता कस्स विसुह-जोगं तित्थ-यरो णा-Sणुमणिज्ज ? ति" । अर्थः “यदि हीन अनुष्ठान होने से द्रव्य स्तव को [श्री तीर्थकर प्रभु] अनुमोदित न रखे,
और संयम ही अनुमोदना के योग्य माना जाय, तो"श्री तीर्थकर प्रभु किसी का भी विशुद्ध योग की अनुमादना न कर सके।" ऐसा फलित होगा । (१)
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गा० १०७ ]
(५०)
[ कारण में कार्य रहता है।
इस से - " वह लेशमात्र भी भाव, अर्थ से, द्रव्य से रहित नहीं होता है । इस कारण से - " भाव की साथ उस को भी द्रव्यस्तव की भी अनुमोदना होती है, वह भी अनुमोदना के पात्र है ।
[ पञ्च वस्तु मध्य - इस गाथा की टीका इस प्रकार है
"य: एव भाव-लेशो बल्या-ssदौ क्रियमाणे,
इत्याशङ्कयाऽऽह
स एव च भगवतस्तीर्थ करस्य बहुमतः " ।
नाऽसौ भाव-लेशो विनेतरणे ण-द्रव्य स्तवेन, इत्यर्थः । सोऽपि द्रव्य- स्तवः एवमेव - अनुमतः । इति गाथा ऽर्थः ।
अर्थः
बलि आदि करने में भाव का जो लेश भाग है, वही प्रभु को बहुमत है, ( द्रव्य-द्रव्य- स्तव नहीं) ।
(ऐसी शंका उठाकर समाधान किया जाता है, कि) "वह भाव लेश भी द्रव्य स्तव से रहित नहीं होता है, इस कारण से वह भी ऐसा होता है अर्थात् वह भी ( द्रव्य स्तव भी) अनुमत होता है । ]
+ यही स्पष्ट किया जाता है, -
" कज्जं इच्छंतेणं अण-तरं कारण पि इट्ठ" ति. । . जह आहार-ज-तित्तिं इच्छंतेणेह आहारो ।। १०७ ।।
पञ्चा० ६-३४ ।।
जो कार्य को अपेक्षा रखता है, उसको मोक्ष रूप फल को देने वाला नजदीक के कारण की भी अपेक्षा रखनी ही पड़ती है ।
किस
तरह ?
"इस लोक में भी, आहार से होने वाली तृप्ति को जो इच्छता है, उसको आहार करने का भी इष्ट रहता ही है" ॥ १०७ ॥
विशेषार्थ
यहां प्रश्न होता है,
" द्रव्य स्तव से, द्रव्य स्तव की प्राप्ति के बीच अर्ध पुद्गल परावर्तन काल का
कि
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गा० १०८ ]
( ५१ ) [ जिन भवनादि-प्रभु सम्मत अंतर रहता है, तथापि-उस द्रव्य स्तव का अनन्तर कारण किस तरह कहा जा सकता है ?" उसका जवाब यह है कि"ऋजु सूत्र आदि नय से अनन्तर कारणपना समझना चाहिये।" उस नय से कथंचित्-उस स्थान का अनन्तर-पूर्ववति भावों को पकड़ कर अनन्तर कारणता समझी जावे । और व्यवहार नय से-- द्वारका व्यवधान से द्वारी अन्यथा सिद्ध नहीं सिद्ध हो जाता है, (घट की उत्पत्ति में दंडका चाकको भमाने में जो भमाने का व्यापार होता है, वही नजदीक का कारण-अनन्तर कारण बनता है, तो दण्ड को कारण नहीं माना जाय ?i ( ऐसा न करना चाहिये, क्योंकि-) दंड भमाने की क्रिया द्वारा घट में कारण रहता है, उसी कारण से-दण्ड को- (द्वारिको) अन्यथा सिद्ध (निकम्मा) नहीं माना जाता है। इसे व्यवहार नय से- दण्ड घट का निकट का अनन्तर कारण है ही। यह बात अध्यातममत परोक्षा आदि में स्पष्टता से सिद्ध की गई है॥१०७॥ * श्री जिनभवनादि में भी आज्ञा का विधान किस तरह माना जाय ? वह कहा जाता हैजिण भवण-कारणा-ऽऽइ वि भरहा ऽऽइणं ण निवारियं तेणं, । जह तेसिं चिय "कामा सल्लं, विसा"-ईहिं णाए [वयणे] हिं.॥१०८॥
पश्चा० ६.३५ ।। जिस तरह श्री ऋषभदेव प्रभु ने "कामो-विषयो-शल्य समान है, विष समान है" ऐसा कह कर जिस तरह दृष्टान्त से निषद्ध किया है-न करने को कहा है। उसी तरह भरत आदि श्रावकों को जिनमन्दिर आदि बनाने का निषेध आदि प्रभु ने नहीं किया है। यदि निषेधा होता, तो दिषटूमेवा तरह करने को निषेध फरमाते ।
विशेषार्थ "सल्लं कामा, विसं कामा" .
इत्यादि शास्त्र प्रसिद्ध वाक्यों से निषेध किया गया है ॥१०८॥
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[ उपचार विनय - द्रव्य - स्तव
गा० १०६ - ११०-१११ ]
( ५२ )
ता तंपि अणुमयं चिय अ-पडिसेहाओ तंत- जुत्तीए । इय सेसा ण वि इत्थं अणुमोअणमाऽऽह अ-विरुद्धं ॥ १०९॥
पचा० ६-३६ ।।
उसी कारण से तंत्र शास्त्र-युक्ति से समझा जाता है, कि - "जिसका निषेध न किया गया हो, उसको "अनुमत किया है ।" ऐसा समझना चाहिये । " अ-निषिद्धमनुमतम् ।" यह तन्त्र शास्त्रीय युक्ति है ।
अर्थ: "जिसका निषेध न किया गया हो, उसको अनुमत समझना चाहिये ।"
इस प्रकार --
श्री तीर्थंकर देव ने जो अनुमत रखा है, उसमें, और साधुओं के लिए भी द्रव्य स्तव में अनुमोदना निषिद्ध नहीं है । ( किंतु आज्ञा सिद्ध ही है । ) । १०९ ।। विशेषार्थः
आदि शब्द से (जिन भवनादि को ) कराने का उपदेश आदि भी ( अनुमत में) समझ लेना रहता है ॥ १०९ ॥
+ उसमें दूसरी भी युक्ति दी जाती है
जं च, चउडा भणिओ विणओ. उवयारिओ उ जो तत्थ, । सो तित्थ-यरे नियमा ण होइ दव्व-त्थयादऽण्णो ॥ ११० ॥ पञ्चा० ६-३७॥
दूसरा भी
चार प्रकार के विनय (शास्त्रों में) बताया गया है। उनमें जो (चौथा ) उपचार विनय बताया है, वह विनय श्री तीर्थंकर प्रभु का द्रव्य स्तव से दूसरा नहीं है ॥११०॥
विशेषार्थः
अर्थात्(-द्रव्य-स्तव ही उपचार विनय रूप है । ( अथवा, द्रव्य स्तव उपचार विनय रूप ही है ॥ ११० ॥
एअस्स उ संपाडण - हेउ तह हंदि वंदणाए वि ।
पूअणमा - SSदुच्चारणमुववन्न होइ जइणो वि. ॥ १११ ॥
पश्चा० ६-३८ ॥
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गा० ११२ ११३ ११४ ]
( ५३ )
[ मुनि को चैत्य वन्दना
इस ( उपचार विनय रूप * द्रव्यस्तव) को संपादन कराने के लिए ही श्री. वन्दना सूत्र में भी
पूअण ० ( वतियाए ) इत्यादि का जो (शब्दशः) उच्चारण किया गया है, वह मुनि को भी बराबर घटता है ॥ १११ ॥
इअरहा, अण-Sत्थगं तं. ण य तयऽणुच्चारणेण सा भणिया ।
ता, अभिसंधारणमो संपाडणमिट्ठमेअस्स. ॥ ११२ ॥
पञ्चा० ६-३९ ॥
जो एसा न हो तो, श्री ( वन्दनासूत्र में जो उच्चारण किया गया है), वह निरर्थक हो जाता है ।
और, उस सूत्र के उच्चार विना मुनि की वदना नहीं कही गई है ।
इस कारण से, खास विशिष्ट प्रकार की इच्छा से भाव से मुनि को भी द्रव्यस्तव संपादित करने का रहता है ।। ११२ ।।
सक्ख। उ कसिण-संजम दव्वा ऽ-भावेहिं णो अयं जहणो [ इट्ठो ] . । गम्म तंत- डिइए- "भाव - प्पहाणा हि मुणओ" ति. ॥ ११३ ॥
पञ्चा० ६-४० ।।
संपूर्ण संयम से और द्रव्य (धनादि पदार्थ) के अभाव से यह (द्रव्यस्तव) मुनि को साक्षात् स्वरूप से नहीं माना गया है ।
और पूर्वापरका विचार करने से, यह बात शास्त्रयुक्ति से भी ठीक बैठती है, कि
"मुनिमहात्माएँ भाव की मुख्यता वाले हैं"
"भाव प्रधाना हि मुनयः "
इसी कारण से - मुनि में द्रव्यस्तव गौणरूप में रहता है, मुख्य रूप में नहीं ॥११३ एएहिं तो अण्णे धम्मा-हिगारीह जे उ, तेसिं तु ।
सक्खं चिय विष्णेयो भावा- गतया, जओ भणियं ॥ ११४॥
। पञ्चा० ६-४१ ॥
"ज्ञान दर्शन- चारित्रोपचारा' ९.२३"
श्री तत्त्वार्थाऽधिगम सूत्र । "ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र दिनय और उपचार विनय । ९-२३"
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गा० ११५- ]
(५१)
[ मुनि को गौण भाव से द्रव्य स्तव
उन [ मुनि ] के सिवाय जो श्रावकवर्ग इस ( द्रव्यस्तव) में अधिकारी है, वह तो भावस्तव का अंगरूप होने से द्रव्य स्तव के साक्षात् अधिकारी है ॥ ११४॥ जिससे कहा गया है, कि -
44
'अ-कसिण-पवत्तगाणं विरया 5- विश्याण एस खलु जुत्तो. । संसार - पयणु- करणो दव्य स्थए कूव दिट्ठ- ऽन्तो, " * ॥११५
पञ्चा० ६-४२ ।।
"संपूर्ण संयमधारी न होने पर भी -कुच्छ अंश में विरत, और कुच्छ अंश में 'अविरत, एवं देशविरतिधर आत्माओं को शुभ का अनुबंध-शुभ की परंपराकराने वाला होने से, एवंसंसार को घटाने वाला होने से यह द्रव्य स्तव उचित है - योग्य है ।
द्रव्यस्तव के विषय में कूपका दृष्टान्त जानना चाहिये । जो उसकी कथा से जाना जाता है ।। ११५ ॥
कूप
विशेषार्थ
के दृष्टान्त पर संक्षिप्त विचार
--
नवीन नगर की स्थापना करने के समय पानी के लिये कुवां बिना पानी कहां से मिले ? तो कूदे का खनन करते समय श्रम, तृष्णा, कर्दमलेप, आदि are होते हैं, किन्तु कूप तैयार होने के बाद जलपान, स्नान, आदि से आरामशान्ति मिलती है, स्वच्छता होती है, और अन्य लोग भी लाभ उठाते हैं । उसी तरह, जो भावस्तव नहीं कर सकता है, उसको संसार से छुटने के लिए अल्पदोष युक्त होने पर बहुगुण युक्त एवं भावस्तव में कारणभूत द्रव्यस्तव अवश्य कर्तव्य है । १८ सहस्त्र शीलांगरूप भावस्तव जिससे न हो सके, तो "कुच्छ भी न करना चारिये ?” कुच्छ करना यदि चाहे, तो क्या करना चाहिये ? भावस्तव के कारणभूत द्रव्यस्तव करना ही चाहिये । *
* प्रायः आवश्यक नियुक्ति से यह गाथा ली गई हो, ऐसा मालूम पड़ता है ।
यदि द्रव्यस्तव करना चाहे, तो किस प्रकार करना चाहिये ? क्योंकि उसमें भी थोड़ा बहुत आरंभ समारंभ होता है, राग द्वेष की संभावना भी रहती है ही, यह बात सत्य है ] तो "कुछ नहीं करना चाहिये यदि ऐसा निर्णय किया जाय" ठीक है, कुछ भी न करना चाहिये । सोते रहे, या बैठे रहे वे ! बैठे क्यों रहे वे ? तो खावें पीवें किस तरह ? कुटुम्ब का परिपालन कैसे किया जाय ? तो गृहकार्य, व्यवसाय आदि करना ही पड़े, तो उसमें धर्म कार्य क्या हुआ ? वे सभी तो सांसारिक कार्य हुए। तो मोक्षभिलाषी जीव को द्रव्यस्तव रूप धर्मकार्य अवश्य करना चाहिये ।
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गा० ११५ ]
( ५५ )
.
[ कूप-दृष्टान्त
द्रव्यस्तव को व्याख्या क्या है ? "भावस्तव की प्राप्ति के लिए भावस्तव सिवाय जो कुछ धर्म प्रवृत्ति की जावे, वे सभी द्रव्यस्तव रूप है। देवगुरु धर्म के प्रणिधान पूर्वक जो कुछ किया जाय, वे सभी द्रव्यस्तव में समाविष्ट होते हैं। जिनपूजा, तीर्थ यात्रा सम्यक्त्वमूल बारह व्रत, आदि सभी भावस्तव से व्यतिरिक्त उन सभी धर्मकार्य का समावेश द्रव्य स्तव में होता है ।
सम्यक्त्व सामायिक, श्रत सामायिक और देश विरति सामायिक (और उपलक्षण से मार्गानुसार भाव से) जो किया जाय, उन सभी का समावेश द्रव्यस्तव में होता है : शीलांग सम्यग् चारित्र रूप है। सम्यग् दर्शन-ज्ञान रूप द्रव्यस्तव उचित रूप में मुनि कर सकते हैं, और अनुमोदना भी,
___ इस कारण से छोटा बड़ा जो कुछ धर्मकार्य किया जाय, उसमें कुछ न · कुछ प्रवृत्ति रहेगी ही, तो हिसा आदि होने की संभावना और शक्यता भी अवश्य है ही। तो भाव स्तव के सिवाय कहीं भी धर्म की संभावना नहीं रहेगी। ___ अत एव, उनमें देव-गुरु-धर्म संबन्धि जो और जितना प्रणिधान होता है, वह मुख्यतया द्रव्यस्तव है, प्राणिधान स्वरूप से तो उसको भावस्तव भी कहा जाय, किन्तु, साथ में अन्य-हिंसा आदि का सम्पर्क होने से द्रव्य विशेषण दिया गया है । भावस्तव में भी शुभ और शुद्ध प्रणिधान होता है । द्रव्यस्तव में भी शुभ और अल्प मात्रा में शुद्ध प्रणिधान रहता है, इस कारण से दोनों को सामान्य स्तव शब्द से कहे गये हैं।
___ यदि प्रणिधान न हो, तो दोनों ही स्तव शब्द से वाच्य न किया जा सकता है । प्रणिधान रहित द्रव्यस्तव को भी द्रव्यस्तव नहीं कहा जा सकता, अप्रधान दिखावा मात्र का-द्रव्यस्तव भले ही कहा जाय ।
जिन-पूजा, विधि-भक्ति-यतना और औचित्य पूर्वक की जावे, तो वह भी द्रव्यस्तव ही है। विधि में आज्ञाका पालन होता है। भक्ति में प्रभु का प्रणिधान रहता है, यतना में अहिंसा आदि का पालन होता है। औचित्य में विवेक को जाग्रती रहती है। जिन पूजा में दान-शील-तप-भाव भी रहता है।
जिन मंदिर में जितने समय अशुभ का भी अनाश्रव-संवर रहे, उतने समय कर्मबंध में जो फरक पड़ जाय, थोड़ा भी जिनका प्रणिधान अनाश्रव का लाभ
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गा० ११५ ]
( ५६ )
[ कूप दृष्टान्त
देवे ही । शुभाश्रव, संवर, निर्जरा, महानिर्जरा का निमित्त जिन देव का प्रणिधान क्यों न बन सके ? किसी भी हालत में भावपूर्वक जिनदेव का प्रणाम अतिफल देता है "तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ" "आपको प्रणाम भी बहुत फल देता है ।
" श्वन्नाम कीर्तन" - आपका नाम का कीर्तन- उच्चारण भी फल देता है, स्मरण भी ।
जिनमंदिर, जिनप्रतिमा का दर्शन- स्पर्शन स्मरण भी जिनदेव के स्मरण में खूब निमित्तभूत होते ही हैं। तो स्मारक आत्मा की विशुद्धि के अनुसार अवश्य अशुभ का अनाश्रव आदि फलों को क्यों न देवे ? दूसरे दुन्यवी प्रत्यक्ष फल मात्र के फलों की कल्पना जैन शास्त्रों में नहीं है । वे आनुषंगिक फल है ।
अशुभ का अनाश्रवादि भी बड़ा भारी फल को भी फलों की कक्षा में बताया गया हैं । उसी कारण से जिन प्रतिमा के पूजादिक आध्यात्मिक सुफल सो शून्य नहीं है, क्योंकि अभिगमिक एवं साधनों से होने वाले सभी प्रकार के आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति में तीर्थ-स्थापक श्री तीर्थ कर जिनदेव प्रधान साधन है, मुख्य है, मूलभूत है। उनका थोड़ा भी प्रणिधान आध्यात्मिक विकास के क्या क्या फल न देवे ? वे प्रतिमा द्वारा भी सुलभ और सर्वोत्कृष्ट प्रणिध्येय रूप है ।
जो आत्मा स्वात्म प्रणिधान से प्रणिध्येय कक्षा को पहुँच जाय, उसको आवश्यकता नहीं । किन्तु, वह भी औरों के लिए जिनदेव-सुगुरु- सुधर्म का प्रणिध्येयपणा का निषेध नहीं करे । निषेध करे तो, मार्गध्वंसरूप अनाचार दोष लग जाय । किन्तु उस कक्षा के महात्माओं के लिए ऐसी संभावना ही नहीं है । अन्यथा श्री तीर्थंकर प्रभु अपनी कक्षा के निम्न कक्षा के लिए तत् तत् विविध धर्माचरण का उपदेश दे भी न सके । न दे सके ? यथा पात्र के योग्य उपदेश अवश्य दे सके ।
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गा० ११५ ]
(५७)
[ कूप दृष्टान्त तो कूप के दृष्टांत से जिस तरह गुण और दोष दोनों रहते हैं, तरह-जिन पूजा में भी कुछ धर्म कुछ अधर्म ऐसा समझना चाहिये ? ना, ऐसा नहीं, धर्म ही कहना चाहिये। क्यों ? निश्चय नय की दृष्टि से दोष में तो पड़ा ही था । दोष तो होते ही हैं । आग से भागना ही पड़ता है । किन्तु, बच जाने का फल मिलता है । यदि न भागे, तो मरना पड़े, उसी तरह शुभ और शुद्ध प्रणिधान की प्राप्ति आवश्यक है, उसके लिए स्नानादि भी द्रव्यस्तव में समाविष्ट होता है । जिन पूजा के लिए स्नानादि भी द्रव्यस्तव ही है । शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान किया जाय तो. वह सांसारिक प्रवृति का अंग बनता है । स्नान में भी यह भेद पडता है जिसमें श्री जिनेश्वर देव जैसे सर्वोत्कृष्ट पुष्टालंबन प्रणिध्येय रूप है, तो उसको स्तव क्यों न कहा जाय ? धर्म क्यों न कहा जाय ? प्रणिधान धर्म ही है ! और उसमें सहायक भी धर्म ही है । प्रणिधान शून्य हो, तो द्रव्यस्तव भी नहीं।
तो उस कक्षा के जीव के लिए वह धर्म ही है। धर्म की नय सापेक्षसंख्याबद्ध व्याख्याएं है, उनमें से किसी एक जो व्याख्या लागु होती है । उस
कक्षा की व्याख्या से वह धर्म ही कहा जाय । 'धर्म और अधर्म' ऐसा भी न . कहा जाय । गृहस्थ सुमुनि को दान देवें, उसमें भी कई प्रवृति होती है । हिंसा
की भी संभावना रहती है, अवश्य रहती है, तो उसको भी धर्माधर्म कहा जाय ? नहीं : व्यवहार नय से-दानधर्म ही कहा जाय ।
'भावस्तव संबंधी धर्म की व्याख्या (निश्चय नय) की अपेक्षा से-''धर्माधर्म" कहा जाय । किन्तु, द्रव्यस्तव की अपेक्षा धर्म की व्याख्या से-धर्म ही कहा जाय । धर्माधर्म नहीं : तैयार कूप से पानी मिल जाय, उसको अपेक्षा से, खोदना पड़े, ऐसा कूप में दोष और गुन दोनों देखा जाय: जल प्राप्त करने वाले को सामने दोष नहीं आता, जल प्राप्ति ही रहती है। अन्य रीति से जल प्राप्ति के अभाव में-कूपखनन, उससे जल निकालना, आदि दोषरूप न होकर, गुणरूप ही बनता है । देखने में दोष भी गुन के लिए होने से, गुणरूप बनता है, अन्यथा, गुणप्राप्ति कभी भी संभवित नहीं।
प्रधानतया धर्म होने से उस कक्षा के जीवों के लिए व्यवहार नयसे धर्म ही कहना सशास्त्र और युक्ति सिद्ध भी है।
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गा० ११६ ]
(५८) [ द्रव्य स्तव की अनुमोदना + फिर भी शंका उठाकर उसका समाधान भी किया जाता है....
"सो खलु पुप्फा-ऽऽइओ तत्युत्तो, ण जिण-भवणा-55ई वि.?" ।
"आई"-सहा वुत्तो.” "तय-SS भावे कस्स पुप्फा-ऽऽई ?' ॥११६॥ "वह द्रव्य-स्तव पुष्पादिक रूप से वहां कहा गया है । "पुप्फा-ऽऽइ [दीयं] ण इच्छंति” ।
"पुष्पादिक को इच्छता नहीं," ''यह निषेध-भावस्तव प्रधान मुनि के लिए किया गया होने से उसको प्रतिषेध निषेध है, तो प्रत्यासत्ति न्याय से-(श्रावक के लिए) पुष्पादि का उपयोग करने का कहा गया है"। "किन्तु,जिनभवनादि कर-करा कर द्रव्यस्तव को करने का वहां कहा नहीं है, तो-उसको वह करने का अधिकार नहीं है।"
धूलि में खेलता बालक माता-पिता और गुरु को देख कर हाथ जोड़ लेता है, प्रणाम करता है । तो-प्रणाम स्वरूप की कर्तव्यता की मुख्यता होने से-खडा होना, हाथ जोड़ना इत्यादि में काययोग की देखने में सावध प्रवृत्ति अवश्य होने पर भी “विनय धर्म किया' ऐसा ही माना जायगा, कहा जायगा।
यदि, ' मोक्षाभिलाषी जीव को द्रव्य स्तव करने का नहीं है तो, भावस्तव कर ले।" अच्छी बात है, किन्तु-भावस्तव न करना हो-न कर सके, उस को द्रव्वस्तव अवश्य करना होगा । वह थोड़ा भी न करना हो, तो वह “मोक्षाभिलाषी अभी तक नहीं हुआ है।'' यह ही मानना पड़ेगा। द्रव्यस्तव की कक्षा में कई प्रवृतित्रों का समावेश होता है, इसमें से किसी को भी-द्रव्यस्तव की कक्षा से टाल नहीं सकते हैं । कोई जीव एक प्रवृत्ति करे, दूसरा जीव दूसरी कोई प्रवत्ति इसमें से करे। वे द्रव्य स्तव है। अभव्य जीव का सत्पणिधान शून्य मुनि पना भी भावस्तव नहीं है, किन्तु, प्रधान द्रव्यस्तव भी नहीं है। सिवाय, अंशतः श्रुत सामायिक का लाभ हो, जिससे वह नवम ग्रैवेयक तक जा सकता है, किन्तु व्यवहार नय से इसकी भी गणना नहीं की जाती। उसको ग्रैवयेक पना की प्राप्ति, अंशतः भी कुछ द्रव्य स्तव होने से होता है । अन्यथा, इतना भी उच्च स्थान पर किस तरह जा सके ? किन्तु मोक्ष प्राप्ति रूप प्रणिधान की अपेक्षा से वह कुछ भी नहीं । (विशेषज्ञ पुरुषों की कृपा से संशोधन करो।
सामान्य समझ के आत्माओं के लिए स्वसमझ अनुसार कुछ स्पष्टता की गई है।
-सम्पादक
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गा० ११७-११८ ]
( ५९)
[मुनि की द्रव्य स्तव में अनुमोदना
___ "समाधान-"आदि" शब्द से जिन भवनादि करने-कराने का भी कहा है, क्योंकि-जिन-भवादिक के अभाव से-पुष्पादिक किस को चढाया जाय ? किसके लिए हो ? ॥११६॥
"नणु तत्थेव य मुणिणो पुप्फा-ऽऽइ णिवारणं फुलं अत्यि."
अस्थि तयं, सयं करणं पडुच्च, नऽणु-मोयणा-ऽऽइ वि.३११७॥ + "उस स्थान पर-स्तव के अधिकार में-पुष्पादिक का जो निवारण किया गया है, वह मुनिराज के लिए ही किया गया है।" "णो कसिण-संजमं."
"पूरा संयम में (पुष्पादिक का उपयोग मुनिराज इच्छते नहीं)" इत्यादि वचन से-निषेध जरूर किया गया है, किन्तु वह निषेध स्वयं पुष्पादिक का उपयोग करने की अपेक्षा से किया गया है ।
किन्तु-अनुमोदनादिक की अपेक्षा से नहीं किया गया है ॥११७॥ + उसका ही समर्थन किया जाता है,
सुव्वद अ "वयर-रिसिणा कारवणं णि अ अणुडिअमिमस्स." । वायग गंथेसु तहा एअ-गया देसणा चेव. ॥ ११८ ॥
पश्चा० ६-४५ ॥ सुना जाता है कि___ "श्री (पूर्वधर) वज्रस्वामी महाराज श्री ने कराया भी है, (और-तत्त्व से-किया भी है।" ) अर्थात्-द्रव्यस्तव का अनुष्ठान किया भी है। *"माहेसरोउ पुरीउ०" इत्यादि गाथा में-यह वृत्तान्त कहा गया हैं। "माहेश्वरी नगरी से पुरी नगरी." इससे जाना जाता है।
*माहेसरीउ सेसा-पुरियं नोआहुआसण-गिहाओ ।
गयण-तलमऽइवत्ता वहरेण महा-ऽणुभावेण ॥" "राजायुक्त माहेश्वरी नगरी जाकर, हुताशन व्यन्तर जो पिता का मित्र था, उसका गृहभूत उद्यान से महानुभाष श्री वज्रस्वामीजी आकाशमार्ग को लांघ कर पुष्पसंपद् "पुरी नाम नगरी में लाये।" इत्यादिक कथानक उक्त गाथा से सूचित होता है।
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गा० ११९-१२० ]
(६०)
. [हिंसा-अहिंसा विचार
औरश्री ( उमास्वाति ) वाचक महाराज के ग्रन्थ में भी इस विषय पर [जिन भवन बनाना इत्यादिक द्रव्यस्तव बनाने का उपदेश संबन्धी] देशना दी गई है-सुनी जाती है। "यस्तृण-मयों कुटी०' इत्यादि से [पूजा प्रकरण] . और, "जिन-भवनम्" इत्यादि, "जिनभवन बनाना" इत्यादि भी [प्रशमरति]
विशेषार्थः [धर्म रत्नमाला आदि ग्रन्थों में भी इस विषय की देशना सुनी जाती है। पंचवस्तु से]
और वाचक श्री के ग्रन्थ में भी सुना जाता है ।।११८॥ * (नया प्रश्न-)
धर्म में हिंसा-अहिंसा आहे [ह,:-'ए]वं हिंसा वि हु धम्माय ण दोस-यारिणी" त्ति ठियं । एवं च- 'वेय-विहिया णेच्छिज्जह सेहवामोहो." ॥११९॥ पूर्वपक्षकार कह रहा है, कि
'इस प्रकार से सोचा जाय, तो-"धर्म के लिए की जाने वाली हिंसा दोषोत्पादक-दोषरूप नहीं है," ऐसा सिद्धांत स्थिर हो जाता है। उसके बिना द्रव्यस्तव नहीं होता। और इस प्रकार से-"वेद में जो हिंसा देखी जाती है, वह हिंसा को अहिंसातया क्यों नहीं मानी जायगी? ऐसा न मानना, यह एक प्रकार का व्यामोह है-(अपका ) अज्ञान है ।” ॥११९।।
विशेषार्थः । ''दोनो समान होने से वेद-विहित हिंसा को भी, धर्म के लिए होने से धर्म कहना चाहिये, जिस तरह जिन पूजा में होती हुई हिंसा-धर्म रूप मानी जाती है । दोनों समान स्थिति में हैं" पूर्व पक्ष का यह तात्पर्य है ॥११९॥
"पीड़ा-गारी त्ति अह सा.” "तुल्लमिणं हंदि अहिगयाए वि. ।
ण य पीडाउ अ-धम्मो णियमा, विज्जेण वभिचारा." ।।१२०॥ * जवाब दिया जायगा, कि-"यह (वेदविहित हिसा) पीड़ा करने वाली है।"
"तो-यहां चर्चा का विषय भूत जिन भवनादि गत) प्रस्तुत हिंसा भी
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हिंसा-अहिंसा
गा० १२१-१२२-१२३ ]
( ६१ )
पीड़ा करने वाली रहती है, इससे दोनों में समानता है ।
t "पीडा से अधर्म होता ही है," ऐसा नियम भी नहीं है ऐसा नियत नियम नहीं. जो ऐसा नियम रखा जाय, तो वैद्य के कार्य में दोष-आ जाय, ( क्योंकि - छेदन भेदनादि से पीडा करने पर अधर्म हो जाय किन्तु उसमें अधर्म नहीं कहा जाता है । क्योंकि - रोगी को बचाने की अहिंसा फलित होती है" ॥१२०॥
विशेषार्थ
•हित करने वाला वैद्य का औषध - से पीडा की उत्पत्ति होने पर भी, व्रण के छेदन - भेदन आदि से अधर्म नहीं होता है ।।१२० ॥
"अह, तेसिं परिणामे सुहं तु." "तेसिं पि सुव्वइ एअं" । तजणणे विण धम्मो भणिओ पर दारगाऽऽईणं." । १२१ ।।
+ " अब, (जिनभवानादि कराने में जीवों की हिंसा होने पर भी ) उन जीवों को परिणाम में - आखर में सुख होता है" ऐसा यदि कहा जाय, तो (यज्ञ में भी जिसकी हिंसा होती है) उन जीवों को भी (स्वर्गादि का सुख मिलता है) । ऐसा (शास्त्रों में ) सुना जाता है ।"
"सुख मिलने पर भी परस्त्री का सेवन करने वालों को भी धर्म नहीं होता है," ऐसा शास्त्र में कहा गया है । ( इससे सुख मिलने पर भी धर्म हो ऐसा नियम नहीं है | ) || १२१ ॥
"सिय" तत्थ सुहो भावो तं कुण माणस्स” “तुल्लमेअपि । इयरस्स वि सुहो च्चिय णेयो इयरं कुणंतस्स. " ॥ १२२ ॥
+ "ठीक है, किन्तु ऐसा कहा जायगा कि इसमें ( जिनभवनादि कराने में ) उसे करने वालों का शुभ भाव रहता है ।" "ऐसा आपका यदि कहना होगा" तो भी दोनों में समानता ही है । क्योंकि-वेद में कहे यज्ञ आदि के विधान से, वेद में कही हुई हिंसा को करने वाले दूसरों को भी शुभ भाव होता है, ऐसा जानना चाहिए" || १२२ ॥
"एगिदियाऽऽई अह ते" "इयरे थोध." “ता" किमेएणं ।"
“धम्म- ऽत्थं सव्वं चिय वयण एसा न दुट्ठ" त्ति. " ॥ १२३॥
+ ( कहा जायगा कि - ) “जिनभवनादि में एकेन्द्रिय आदिक जीवों की हिंसा होती है ।"
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गा० १२४-१२५ ]
(६२)
[ हिंसा अहिंसा
"तो यज्ञ में वेद से हिंसा थोड़े जीवों की ही होती है।" + “एसा आग्रह से" कहने का क्या है ? + "कहना यह है कि-समानता है। शास्त्र वचनों से (वैसी हिंसा भी) सभी धर्म
के लिए ही है। इस कारण से वह हिंसा दोष रूप नहीं है।" ॥१२३ : * इस प्रकार वादि ने अपना पक्ष स्थापित करने पर ( आचार्य श्री ) कहते हैं
"एयपि ण जुत्ति-खमं, ण वयण-मित्ता उ होइ एवमिअं.। .. ___ संसार-मोयगाण वि धम्मो-5-दोस-प्पसंगाओ. ॥१२४।। * "(तुमने जो कहा) वह युक्ति-पूर्ण नहीं है।" + "क्यों ?" * 'युक्ति रहित वचन मात्र से सभी (सत्य) नहीं हो सकता है।" .. * "क्यों ?"
"संसार-मोचक धर्म को मानने वालों का धर्म में दोष रहेगा नहीं। क्योंकि-वह निर्दोष बन जायमा" ॥१२४।।
विशेषार्थ संचार-मोचक धर्म को मानने वालों का मत है कि- "दुःखियों को मार देना चाहिए, जिससे वे दुःख से मुक्त हो जाय ।" वह तो बड़ा अधर्म है, तथापि वह भी बड़ा धर्म हो जायगा। और वह कृत्य निर्दोष ठहरेगा, और ऐसे ऐसे जो कार्य होगा, वह सभी निर्दोष-धर्म रूप ठहरेगा । इसे अति प्रसंग दोष इस बात में रहा है ॥१२४।।
"सिय, "तंण सम्म-वयणं.” “इयरं सम्म वयणं-ति" किं माणं ?"
"अह लोगो च्चिय" णेयं, [न] तहा(s-)पाठा, विगाणा य.” ॥१२५॥ * " ठोक है, किन्तु-"उन (संसार-मोचको) का वचन ठीक नहीं है।"
तो दूसरो का ( आपके शास्त्रकारों का ) वचन अच्छा है," इसमें कौनसा प्रमाण है ?" .
(आप कहोगे कि-) 'लोक ही प्रमाण भूत है।"
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गा० १२६-१२७ ]
(६३)
[लोक प्रमाण के विषय में
* "यह बात भी इस प्रकार नहीं है । क्योंकि इस प्रकार का कोई शास्त्रपाठ नहीं है ।
और “वेद वचन प्रमाण भूत हो" इस बात में भी लोक के वाक्यों की एकता नहीं हैं, ( सभी लोग वेद वचन को प्रमाण भूत मानते ही हैं, एसा नहीं है )" ॥१२५॥
विशेषार्थ लोक में छ ही प्रमाण माना गया है, लोगों को प्रमाण माना जाय, तो सातवां प्रमाण हो जायगा, ऐसा तो नहीं है । । १२५॥ 'अह, पाठोऽभिमओ च्चिय, विगाणमऽपि एत्थ थोवगाणं उ.।"
एत्थं पि ण पमाणं, सव्वेसिं अ-दसणाओ उ. ॥१२६।। : लोग को (प्रमाण मानने का) पाठ (उपलक्षण से) संमत है, और विरोध तो
वेद को प्रमाण मानने में थोड़े ही लोगों का है।" + "(तुम्हारी) यह कल्पना भी ठीक नहीं है-प्रमाण भूत नहीं है। क्योंकि- सर्व
लोगों को अपने देख सकते नहीं, (तो किस पक्ष में अल्प ? या बहुत लोग हैं ? एसा निर्णय नहीं किया जा सकता है । तो एसी तुम्हारी कल्पना ठीक नहीं है ।" ॥१२६॥
"किं तेसिं दसणेणं ? अप्प बहुत्तं जहित्य, तह वेव । सव्व-त्थ समवसेयं.” 'णेवं, वभिचार भावाओ.' ॥१२७ । “सर्व लोगों को देखने का क्या प्रयोजन है ? जिस तरह इस (मध्य) देश आदि में वेद वचनों को प्रमाण मानने के लिए सभी को देखना पड़ता नहीं।
जिस प्रकार चलता है, उस प्रकार और सभी देशों में भी समान ही है (यहां के लोग जिस तरह वेदों को प्रमाण मानते हैं, उसी तरह वहां भी मानते हैं।" 1. "एसा नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें व्यभिचार दोष आ जाता है" ।।१२०॥
विशेषार्थ "जिस तरह वेद वचनों को प्रमाण मानने वालों की संख्या यहां पर अधिक है, और प्रमाण भूत नहीं मानने वालों की संख्या अल्प है, उसी तरह और देशों में भी ऐसा ही समझ लेना चाहिए।" "ऐसा नहीं है ।" ॥१२७॥
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गा० १२८-१२९ ]
भाव का प्रामाण्य
इस बात को ही समर्थित की जाती है''अग्गा-5ऽहारे बहुगा दिसंति दिआ, तहा ण सुद्द"त्ति ।
ण य तहसणओ चिय सम्वत्थ इमं हवइ एवं ॥१२८॥ + ''अग्र भोजन में इस देश में बहुत ब्राह्मणों देखे जाते हैं, उसी प्रकार शूद्र लोग ब्राह्मण की तरह बहुत नहीं देखे जाते हैं।"
"ऐसा कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि इस देश में भोजन की आगे की पंक्ति में ब्राह्मणो को बहुत देखने पर भी, भील्ल-पल्ली आदि स्थानों में ऐसा (ब्राह्मण बहुत्व) देखने में आता नहीं" ||१२८।। + उसमें दूसरी युक्ति भी दी जाती है
“ण य" बटुगाणऽपि इत्थं अ-विगाणं सोहणं' ति नियमोऽथं."। - ण य "णो थोवाणं पि हु," मूढेयर-भाव-जोएणं. ॥१२९।। ___"लोक में बहुलोगों को एक वाक्यता ऐकमत्य अच्छा ही है,” एसा नियम नहीं है । और. "थोड़े की भी एक वाक्यता अच्छी नहीं है"। "एसा भी नियम नहीं है।" किन्तु-मूढ भाव से-इतर भाव का योग से जो हो, वह अच्छा होता है।" एसा नियम है ।।१२९।।
विशेषार्थ ____ बहु होने पर भी मूढ लोगों की एक वाक्यता अच्छी नहीं होती हैं, और "मूढ भाव से रहीत एक का भी कहना अच्छा होता है ।" अर्थात् जो नढ भाव से रहित भावसे-उसका योग से कहा गया हो, वह अच्छा हो सकता है।
मूह भाव से इतर भाव का योग का अर्थ यह है कि- मिथ्या ज्ञान और मोह से प्रयुक्त क्रोध, मानादि कषाय भाव और इंद्रियों की आसक्ति, इत्यादि मूढ भाव से प्रयुक्त रहते हैं। और सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, और सम्यक चारित्र । उसे मूढेतर भाव कहे जाते है। ऐसे मूढेतर भाव से प्रयुक्त जो निर्णय, विचार, वाक्य, प्रवृति, वे सभी अच्छे होते हैं ।
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गा० १३०]
( ६५ ) . [ "सर्वज्ञ-प्रमाता नहीं" पक्ष अर्थात्-बड़े लोगों का भी मूढ व्यापार होता है। और थोड़े का मूढ व्यापार भी न हो; एसा मालुम पड़ता है। "बहुत कबूतर चारों के दाने देख कर, चुगने के लिए एक स्थान पर उतर गये । किन्तु एक वृद्ध कबूतर ने निषेध किया, कि-ये दाने खाने कों जाना अच्छा नहीं है। तथापि-सब उतरे।
और बिछायी हुई जाल में सब फंस गये । तब सभो वृद्ध का मुंह ताकते रहे, चतुर वृद्धने कहा "यदि जाल के साथ सभी एक साथ उडे तों रक्षा होगी, अन्यथा, शिकारी आने पर सभी की मृत्यु अवश्यमेव होगी ही। सभी एक साथ उड़े और बच गये।"
इस कारण से, सामान्य समझ के भी बहुत लोगों का मतों को एकत्र करने से अच्छा ही निर्णय हो जाय, ऐसा कोई नियम नहीं है। उसमें से भी ज्ञानी-समझदार, निःस्वार्थी, हितेच्छु का मानने का रहता है । भारत में ज्ञानी और हितस्वी संत पुरुषो का संत शासन चलता है । और दूसरी प्रजा का हित के लिए इस देश की उन्नति करने में और स्थानीय प्रजा की अवनति करने में, "हितस्वी बड़े लोग बाधा कारी दरम्यान गिरी न कर सकें," इस हेतु से आम प्रजा को बीच में खड़ी रखने की योजना की गयी है. जिसे वह हिवस्वी वर्ग दूर रह जाय । जाहीर जीवन से उन्हों को हटाने के लिए ये सभी बाहर के लोगों का आयोजन है। यह सत्य रहस्य है । इस सत्य रहस्य को स्थिर करने के लिए यह प्राचीन गाथा कितनी प्रमाणभूत और दृढतर है ? ऐसा शास्त्र प्रमाण-प्रजा का भला के लिए आज भी कितना मार्गदर्शक है ? यह शान्ति से सोचना चाहिए ।
* "ण य रागा-ऽऽहू-विरहिओं कोऽवि माया विसेस कारि" त्ति ।
"ज सव्वे वि अ पुरिसा रागा.ऽऽइ जुआ उ.” पर-पक्खे. ॥ १३० ।। * "सत्य को समझाने वाला और रागादि दोष से रहित तथा सर्व को जानने वाला विशेष कारी माता-प्रमाता-जाता है हो नहीं ! इस कारण से इस-जगत् में सभी मानव रागादि युक्त है," इस तरह का मत दूसरे पक्ष का-मीमांसक दर्शन का-है। क्योंकि वह दर्शन कोई सर्वज्ञ होने को स्वीकार नहीं करता है।" ।। १३०॥
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गा० १३१-१३२-१३३]
( ६६ ) म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ?
विशेषार्थ रागादि रहित ऐसा कोई सर्वज्ञ नहीं है. कि-जो "वैदिक वाक्य हो प्रमाण भूत है, दूसरे दाक्य प्रमाण भूत नहीं." ऐसा बता सके । १३१ । दूसरा भी दोष बताया जाता है
"एवं च वयण-मित्ता धम्मा-5-दोसा.ऽऽइ मिच्छगाणं पि ।
घायंताणं दि-अ-वरं पुरओ गणु चंडिगा-ऽऽइणं. ।। १३१ ।। : 'इस प्रकार (प्रमाण विशेष नहीं मिलने से भी ) वचन मात्र से म्लेच्छ (भील्ल) आदि की प्रवृत्ति को धर्म-रूपता और निर्दोषता प्राप्त हो जाती हैं ।
अरे ! चंडिका देवी आदि के आगे अच्छे ब्राह्मण का भी घात करने वाले म्लेच्छादि की प्रवृत्ति धर्म रूप और निर्दोष सिद्ध हो जाती है, जो ठीक नहीं है ॥ १३१॥
"न च तेसि पि ण धयणं एत्य निमित्तं" ति, जण सव्वे उ : तंतह घायंति सया, अ-स्सुअ-तच्चोयणा-वक्का." ॥ १३२ ।। "इस (द्विजवर के घात) में उन्हीं का भी वचन निमित्त भूत नहीं है, एसा भी नहीं है। वचन निमित्त भूत रहता है। क्योंकि- सभी म्लेच्छ लोग उसी प्रकार सदा के लिए उस (द्विजवर ) का घात करते नहीं हैं, क्योंकि- उत्त विषय में प्रेरक [नोदना ] वाक्य जिन्होंने न सुना हो, वे घात करते नहीं है !" अर्थात्-"उस घात में भी-वचन को प्रेरणा निमित्त भूत है। ऐसा समझना चाहिये" ॥१३२॥ ..
"अह-"तं ॥ एत्थ रूढ़" "एअंपि ण तत्थ. तुल्लमेवेयं."।
"मह" सं थोषमणुचियं" "इमं पि एयारिसं तेसिं ॥ १३३ ॥" + “यदि ऐसा माना जाय कि-वह ( मलेच्छ प्रतर्वक वचन ) इस (लोक) में रूढ नहीं हैं !" तो यह ( वैदिक वाक्य ) भी उस (भोल्ल लोक) में रूढं नहीं है" इस कारण से दोनों दलीलों को समानता रह जाती है। क्योंकि दोनों भी वचन एक एक में रूढं नहीं है" !
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गा १३४-१३५ ]
( ६७ ) ( म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ?
: "उस ( म्लेच्छ पर्वतक वचन ) तुच्छ और अनुचित ( असंस्कारि ) है।"
यदि ऐसा कहा जाय. + तो, उन (मलेच्छों) को दृष्टि में आशय भेद से इस (प्रेरक वैदिक वाक्य) में भी इस प्रकार की (तुच्छ और अनुचित आदि रूप) स्थिति रह जाय" ।।१३३।।
[गा० १३४ और गा, १३५ को अवचूरिका का भाव बराबर समझ में आता नहीं है, और जिस प्रकार से प्रतिमाशतक में छपा गया है, उस प्रकार का ही पाठ कलकत्ता के तपागच्छीय पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रति. में है, अर्थात दोनों गाथा की योग्य अवचूरिका नहीं है। किन्तु दोनों गाथा के आगे अवतरणिका के रूपसे कुछ पाठ दिया गया है। तथापि-दोनों गाथा को छाया बनाकर अर्थ की संगति करने के लिए प्रयास किया गया है। और पंचवस्तु महाग्रन्थ में जिस तरह दोनों मूल गाथायें
और उनकी अवचूरिका है, वेसी ही यहां पर दी गई है। इसका कोई उपाय नहीं है । सम्पादक ]
["अह तं वेयः गं खलु" “न तंपि एमेव" 'इत्थ वि ण माणं ।" - 'अह-तथाऽ-सवणमिणं" सि ए [अ-ए] मुच्छिन्न-साहं तु." । १३४ ॥
: "अब कहा जाता है कि उस द्विज प्रर्वतक वाक्य वेद का अंग रूप है।" : "तो म्लेच्छ प्रर्वतक वाकय भी वेद में न हो, उसमें कोई प्रमाण महीं है।" + "वेद में ऐसा कोई वनन सुनने में आता नहीं है।" + (सुनने में न आवे ऐसा भी) हो सकता है, किन्तु, (इसका कारण यह भी कहा जाय कि (वेदों की) बहुत सी शाखायें उच्छिन्न (हो गई) है,' (ऐसा कहा जाता है। उसी कारण से ऐसा वचन सुनने में न भी आवे ।)" ऐसा वे भी कह सकते हैं ।" ।।१३४।।
"ण य तव्वयणाओ चिय तदुमय-s-भावो ति, तुल्ल भणिईओ."।
अण्णा वि कप्पणेवं साहम्म-विहम्मो दुहा. ॥ १३५ ॥ ' कहा जाय कि-"उस (वेद) वचन से ही वे दोनों (धर्म और दोषामाव) नहीं हो सकता है ।" क्यों ?
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गा० १३४-१३५ ]
( ६८ ) म्लेच्छों का वचन क्यों प्रमाण नहीं ? म्लेच्छ के वचन से ही ये दोनों-- धर्म और दोषाभाव रहता है। ऐसा भी कहा जा सकता है।
(मलेच्छ वचन से) भी धर्म और दोषाभाव नहीं हो सकता है।" ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि- मलेच्छ प्रर्वतक वचन से भी वे दोनों (धर्म और दोषाभाव) कहा जा सकता है । (एक पक्ष की युक्ति दूसरे पक्ष में
लागू की जाती है। : और इस कारण से ही दूसरी भी कोई कल्पना की जावे, वे सभी उपरोक्त
रोति से बराबर नहीं होगी. क्योंकि- कोई साधर्म्य से, और कोई वैधर्म्य से दूषित सिद्ध हो जायगी।
भाव यह है कि- इस चर्चा में-जो जो दलील दी जायगी वहसाधर्म्य और वैवयं की दलीलों से दूषित बतलाई जा सकती है । अर्थात् जोब्राह्मण के पक्ष में दलील दी जायगी, उस को म्लेच्छ के पक्ष में घटा कर साधार्य रूप से खंडित की जा सकती। अथवा-वैधर्म्य बतला कर भी खंडित की जा सकती, कि-'आप की दलील प्रस्तुत में बराबर बैठती नहीं।" ऐसा प्रमाण बतलाकर खंडित की जा सकती है। क्योंकि- मूल वस्तु की क्षति सर्वत्र ऐसी ही रह जाती है । यह रहस्य है ॥१३४, १३५॥ .
"अह तं ण वेइअं खलु" "न तंपि एमेव एत्थ वि ग माणं, ।" ''अह तत्थाऽ सवणमिदं हविज्ज. उच्छिपण साहत्ता. ॥१३४॥ ण य तविवज्जणाओ उचिय-भावोऽत्थ, तुल्ल-भणिईओ. ।
अण्णा वि कप्षणाइ साहम्म विहम्मओ दुट्ठा. ॥ १३५ ॥ ('अथ-तद्-न वैदिकं खलु" "न तदापि एवमेव, अत्राऽपि न मानम्." । "अथ तत्राऽ-श्रवणमिदं भवेत्, उच्छिन्न-शाखत्वात्. ॥ इ३४ ।। न च तद् विवर्जनात् उचित-भावोऽत्र, तुलय-भणितितः । अन्याऽपि कल्पना साधर्म्य वैधर्म्य तो दुष्टा ॥ १३५ ।। (?).
(प्रतिमाशतक की दो गाथा का पाठ इस तरह है- समझ में न आने से अर्थ नहीं किया है।)
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( ६९ )
गा० १३६-१३७-१३८ ।
* जिन कारणों से इस प्रकार की स्थिति है
"तम्हा ण वयण मित्तं सव्वत्थ-विसेसओ बुह-जणेणं । एत्थ पवित्ति णिमित्तं. एअं दट्ठव्वयं होइ . " ।। १३६ ।।
| वचन मात्र प्रर्वतक नहीं
'उन उपरोक्त कारणों से विद्वान् पुरुष को, किसी खास विशेषता रहित पना से युक्ति शून्य - अर्थात् अघटमान वचन मात्र को "सर्वत्र इस लोक में हितकारी कार्यादि में प्रवृत्ति कराने में - कारण भूत नहीं है ।" एसा समझना चाहिए ।
चाहिये ।। १३६ ।।
''वचन - मात्रपना से हितकारी है ।" ऐसा नही
समझना
+ ( तब क्या करना चाहिए १ )
'किं पुण विसिगं चिय, जं दिट्ठिट्ठाहिं णो खलु विरुद्धं, । तह संभवं [त-रूवं] स-रूवं विभरिऊं सुद्ध-बुद्धिए. (९) ।। १३७ ।।
जो वचन विशिष्ट हो, उसको ही प्रवृत्तिनिमित्तक बनाना चाहिए ।
ऐसा वचन कौनसा हो सकता है ? जो दृष्ट से और इष्ट से विरुद्धवचन रूप न हो, ऐसा तीसरा स्थान में रहा हुआ हो, और संभवित-स्वरूप वाला हो । ( अर्थात् अत्यन्त असंभवित स्वरूप वाला न हो) । सद्बुद्धि से ( मध्यस्थ बुद्धि से ) विचार कर, एसे वचन को प्रवृत्ति निमित्तक बनाने में स्वीकार करना चाहिए || १३७॥
+ ( दृष्टान्त दिया जाता है -- )
"जह इह, दव्व त्थयाओ भावा ऽऽवय- कप्प-गुण- जुया उ [जुआ सेओ ] जयणाए पिडुवगारो जिण भवण-कारणा दित्ति (दु" - इत्ति) न विरुद्धं ॥ १३८
जिस प्रकार इस ( जैन प्रवचन में कहा गया है कि - "भावापत्ति निस्तार गुण युक्त द्रव्य स्तव से कल्याण है । क्योंकि- पिडा होने पर भी जिन भवन करना - कराना आदि द्रव्य स्तव से - ( यतना पूर्वक) पीडा करने-कराने से
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गा० १३९.१४०
। भावापत्ति निस्तार गुण
भी उपकार रूप बहु गुण होता है।" ऐसा जो वचन है, सो विरुद्ध नहीं है। इस कारण से-एसा वचन का विरुद्ध-वचन-पना समझना न चाहिये ॥१३८|| * इसकी स्पष्टता की जाती है,
सहसव्वत्थाऽ-भावे जिणाणं, भावा-55-वयाए जीवाणं. तेसिं नित्थरण-गुणं णियमेण इह तवा-ऽऽययणं. ॥१३९॥
श्री जिनेश्वर देवों का सदा सद् भाव नहीं रहता है, और सर्वत्र विहरमानता नहीं रहती है।
इस कारण से-जीवों को भाव-आपत्ति रहती है। उन जीवों का (भावापत्तिओं से ) निस्तार करने के लिए, इस जगत् में जिन मंदिर अवश्य निस्तार करने वाला ( भाव आपत्तिओं से जीवों को दूर कराने वाला) गुण युक्त होता है ।। १३९ । + (क्योंकि-)
तबिंषस्स पइट्टा, साहु-णिवासी अ, देसणा-55ई अ, । इविक्क भावा-ऽऽवय-नित्थरण-गुणं तु भव्वाणं. ॥ १४ ॥
___ वहां श्री जिनेश्वर प्रभु का बिब को (स्थापना) प्रतिष्ठा होती है, तथा वहां (किसी विभाग में) उस प्रकार के साधु महात्मा पुरुषों का निवास होता रहता है, और धर्म का उपदेश आदि भी चलता रहता है । ( आदि शब्द से धर्माचारण, ध्यान आदि समझ लेना।)
उसमें से- (प्रतिष्ठा आदि) एक एक भी भव्य जीवों की भावापत्ति को दूर करने में समर्थ होता है ।। १४० ॥
विशेषाः भावापत्ति का अर्थ राग द्वेष आदि भाव दोषों को समझना चाहिए । अर्थात्-अनुबध में जिन मंदिर आदि, राग द्वेषात्मक भावापत्तिओं को दूर करने में सहायक होते हैं भावापत्ति हटने से द्रव्यापत्ति हटती है ।।१४०॥
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गा० १४१-१४२. ]
(५१) । श्रारंभान्तर की निवृत्तिया * (पीडा कारी-पीडा करने वाली हिंसा पर विचार-)
पोडा-गरी वि एवं एत्य पुढवा-ऽऽइ-हिंस-जुत्ताओ.। अण्णेसिं गुण-साहण-जोगाओ दोसइ इहं तु [हेच] ॥१४१।।
पीडा करने वाली होने पर भी यहां पर जिन भवन कराने में पृथ्वी कायादिक जीवों की हिंसा होती ही है तथापि-वह योग्य है । क्योंकि- अन्य जीवों को स्व गुणों की साधना में वह कारण भूत है, गुणों की साधना जिन भवनादि से भी देखी जाती है । १४१ ।।
विशेषार्थ - जीवन में बिना हिंसा का कोई कार्य नहीं हो सकता है । कार्य तो दो प्रकार के रहते हैं। सांसारिक जीवन यापन प्रवृत्ति रूप, और आध्यात्मिक गुण प्राप्ति की प्रवृत्ति रूप । दोनों कार्यों में कुछ न कुछ स्वरूप में बाह्य हिंसा रहती ही हैं । इस स्थिति में-आध्यात्मिक गुण प्राप्ति रूप कार्यों में भी अनिवार्य रूप से हिंसा हो जाय,-करनी पड़े, उसको हिसा यों नहीं मानी जाती है, कि-परिणाम में उसी से गुण प्राप्ति होती है। गुण प्राप्ति का लाभ रूप हिंसा, अहिंसा बनती है । गुण प्राप्ति के लिए इतनी भी हिंसा बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है, जीस में थोडी भी बाह्य हिंसा न हो संपादक]।।१४१॥
आरंभवी य इमा आरंभ-तर-निवित्ति-दा पायं. । एवं वि हु अ-णियाणा इटा एसो धि मुकख-फला. : १४२ ।।
(सांसारिक कार्यों में ) आरंभ करने वाला जीवों के लिए, यह हिंसा प्रायः (विधि पूर्वक करने से) दूसरे आरंभो से निवृत्ति ( रुकावट ) रूप फल देने वाली है। और सांसारिक फल की इच्छा से रहितपना पूर्वक को जाने से ऐसी हिंसा प्रतीपक्षीयों को भी निर्दोष होने से-मान्य है । अर्थात्-मान्य रखनी ही पड़ती है ।
इस कारण से ही इस प्रकार की पीड़ा करने वाली प्रवृत्ति भी ( मात्र
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गा० १४३-१४४-१४५ j
७२ )
| वैद्य का दृष्टान्त
स्वर्गादि देने वाली न रहने पर) मोक्ष रूप भी फल देने वाली होती है || १४२॥
ता एम्म [ एईए] अ-हम्मो णो, इह जुत्तं पि विज्ज-णायमिणं । हंदि गुण -s तर भावा. इहरा. विज्जस्स वि अ-धम्मो ॥ १४३ ॥
इस कारण से इस प्रकार की पीड़ा में अधर्म नहीं है । क्योंकिइससे गुणों की प्राप्ति होती है ।
इस विषय में प्रथम दिया गया वैद्य का वह दृष्टांत भी योग्य माना गया है। क्योंकि - उसमें भी लाभ होता है. इस से वैद्य की प्रवृत्ति (छेदन-भेदनादि पीड़ाकारी होने पर भी ) योग्य मानी जाती है।
यदि, वैद्य भी (लाभ प्राप्त न हो ) इस प्रकार अविधि से (छेदनभेदनादि करे, तो ऐसी पीड़ा करने में) वैद्य को भी अधर्म होता है || १४३॥ * (वेद विहित हिंसा और जिन भवनादिगत हिंसा में भेद का प्रतिपादन - ) ण थ वेद्य-गया चेवं सम्मं, आवय-गुण Sन्निया एसा ।
णय दिट्ठ- गुणा, तज्ज्य-तय-ऽंतर णिवित्ति दा [आ] नेव । १४४ ॥
-
.
इस कारण से - वेद गत हिंसा. जिन भवनादि गत हिंसा के समान अच्छी नहीं है। क्योंकि वह हिंसा आपद निवारण गुण युक्त नहीं हैं अर्थात् अनिवार्य नहीं है। और साधु निवास आदि गुणोयुक्त भी नहीं देखी जाती । और हिंसा के बाद आरंभादि दूसरी प्रवृत्ति से निवृत्ति देने वाली भी वह हिंसा नहीं है । और पहिला भी निवृत्ति देने वाली नहीं रहती हैं. क्योंकि याज्ञिक लोक प्राणि के वध में आरंभ से प्रवृत्त रहते हैं ।। १४४ ।।
" य फलुद्दस - पवित्तिओ इयं मोक्ख साइगा वि" ति. । मोक्ख फलं च सु-वयणं, सेसं अस्था-SSइ-वयण समं । १४५ ।।
फल का उद्देश्य रखकर हिंसा की जो प्रवृत्ति की जाती है, उससे विचार किया जाय तो भी, उस हिंसा मोक्ष देने वाली भी नहीं सिद्ध होती है !
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गा० १४६- ]
(७३ )
[ हिंसा धर्म न हो सके
क्योंकि श्रुति में ही कहा गया है कि "स्वर्ग की इच्छा वालों को श्वेत और वायव्य (?) बकरे को मारना चाहिए ।"
॥ श्वेतं वायव्यम अमाऽऽलमेत भूति कामः ॥
" मोक्ष का फल तो " इत्यादि प्रकार का श्रुति का वचन है। सुवचन सु आगम दे सकता है ।
दोष वचन - अर्थ - काम आदि देने वाला बच्चन समान रहता है, स्वर्गादि फल मिलने पर भी अर्थ शास्त्रादि के वचन समान रहता है । मोक्ष-फलक सुवचन नहीं रहता है ॥ १४५ ॥
+ "यहां पर, आगम से विरोध भी बतलाया जाता है
"अग्गी मा एआओ एणाओ मुचउ" सि य सुई वि. 1 atra-फला "अंधे तमम्मि " इच्चा - SSइ व सई वि. ।। १४६ ।। "वेद में श्रुति में - वाक्य है, कि"अग्निर्मामेतस्मादेन सो मुञ्चतु ।"
"अग्नि मेरे को इस पाप से मुक्त करा दो ।"
( यहां " मुञ्चतु " शब्द का अर्थ छादंस होने से "मुक्त करा दो" ऐसा होता है ! अर्थात् "हिंसा पाप का फल से मुक्त करा दो ।" यह भाव है । और "अन्धे तमसि ०"
-इत्यादि स्मृति का वाक्य भी है ।। १४६ ॥
विशेषार्थ
“ अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहेः ।
"हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ " इस प्रकार स्मृति का भी वाक्य है ।
"हम लोग पशु से जो यज्ञ कर रहे हैं, तो अन्धकार मय तमस् नामक नरक में डूब रहे हैं ।" “हिंसा धर्म नहीं हो सकता है, भूतकाल में नहीं हुआ है, और भविष्य में भी नहीं होगा ।" [अपेक्षा समझनी चाहिये । सं० ]
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गा० १४७-१४८-१४९ ] (७४ )
[ हिंसा में तार-तम्य "अत्थि जओ, ण य' एसा अण्ण-ऽत्थ [तीरह] सकए इहं भणि । अ-विणिच्छया, ण चेवं इह सुव्वइ पाव-वयणं तु. ॥ १४७॥
"इस प्रकार स्मृति और श्रुति के वाक्य विद्यमान तो है, किन्तु, "उनके दूसरे अर्थ होते हैं, कि-"अविधि दोष से उत्पन्न हुआ पाप से बचाने का अर्थ है ।"
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि-ऐसा कोई प्रमाण नहीं है ।" * और, श्री जिन भवनादिक कराने में इस प्रकार के कोई पाप वचन इस शास्त्र में-जैन शास्त्र में-प्रवचन में-तो नहीं सुना जाता है । १४७ ।। "परिणामे य [म-सु] सुहं णो तेसिं इच्छिज्जइ. णय सुहं पि. । मंदा-5-वत्थ कय-समं. ता तमुवण्णोस-मित्तं तु. ॥ १४८ ॥
"जिन भवनादि कराने में जिन जीवों की हिंसा होती है, उन जीवों को परिणाम में हिंसा-निमित्तक सुख होता है।" ऐसा जैन शास्त्राकार भी मानते नहीं है।
और हिंसा से सुख मानते नहीं है । थोडा थोडा कुपथ्य करने से उतना दुःख मालम नहीं पड़ता है, किन्तु, वह भी परिणाम में भयंकर दुःख देने वाला होता है। उसी प्रकार-मंद कुपथ्य करते समय भी सुख का अनुभव रहता है । किन्तु वह भी वास्तव में सुख नहीं है । इस कारण से उसको सुख कहना वचन मात्र ही रहता है ।। १४८ ।।
"अह तेसिं परिणाम० [१२१]" गाथा में पूर्व पक्षकार ने जो कहा था, उसको स्पष्टता इस जवाब से की गई है।
"यज्ञ में होमे गये पशुओं को परिणाम में स्वर्ग का सुख दिया जाता है।" ऐसा भी कहना योग्य नहीं । हिंसा का विपाक दारूण होता है ।।१४८॥ + 'इय दिट्ठ-विरुद्धं जं वयणं, एरिसा पवत्तस्स. । मिच्छा-ऽऽइ-भाव-तुल्लो सुह-भावो हंदि विण्णेयो'. ॥ १४९ ॥
इस प्रकार दृष्ट और इष्ट से विरुद्ध जो वचन हो, ऐसा वचन से, प्रवृत्ति करने वाला जो हो, उसका शुभ भाव म्लेच्छादि के शुभ भाव समान
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गा० १५०-१५१-१५२ ]
( ७५ )
[ हिंसा का अल्प बहुत
मोह से अज्ञान से- शुभ भाव माना गया समझना चाहिए । अर्थात् वह शुभ भाव नहीं हो सकता है ॥ १४९ ॥
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+ "एगिदिया sss अह ते [१२३]" जिन भवनादिक में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिसा होती है, ओर जीवों की हिंसा नहीं होती है।" ऐसा जैन पक्ष का खंडन करने के लिए कहा जाता है, कि - "यज्ञ में बड़े भी थोड़े जीवों की हिंसा होती है और जिन भवनादि में एकेन्द्रिय आदि बहुत जीवों की हिंसा होती है ।" ऐसा कहकर जिन भवनादि में पूर्व पक्षकार ने अधिक हिंसा बतलायी है । अब उसका परिहार करने के लिए समाधान किया जाता है, कि"ए गिंदियो - SSइ भेयोऽवित्थ णणु पाव- -भेय-हेड." त्ति
इट्ठो तए वि स मए तह सुद्द दि-आ- SSह - भेणं. ।। १५० ।।
इस प्रसंग में एकेन्द्रिय आदि का जो भेद (जैन शास्त्रों में) बताया गया है, वह पाप का भेद बतलाने के लिए ही है । इससे ये भेद बतलाना यहां इष्ट है, कि छोटे जीवों की हिंसा से बड़े जीव की हिंसा में अधिक हिंसा दोष है। इस कारण से तुम्हारे मत में भी यह इष्ट मानकर, शुद्र, द्विज, इत्यादि भेद बतलाये गये हैं ।। १५० ॥
+ वही कहा जाता है
"सुद्दाण सहस्सेणऽविण बंभ-हच्चेह घाइएणं" ति । जह, तह अप्प - बहुत्तं एत्थ वि गुण-दोस- चिंताए ।। १५१ ।।
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" हजार शुद्र मारने पर भी जिस तरह तुम्हारे शास्त्र में एक ब्रह्म हत्या का भी पाप नहीं होता है । उसी प्रकार यहां पर हिंसा के गुण दोष के विचार में अल्पपना का और बहुपना का विचार समझना चाहिए || १५१ ।।
+ ( और एकेन्द्रियादिक जीवों की हिंसा पञ्चेन्द्रियादिक की हिंसा से अल्प हिंसा है, और यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों को ओर अल्प हिंसा लगती है, यह कहा जाता है, - )
"अप्पा य होइ एसो एत्थं जयणाए वहमाणस्स". 1
"जयणा उ धम्म- सारो विष्णेया सव्व- कज्जेसु." ॥ १५२ ॥
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गा० १५२-१५३-१५४ ]
( ७६ )
[ यतना का सामर्थ्य
इस जिन भवनादिक बनाने में यतना से प्रवृत्ति करने वालों को यह हिसा भी अल्प लगती है ।" क्योंकि- 'ग्लानादिक की सेवा आदि सभी कार्यों में यतना हो धर्म का सार-रूप है ।" ऐसा समझना चाहिए ।
विशेषार्थः यतना और भाव शुद्धि से प्रवृत्ति करने में हेतु हिंसा और अनुबंध हिंसा नहीं होती है । इस कारण से मात्र स्वरूप हिंसातक हिंसा मर्यादित रह जाती है । उस कारण से उसमें अल्प हिंसा होती है । उस हेतु से थोड़ा भी कर्मबंध नहीं होता है । इस दृष्टि से "इट्ठा एसा वि मोक्ख-फला ।" [१४२] इस गाथा में-उस हिंसा को मोक्ष फल को देने वाली होने से इष्ट मानी जाने का पूर्व ही कहा गया है ।
इस बात का प्रमाण भी दिया जाता है-- "अणुमित्तोऽपि ण कस्सऽइ बन्धो वर वत्थु पच्चया भणिओ.' । इति सैद्धान्तिकाः ॥ १५२ ।।
"उत्तम वस्तु निमित्तक किसी को भी अणुमात्र का भी बन्ध नहीं होता है।" एसा सिद्धान्तकारों ने कहा है ।। १५२ ॥ "जयणेह धम्म-जण्णा. जयणा धम्मस्स पालणी चेव. । तव्वुडिढ-करो जयणा. एग ति सुहा-ऽऽवहा जयणा." || १५३ ।।
(१) इस जगत् में पतना धर्म की माता है। (२) यतना धर्म को जन्म देकर उसका पालन भी करती है । (३) यतना धर्म को बढ़ाने वाली है ।
(४) यतना सभी ओर से कल्याण करने वाली होने से, एकान्त से सुख करने वाली है ।। १५३ ।। (यसना का महत्व को अधिक स्पष्टता-) "जयणाए वट्टमाणो जीवो समत्त-णाण-चरणाणं । सद्धा-बोहा-ऽऽसेधण-भाषेणाऽऽराहगो भणिओ. ॥१५४॥
यतना में वर्तने वाला जोव (आत्मा) श्रद्धा, बोध, और आसेवना-पालन
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गा० १५५-१५६-१५७-१५८-१५९-१६०]
(५७)
[ यसना का महत्त्व
करने से सम्यक्त्व, जान और चारित्र उन तीनो का आराधक कहा गया है ॥ १५४ । एसा य होइ णियमा तय हिग-दोस-विणिवारणी जेण.। तेण णिवित्ति-पहाणा विष्णेया बुद्धि मंतेणं. ॥ १५५ ॥
ऐसी यतना अनुबंध हिंसा रूप अधिक दोषों को नियम से अटका देती है। इस कारण से-इस यतना को बुद्धिमान आत्मा ने वास्तविकतया निवृत्ति अर्थात् मोक्ष रूप मुख्य फल को देने वाली समझनी चाहिए ॥ १५५ ॥ * (जिन भवनादिक में यतना किस प्रकार की जाती है ? यह बताया जाता है-) सा इह परिणय जल-दल-विसुद्ध-रूपा उ होई विण्णेयाः । 'अत्थ-व्वओ महंतो, सव्वो सो धम्म-हेउ ति" ॥ १५६ ॥ __. "जिन भवनादिक के निर्माण कार्य में छाना हुआ जल और विधि से लिया हुआ दल (पदार्थों) की विशुद्धि आदि रूप यतना होती है।" ऐसा जानना चाहिए । क्योंकि-प्रासुक पदार्थों का ग्रहण करने का रहता है।
और इसमें यद्यपि धन का खर्च भी बड़ा होता है। तथापि-वह सभी धर्म के कारण भूत बनते हैं । क्योंकि-उस धन का उपयोग अच्छे स्थान में ही किया जाता है ॥ १५६ ॥ प्रसग से इस विषय में कुछ अधिक कहा जाता है:"एत्तो चिय णिहोसं सिप्पा-ऽऽइ-विहाणमो जिणिवस्स। लेसेण स-दोसं पिहु बहु-दोस-णिवारणत्तेणं. ॥ १५७ ।। वर बाहि-लाभओ सो सबुत्तम-पुण्ण-संजुओ भयवं, । एग-ऽत-पर-हिअ-रओ, विमुद्ध-जोगी, महा-सत्तो. ॥ १५८ ॥ जं बहु-गुणं पयाणं, लं जाऊण, तहेव दंसह [वैसेह], । ते रक्खंतस्स तओ जओचिअं, कह भवे बोसो ? ।। १५९ ।। तत्थ पहाणो अ अंसो बहु-वोस-मिवारणेह जग-गुरुणो । नागा-इ-रक्खणे जह कडूढण-वोसे वि मुह-जोगो. ॥ १६ ॥
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गा० १६१- ]
( ७८ )
[ थोड़ा दोष भी लाभप्रद
एवं णिवित्ति - पहाणा विष्णेया तत्तओ अहिंसेयं. । जयणावओ उ विहिणा पूआ - SSइ-गया वि एमेव ।। १६१ ।। " + इन गाथाओं की व्याख्या- 'यतना का कारण से ही
थोड़े अंश में सदोष होने पर भी, श्री (आदि) जिनेश्वर देव ने शिल्प आदि का जो विधान किया है, वह यतना पूर्वक होने से निर्दोष है। क्योंकिअनुबंध में - परिणाम में बहुत दोषों का निवारण करने वाला रहता है ।। १५७ ।।
वही बात कही जाती है, वह जिनेन्द्र भगवान् उत्तम बोधि की प्राप्ति से लेकर सर्वोत्तम पुण्य युक्त होते हैं, और उसी प्रकार का स्वभाव वाले होने से एकान्त से दूसरे जीवों के हित में तत्त्पर रहते हैं । प्रभु योग विशुद्ध योग वाले और महा सात्त्विक थे ।। १५८ ।।
-
इस कारण से, प्रजा की रक्षा के लिए (प्राणियों की रक्षा के लिए भी) जो अधिक गुणकर - फायदा पहुंचाने वाला हो, ऐसा समझकर उसको ही प्रभु बतलाते हैं । जिसको अनुबन्ध से जैसा योग्य हो, वही बतलाते हैं । तो उसमें किस प्रकार दोष हो सकता है ? ॥ १५९ ॥
वही स्पष्ट किया जाता है— उस ( शिल्पादि विधान बताने) में जगद्गुरु का प्रधान अंश इस जगत् में बहुदोषों की रुकावट करने को रहता है ।
जिस तरह खड्ड में पड़े हुए पुत्र का जीवन का सर्प से रक्षण करने के लिए माता बालक को खींच लेती है, और कंटकादि लगने से दुःख भी उत्पन्न होता है तथापि, शुभ योग होने से यह खींचना दोष रूप नहीं होता है । किन्तु बहुदोषों का निवारण रूप होता है ।। १६० ।।
विशेषार्थ
एक बालक खड्ड े में गिर गया । सामने से बिल से निकल कर एक विषैला सर्प आ रहा था । माता ने पुत्र की परिस्थिति जान ली । शीघ्रता से दौड़ कर खड्ड े से पुत्र को हाथ पकड़ जल्दी से खींच लिया गया । पुत्र के शरीर में कांटे लगे, घर्षण से कुछ रुधिर भी निकला । ये दोष हुवे भी । किन्तु, पुत्र को
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गा० १ -१६३ ]
( ७९ )
[ उपकार का अभाव हिंसा भी
मरण से बचा लिया, इस हेतु थोड़ा दोष होने पर भी, जीवन दे कर बहुत अंश में लाभ ही उठाया गया ।
उसी प्रकार - मिथ्यत्व कषाय-विषय लोलुपता आदि सांसारिक भावों में डूबे हुए लोगों को - धंधे, शिल्प, विवाह मर्यादा, राज्य तन्त्र आदि मार्गानुसरि मर्यादित जीवन मार्ग में स्थिर करने से - बहुत से दोषों से निवृत्त कर, बहुत से पाप से प्रजा को बचा ली है ।
ह० जिस तरह - विवाह से एक आदि पत्नी नियत रहने से पशुओं की तरह अनियत काम भोग अटक जाता ।
इस प्रकार अनुबन्ध की अपेक्षा से वह (जिन भवनादिक बनाने में होती ) हिंसा निवृत्ति प्रधान होने से, वास्तविकतया अहिंसा जाननी चाहिए ।
उसी प्रकार - यतना युक्त आत्मा से विधि पूर्वक की जाने वाली जिनपूजा आदि में होने वाली हिंसा भी तत्व से अहिंसा जाननी चाहिए ।। १६१ ॥ और दूसरा भी (जिन पूजा के विषय में ) प्रासंगिक कहा जाता है, कि"सिय, " आओवगारो ण होइ कोऽचि पुअणिज्जाणं, ।
कय
- किच्चत्तणओ, तह जयिह आसायणा चेवं ।। १६२ ।।
पूर्वपक्षकार का प्रश्न है कि- "भले ही पूजा में अहिंसा मानों, किन्तु, जिन पूजा से किसी को कोई लाभ होने वाला है ही नहीं। वे वीतराग होने से कृतकृत्य है, तो उसी प्रकार उन्हीं की पूजा करने से उसकी आशातना ही होती है। क्योंकि - पूजा करने से पूज्य का अ. कृत-कृत्य पना दिखाया जाता है । जिससे - आशातना होती है, अपमान होता है ।। १६२ ।।
ता अहिगणिवन्तीए गुणंतरं णत्थि एत्थ नियमेण ।
इय एय-गया हिंसा सदोसमो होइ णायव्वा." ।। १६३ ।।
इस कारण से पूजादिक में हिंसादि की अधिक निवृत्ति न होने से,
-
दूसरा कोई लाभ ही नहीं है । इस कारण से - पूजादि में की जाती हिंसा सदोष जाननी चाहिए, क्योंकि - उससे किसी का भी उपकार नहीं होता है" ।। १६३॥
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गा० १६४-१६५-१६६-१६७ ] (८०) [ अनाशातना और अहिंसा
विशेषार्थ पूज्य की आशातना होती है, और पूजक को हिंसादि में प्रवृत्त रहना पढ़ता है । ऐसे दुर्बल तर्क रख दिये गये हैं ॥ १६३ ।। * इस विषय में जवाब दिया जाता है, कि
"उवगारा--भावेऽपि हु चिंता-मणि-जलण-चंदणा-ऽईणं । विहि-सेवगस्स जायइ तेहिं तो सो- पसिद्धमिणं. ॥ १६४ ।।
चिन्तामणि रत्न, अग्नि और चन्दनादिक को उपकार न होने पर भी उन्हीं का विधिपूर्वक सेवन करने वाला पुरुष को उन्हीं से उपकार-लाभ होता ही है । यह बात लोक में प्रसिद्ध भी है।
रत्न से दारिन्ध जाता है, अग्नि की सेवा से शीत मिटता है । चन्दन का .' उपयोग करने से उष्णता दूर होती है । वे लोक प्रसिद्धि से जड़ होने पर भी उन्हीं को सेवा से उपकार-लाभ होता है न ?” ॥ १६४ ।। इअ कय-फिच्चेहितो तष्भावे णस्थि कोइवि विरोहो.। एत्तोच्चिअ ता (ते) पुज्जा का खलु आसायणा तीए ? ॥ १६५ ॥
इस प्रकार-कृतकृत्य पूज्यों (की पूजा) से भी उपकार होता है । इस कारण से-उनको पूजा में कोई विरोध नहीं है।
इस कारण से-कृतकृत्य. गुण को धारण करने वाले होने से वे भगवंत पूज्य है । तो उन्हीं की पूजा से कौनसी आशातना ? ॥ १६५ ।। (और भी लाभ बताये जाते हैं-)
अहिगरण-[ग-णि] णिवित्ति वि इहं भावेणाऽहिगरणा णिवित्तिओ. । तहसण-सुहजोगा गुण-तरं तीए परिसुद्धए ॥ १६६ ॥
(जिन पूजा में) भाव से अधिकरणों की आरंभादिक को निवृत्ति रहने से अथिक (दोष) निवृत्ति भी होती है । और उनके दर्शन में शुभ योग का उपयोग होने से उस पूजा से ओर शुद्ध गुणों की प्राप्ति भी होती है ।।१६६।।
ता एम-गया चेवं हिंसा " गुणकारिणि" ति विन्नेआ. । तह मणि-णायओघिय एसा अप्पेह जयणाए. ॥ १६७ ।।
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गा० १६८-१६९ ]
(८१) [ पौरुषेय-अपौरुषेय-विचार उसी कारण सें-पूजागत हिंसा को भी “गुणकारी' समझना चाहिए। जिसके लिए आगे (१५५) की गाथा में न्याय बतलाया गया है, उसे जाना जाता है, कि-अधिक दोषों की निवृत्ति में निमित्त भूत बनने से, और यतना से, यहां-जिन पूजादिक में अल्प ही हिंसा होती है ।। १६७ ॥ * (संभवत् स्वरूप का उपसंहार-)
"तह, संभवंत-रूवं सव्वं सव्व-पणू - वयणओ एअं.। तं णिच्छि कहिआ-ऽऽगम-पउत्त-गुरु-संपयाएहिं. ॥ १६८ ।।
तथा, (उपरोक्त) सभी सर्वज्ञ के वचन से संभवित स्वरूप वाला है। असंभवित नहीं है। - और-"संभवत्-स्वरूप वाला है," ऐसा निर्णय भी कथितागम (अथवा हितागम अथवा आगम) से चली आती गुरु संप्रदाय-परंपराओं से किया जा सकता है-किया गया है ।। १६८ ।।
विशेषार्थ जिन भवनावि में जिस प्रकार अहिंसादिक कहे गये हैं, वे सभी सर्वज्ञ के वचन से संभवत् स्वरूप वाले हैं- अर्थात् संभवित है।
श्री सर्वज्ञ से जाने गये पदार्थों का कथन से उत्पन्न जो आगम- उसके प्रेरक बल से उत्पन्न सतत चली आती गुरु संप्रदाय एवं गुरु परंपरा, उसे निर्णीत कर यह सभी कहा जाता है, इससे प्रमाण भूत भी है हो । १६८ ।। + (पौरुषेय अपौरुषेय की विचारणा)
"वेअ-वयणं तु नेवं. अ-पोरसेअंतु तं मयं जेण. । इअमऽच्च-त-विरुद्ध. "वयणं च." "अ-पोरसेअं च." ।। १६९ ॥
"वेद वचन इस प्रकार संभवत् स्वरूप वाला नहीं है । क्योंकि- उसको अपौरुषेय माना गया है। अर्थात् उसको रचने वाला-बोलने वाला कोई प्रथम पुरुष माना गया नहीं है।
'वचन है।" और फिर भी वह 'अपौरुषेय है।" यह ही परस्पर अत्यन्त विरुद्ध दिखाई देता ही है ॥ १६९ ।।
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गा० १७०-१७१-१७२ ] (८२ )
[ पौरुषेय-अपौरुषेय * यह स्पष्टतया समझाया जाता है
जं "वुच्चइ' त्ति "वयणं." पुरिसा--भावे उ णेवमेअंति.। ता तस्सेघाs-भावो णिअमेण अपोरसेअत्ते. ॥ १७० ॥
कि-जो "घोला जाय” उसको "वचन" कहा जाता है। यह व्युत्पत्ति सिद्ध (यौगिक) अर्थ का शब्द है। और पुरुष का अभाव से (कोई भी) वचन नहीं बोला जाता । इस कारण से- इस प्रकार अपौरुषेय माना जाय, तो वचन का संभव रहता ही नहीं ।। १७० ॥
विशेषार्थ __जो बोला जाता है, इससे उसका नाम 'वचन' रखा गया है। जो बोला न जावे, उसका नाम "वचन" नहीं है, इस कारण से वचन संज्ञा सार्थक रखी गई है । और जब वह-अपौरुषेय हो, तो वचन का अभाव रूप ही सिद्ध हो जाता है ।। १७० ॥ तव्यावार [विउत्तं] -विरहितं ण य कत्थइ सुव्वईह [इहं] तं वयणं. । सवणेऽवि य णा-ऽऽसंका अ-हिस्स-कत्तु भवाऽवेइ." ॥ १७१ ॥
किसी का बोलने का प्रयत्न बिना "वचन" कभी भी जगत् में सुनने में आता नहीं है, कदाच सुनने में आ भी जाय तो, "उसका बोलने बाला अदृश्य भी कोई होना चाहिए।" मन में सदा होती ऐसी शंका मन से दूर नहीं जाती है, क्योंकि-प्रमाण विना वह शंका किस तरह दूर हो जा सके ?" || १७१ ॥ "अ-दिस्स-कत्तिगं णो अण्णं सुव्वइ, कहं णु आसंका ?" ।
"मुव्वइ पिसाय-वयणं कयाइ, एअं तु ण सदेव" ।।१७२ ।। * "जिसका बोलने वाला अदृश्य हो, ऐसा कोई दूसरा वचन सुनने में आता हो नहीं, तो अदृश्य बोलने वाला की आशंका किस तरह हो सकती है ?"
(क्योंकि-विपक्ष देखने में आता नहीं, मात्र सपक्ष ही देखने में आता है । अर्थात्- जो बोलता है, वह किसी को भी देखने में आता ही है । "इससे अदृश्यकतक वचन नहीं मिलता है।")
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गा० १७३-१७४-१७५ ]
(८३) . [पौरुषेय अपौरुषेय + "पिशाच का वचन कभी भी सुना जाता है। और उसका बोलने वाला अदृश्य रहता है । तो वेद वचन इस प्रकार का भी नहीं है क्योंकि- उसको अपौरुषेय कहा गया है। इस स्थिति में अदृश्य पिशाच का वचन तो लौकिक वचन है, अपौरुषेय नहीं है। और अपौरुषेय वेद वचन सदा सुनने में नहीं आता है" ॥१७२।। ' "अपौरुषेय पने को स्वीकार कर लिया जाय, तो जो दोष आता है, वह यहां पर बताया जाता है"वण्णा-ऽऽय-ऽ-पोरसेअं." "लोइअ वयणाणऽवीह सव्वेसि."। "वेअभ्भि को विसेसो ? जेण तहिं एसऽ-सग्गाहो." ॥ १७३ ।। + "लौकिक वचनों के भी अक्षरादि की सत्ता जगत् में इस अपौरुषेय रूप से
सर्व ने मानी है। क्योंकि-अक्षरपना (और वाचकपना) आदि का इस जगत् में कोई उत्पन्न करने वाला नहीं है । इस कारण से वचन अपौरुषेय है।" + "इस रीति से तो लौकिक भी सभी वचन अपौरुषेय सिद्ध हो जाते हैं, तो, वेद वचन में क्या विशेषता है ? जिस कारण से- उसका अपौरुषेय पना मानने का इतना बड़ा भारी दुराग्रह रखा जाता है ?" ॥१७३॥
"ण य णिच्छो वि हु तओ जुज्जइ पायं कहिं चि सण्णाया ? " "जं तस्सऽत्थ-पगासण-विसएह अइंदिया सत्ती." ।।१७४ ॥ "कितनेक विषय में प्रायः सन्न्याय पूर्वक (अपौरुषेय) वेद वाक्यों से (अर्थ का) निर्णय भी घट सकता नहीं है।" * "(क्यों नहीं घट सकता है ?) क्योंकि-अर्थ प्रकाशन के विषय में वेद वचनों की अतीन्द्रिय शक्ति है ॥१७४॥
"णो पुरिस-मित्त-गम्मा तद-ऽतिसओऽवि हु ण बहु-मओ तुम्हं, । लोइअ-घयणेहिं तो दिड च कहिं चि वेहम्म". !॥ १७५ ॥
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गा० १७६-१७७ ]
(८४)
[ पौरुषेय-अपौरुषेय "वह अतीन्द्रिय शक्ति पुरुषमात्र गम्य नहीं है । अतीन्द्रिय दर्शी उसका जो अतिशय है, वह आपको भी बहु सम्मत नहीं है ।
वेद वचनों का लौकिक वचनों से कुछ अंश में विधर्म्य-जुदा पना- भी देखा जाता है" ।। १७५॥
"ताणोह पोरसेआणि अ-पोरसेआणि वेय-वयणाणि ।
सग्गुब्वसि-प-मुहाणं दिट्ठो तह अत्थ-भेओऽवि.'' ॥१७६।। * "लौकिक वचनों को लोक में पौरुषेय माने गये हैं, और वेद वचनों को अपौरुषेय माने जाय, यह परस्पर वैधयं होता है ।
___ और, "स्वर्ग" "उवर्शी" इत्यादि शब्दों का अप्सरा पृथ्वी इत्यादि अर्थ भेद भी देखने में आता है। (“अप्सरा" "पृथ्वी" इत्यादि रूप अर्थ भेद भी देखने में आता है (१)" ) । १७६॥ .
_ विशेषार्थः इस कारण से-जो लौकिक शब्द है, वे ही वैदिक शब्द हैं । और जो लौकिक शब्द का अर्थ है, वह वैदिक शब्दों का भी अर्थ है ।
इससे, यह विचारणा खास कोई विशेषता रखती नहीं है। कोई शब्द के अर्थ भेद होने पर भी प्रायः सभी शब्द समानार्थक रहते हैं ।। १७६ ।।
"न य तं सहावओ च्चिय स-उत्थ-पगासण-परं पईओ व्वः ।
समय-विभेआ-5-जोगा, मिच्छत्त-पगास-जोगा य." ॥ १७७ ।। * "और, वह वेद वचन दीपक की तरह अपना स्व-अर्थ का प्रकाश करने में
स्वभाव से ही समर्थ नहीं है।" + "क्यों समर्थ नहीं है ?" + “शब्द के संकेतों को समानता होने से, और असत् पदार्थ का भी कभी प्रकाश करने से, कहीं पर, ये आपत्तियां आ जाती हैं" ।। १७७ ॥
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गा० १७८-१७९-१८० ]
(८५)
पौरुषेय-अपौरुषेय + वही बताया जाता है,__ "इंदीवर म्मि दीवो पगासई रत्तयं अ-संतं पि. ।
चंदोऽवि पीअ-वत्थं "धवलं" ति. न य निच्छओ तत्तो." ॥ १७८ ।। * "जिस तरह इन्दीवर-कमल में रक्तता न होने पर भी दीपक रकाता को बतलाता है, और चन्द्र पीला वस्त्र को "धोला" श्वेत बतलाता है, इस कारण से सच्चा योग्य अर्थ का निर्णय नहीं हो सकता है । उसी प्रकार, अर्थ से संगत-संबंध नहीं रखने वाले वेद वचनों से भी सच्चा निर्णय नहीं हो सकता है' ॥ १७८॥ __"एवं, नो कहि-आ-ऽऽगम-पओग-गुरु-संपयाय-भावोऽवि । जुज्जइ सुहो इहं खलु णाएणं, छिण्ण-मूलत्ताः" ।। १७१ ।। ।
"इस देद वचन में प्रवृत्ति करने के लिए न्याय से कहे हुए आगमों के प्रयोग से जानने वाले शुभ गुरु संप्रदाय का सद्-मांव भी नहीं है।
क्योंकि उस प्रकार के वचन का संभव नहीं है, क्योंकि उस की परंपरा भी मिलती नहीं है, क्योंकि उसका मूल भी उच्छिन्न हैं (१) ।। १७९ ॥
विशेषार्थः · स्वयं अर्थ प्रकाशन नहीं है, और निश्चित अर्थ का प्रकाशन करने वाली आचार्य परम्परा भी नहीं है, क्योंकि-परंपरा उच्छिन्न है। जिससे- वैदिक दर्शनों के भेदों से अर्थ भेद भी मालूम पड़ते है । यह प्रसिद्ध भी है ।।१७९॥ (उपसंहार-)
"ण कयाइ इओ कस्सह इह णिच्छयमो कहिंचि वत्थुम्मि । जाओ "त्ति कहह, एवं जं सो तत्तं, स वामाहो." ॥१८०॥
"वेद वचन से इस जगत् में कमी, किसी को, किसी वस्तु में निश्चय नहीं हुआ है" । ऐसा कहा जाता है । और ऐसा होने से “जो वैदिक है, वह तत्त्व है।" ऐसा कहना, वह व्यामोह है, क्योंकि-"स्वयं तो अज्ञ हैं" ॥१८॥
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गा० १८१-१८२-१८३ ] (८६) [पौरुषेय-अपौरुषेय
"तत्तो अ आगमी जो विणेअ-सत्ताण, सोऽपि एमेवः । तस्स पओगो चेवं अ-णिवारणगं च णिअमेणं." ॥१८१॥
"इस कारण से-वैदिक (अर्थज्ञ) [आचार्य] से शिष्य वर्ग को जो व्याख्या का बोध होता है, वह भी ऐसा ही रहता है। अर्थात् व्यामोह रूप रहता है । और-आगमार्थ का जो प्रयोग होता है, सो भी व्यामोह ही है । और जो निवारण नहीं किया जाता है, वो भी व्यामोह है । (१)" ॥१८१॥
"णेवं परंपराए माणं एत्थ गुरू संपयाओऽवि । रूव विसेस हवणे जह जच्च धाण सव्वेसिं" ॥१८२।। .
"इस प्रकार से परंपरा से चला आता गुरु संप्रदाय भी इस विषय में प्रमाण भूत नहीं बन सकता है। जिस तरह- अनादिकालीन सर्व जन्मांध पुरुषों का श्वेत और श्याम रंग का भेद बतलाने में ज्ञान और कथन प्रमाण भूत नहीं हो सकता है' ॥१८२॥
विशेषार्थः जन्मांध श्याम और श्वेत का भेद स्वयं पा सकता नहीं, ऐसी स्थिति अनादिकाल से सिद्ध है ।।१८२॥ * अब प्रतिवादी इस विषय में नई शंका उठाता है:
"भवओऽवि अ," सव्व-ण्णू सव्वो आगम-पुरस्सरो जेणं.। ता, सो अ-पोरसेओ, इअरो वाऽणा-ऽऽगमाओ उ." ॥१८३॥
"आपके पक्ष में भी, सभी सर्वज्ञ आगम पूर्वक ही होते हैं। क्योंकिआगम में कहा गया है, कि-"सर्वज्ञ होने की इच्छा वालों को और केवलज्ञान प्राप्त करने की इच्छा वालों को तप, ध्यान इत्यादि करना चाहिए।" इस प्रकार आगम शास्त्र में कहा गया है। शास्त्र की उस आज्ञा से तप और ध्यानादि किये जाते हैं, तो यह आगम भी किसी सर्वज्ञ पुरुष से नहीं कहा जाने से अपौरुषेय सिद्ध होता है । क्योंकि-'आगम को कहने वाला
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गा० १८४]
(८७)
[ पौरुषेय-अपौरुषेय कोई सर्वज्ञ होगा,” ऐसा सिद्ध होता नहीं। क्योंकि-सर्वज्ञ के पूर्व ही सर्वज्ञ होने का उपदेश देने वाला आगम होना चाहिये । इससे वह भी अपौरुषेय सिद्ध होता है।"
अथवा, ''आगम से सर्वज्ञ नहीं होता है । और होगा, तो आगम बिना भी सर्वज्ञ का संभव बन जायेगा" ॥१८३॥ .
विशेषार्थः "आगम बिना भी सर्वज्ञ बनने का संभव मानना पड़ेगा, या आगम को अनादि और अपौरुषेय मानना पड़ेगा।" प्रतिवादी का कथन का
आशय यह है ॥ १८३ ॥ * इसका उत्तर दिया जाता है,
"नोभयमावि, जमऽणा-ई वोभ-कुर जीव कम्म-जोग-समं. । अहवऽत्थतो उ एवं, ण वयणओ वत्त-होणं तं." ॥ १८४ ।। ।
('अर्थात्-सर्वज्ञ बिना आगम की उत्पत्ति का दोष, और आगम बिना सर्वज्ञ की उत्पत्ति का दोष) वे दोनों ही दोष नहीं लग सकता है । क्योंकि-बीज और अंकुर के समान, और जीव और कर्म के संयोग के समानआगम और सर्वज्ञ दोनों ही अनादिक है । "यह पहिला है।" और "यह पहिला नहीं है," ऐसी व्यवस्था नहीं है ।
इस कारण से उपरोक्त दोष नहीं लग सकता है।"
अथवा 'आगमार्थ से ही सर्वज्ञ होता है ।" इसे-आगमार्थ और सर्वज्ञ, उन दोनों का ही बीज और अंकुर का न्याय घटाना चाहिये। किसी भी आगम को प्राप्त कर सर्वज्ञ होता है, और वास्तव में-आगम का अर्थ को प्राप्त कर सर्वज्ञ होता है । इस कारण से- 'आगम के वचनो मात्र से सर्वज्ञ बनें", ऐसा नहीं है। आगम के "अर्थ" को प्राप्त कर सर्वज्ञ बनता है। 'वचन मात्र” को प्राप्त कर ही सर्वज्ञ बने, ऐसा नहीं है।
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गा० १८४ ]
(८८)
[ पौरुषेय-अपौरुषेय क्योंकि-श्री मरुदेवादि का सर्वज्ञ पना आगम के वचन बिना- आगम के 'अर्थ' का सीधा परिणमन से बना है।
इस कारण से- 'आगम, वचन से ही अनादि है, ऐसा नहीं है।' क्योंकि वचन तो वचन बोलने वाला वक्ता के आधीन ही रहता है. वक्ता के बिना वचन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस कारण से- वचन अनादि होने पर भी बिना वक्ता वचन की प्रवृत्ति हो सकती नहीं। वचन की उत्पत्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
आगम के वचनों का अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान-और तदनुसार प्रवर्तन) आत्मा में उत्पन्न क्षयोपशमादि भाव से भी हो सके, उसमें विरोध नहीं आता। अर्थात् क्षयोपशमादि से भी आगम के अर्थ के अनुसार प्रवृत्ति हो सकती है, जो वचन और उसके अर्थ से अविरुद्ध अर्थात् तदनुकूल रहती हो। इस प्रकार को स्थिति भी जगत् में देखी जाती है ।.१८४ ।
विशेषार्थ अर्थात्-"आगम के वचन से ही सर्वज्ञ पने की प्राप्ति होती है," ऐसा नियम नहीं है। उसके अर्थ रूप सामग्री से सर्वज्ञ पना प्राप्त होता है । अर्थात्आगम के वचन से, तदर्थ प्राप्ति से, और वचन बिना भी तदर्थ प्राप्ति से, सर्वज्ञ पना प्राप्त होता है । सर्वज्ञपने का मुख्य कारण-तदर्थ का पालन है। यह रहस्य सूक्ष्म बुद्धि से जानने योग्य है।
बीज और अंकुर का न्याय परंपरा से-प्रवाह से अनादि पना समझाता है । किन्तु व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है । क्योंकि-एक बीज से उसका अंकुर हुआ, उसो अंकुर से प्रथम का बीज को उत्पत्ति नहीं होती है, दूसरा नया बोज की उत्पत्ति होती है । और उससे दूसरा अंकुर की उत्पत्ति होती है। एक बीज का कार्य उसका अंकुर होता है, उस अंकुर का कार्य उसका नया बीज होता है । उस बीज का कार्य उसका नया अंकुर होता है। इस कारण से कार्य कारण
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गा० १८५-१८६-१८७
(८) [वेद वचनों की असंभवत्रूपता माव सादि है । तथापि-उसकी श्रृंखला अनादिकालीन है, उसी तरह जीव कर्मसंयोग व्यक्त्यवेक्षया अंशतः सादि होने पर भी उसका प्रवाह भूतकाल की तरह अनादि सिद्ध होता है ।।१८४॥
"वेय-वयणम्मि सव्वं णाएणाऽ-संभवंत स्वं जं।
ता इअर वयण-सिद्धं वत्थू कह सिज्झइ तत्तो ?" ॥१८५॥ * वेद वचनों में आगमादि-उसके अर्थ, न्यायपूर्वक देखा जाय तो जो असंभवत् रूप है । उस कारण से दूसरे वचनों से- सद्रूप वचनों से-(हिंसादोषादि ) सिद्ध ऐसी वस्तु, मात्र वेद वचनों से हो कैसे सिद्ध हो सकती है ? ॥ १८५ ॥
विशेषार्थ __ संभवत्स्वरूप से सिद्ध, वस्तु असंभवत्स्वरूप से किस तरह सिद्ध हो सके ? ॥ १८५॥ (दृष्टान्त से समझाया जाता है-)
ण हि रयण-गुणाऽ-रयणे कदाचिदऽवि होति उचल-साधम्मा. । एवं वयण-तर-गुणा ण होति सामण्ण बयणम्मि. ॥ १८६ ॥ __पत्थर-पना को समानता होने पर भी-रत्न के गुण अरत्न में कदापि नहीं होते हैं । मस्तक का शूल को शांत करने का गुण रत्न में रहता है। (और वह प्रयोग से भी मालूम पड़ता है ।) यह गुण अरत्नरूप सामान्य-घंटी के पत्थर आदि में नहीं मालूम पड़ता है ।
उसी तरह-वचन मात्र की समानता होने पर भी वचनान्तर काविशेष गुण युक्त-वचन का-गुण-हिंसा-अहिंसादि बतलाने वाले गुण-सामान्य वचन में नहीं हो सकता है । क्योंकि-सामान्य वचन में विशिष्ट गुण का योग नहीं रहता ।। १८६ ॥ * (उपसंहार-)
ता एवं, सण्णाओ ण बुहेणऽ-ट्ठाण-ठावणाए उ । सहलहुओ कायव्वो, चास-पंचास-णाएणं (?). ॥ १८७ ॥
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गा० १८८-१८६-१६० ] (१०) [ संभवत्-असंभवत्-विचार
इस कारण से-समझदार पुरुष ने, अ-स्थान में स्थापित कर-उत्तस न्याय को-दूसरे वचन में लगाकर, तुच्छ-रूप में नहीं बना देना चाहिये । अर्थात्-चास पंचास-न्याय की तरह (?) असंभवित को संभविततया बतलाकर न्याय को तुच्छ नहीं बना देना चाहिये (१) ॥१८७।। * उसमें युक्ति बताई जाती है:
"तह, वेए च्चिअ भणि सामण्णणं जहा-"ण हिंसिज्जा। भूआणि". फलुद्देसा पुणो अ "हिंसिज्ज" तत्थेव." ॥ १८८ ।।
तथा, वेद में ही उत्सर्ग से सामान्यतया कहा गया है कि- "न हिंस्याभूतानि" "प्राणिओं की हिंसा नहीं करनी चाहिए।" फिर भी फल की अपेक्षा से कहा गया है कि
"अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग-कामः" "स्वर्ग की इच्छा वालों को अग्निहोत्र में होम करना चाहिए।"
इससे- "हिंसा करनी चाहिये” ऐसा उसमें (वेद में ) ही देखा जाता है ।। १८८॥
"ता, तस्स पमाणत्तेवि एत्थ णिअमेण होइ दोसो-त्ति"। फल-सिद्धीए वि, सामण्ण दोस-विणिवारणा-5-भावा. ॥ १८९ ।।
तो इस कारण से-उस वचन को प्रमाण भूत माना जाय, और इस अनुसार वचन की प्रेरणा से वर्तन-पालन किया जाय, तो-स्वर्गादिक फल की प्राप्ति होने पर भी, (हिंसा) दोष की प्राप्ति लग जाती है । क्योंकि-"प्राणियों की हिंसा न करनी चाहिये," यह सामान्य वाक्य का-औत्सगिक वाक्य का अर्थ का दोष का निवारण नहीं होता है-अर्थात्-दोष की प्राप्ति हो जाती है ।।१८९।। * (दृष्टान्त से समझाया जाता है-)
जह वेज्जगम्मि दाहं ओहेण णिसेहिउ, पुणो भणियं-। 'गंडा-ऽऽइ-खय-निमित्तं करिज्ज विहिणा तयं चेव." ।। १९० ॥
जिस तरह-वैद्यक शास्त्र में, दुःख करने वाला होने से सामान्यतया (शरीर को) दग्ध करने का निषेध किया गया है, तथापि फिर भी-किसी फल की अपेक्षा
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गा० १६१-१६२ ]
(६१) [ वेद हिंसा-अहिंसा उपसंहार से कहा गया है कि____ "मंड (ग्रंथि आदि) को नष्ट करने के लिए-अर्थात् रोग विशेष को नष्ट करने के लिए-विधि पूर्वक दाह करना चाहिये," ऐसा कहा गया है ॥१९॥ (फलित अर्थ क्या हुआ ? यह बतलाते हैं-)
"तसो वि किरमाणे ओह-णिसेहुभवो तहिं दोसो। जायइ फल-सिद्धोए वि. एअं इत्थं पि विण्णेयं." ||१९१॥
वैद्यक-शास्त्र के वचन से दाह करने पर भी- सामान्यतया जिसका निषेध किया गया है-ऐसा औसर्गिक निषेध का-भंग रूप हिंसा दोष तो लगता ही है, रोग क्षय रूप फल मिलने पर भी सामान्य हिंसा रूप दोष बनता ही है । अर्थात्-सर्वतोमुखी सम्पूर्ण अहिंसा नहीं होती है। ____उसी तरह-वेद के विषय में भी समझना चाहिये, अर्थात्-वेद वाक्यों की प्रेरणा से-आज्ञा से-प्रवृत्ति करने से उसका फल भी मिलता है, तथापिउत्सर्ग निषेध का भंग रूप दोष तो रहता हो ।
अपेक्षा से विशेष हिंसा का फल मिलने पर भी सामान्य हिंसा का दोष निवृत्त नहीं होता है । ( आपवादिक हिंसा की अपेक्षा से अहिंसा मानी जाने पर भी, औत्सर्गिकतया हिंसा रूपता नहीं जाती है ) ॥ १९१ । __(इस प्रासंगिक विचार में- दोनों छपे ग्रन्थों को मूल गाथाएं और दोनों अवचूंरिकायें पाठ भेद और अशुद्धि आदि कारणों से, चर्चा की सूक्ष्मता से, तथा पूर्व पक्ष-उत्तर पक्ष को अस्पष्टता रहने से भी विषय की तथा प्रकार को विशुद्धता करने में क्षतियां रह गई हैं। संपादक।) "कयमित्य पसंगणं' 'जहोचिआवेव दव्व-भाव-थया।
अण्णोऽण्ण-समणुविद्धा मिअमेणं होति मायव्वा." ॥१९२।। * 'इस द्रव्य स्तवादि के विचार में जो प्रासंगिक विनार का प्रारंभ किया गया था, उसको आगे न चलाकर यहां समाप्त किया जाता है।
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गा० १६३-१६४ ]
(६२ ) [ द्रव्य-भाव-स्तव का उपसंहार + द्रव्य स्तव और भाव स्तव यथा योग्यता के अनुसार अर्थात्-गौण और मुख्यता
की अपेक्षा से परस्पर अवश्य संबंध रखने वाले हैं। अर्थात्-परस्पर गुथे हुए जानने चाहिए। जो ऐसा न हो तो, दोनों का स्व स्वरूप ही रह सकता नहीं।
विशेषार्थः भाव स्तव की अपेक्षा से ही द्रव्य स्तव का स्वरूप रहता है। और द्रव्य स्तव की अपेक्षा से ही भाव स्तव का स्वरूप रहता है। द्रव्य और भाव का व्यवहार ही परस्पर को सापेक्ष है ।। १९२ ॥
"अप्प-विरिअस्स पढमो, सह कारि-विसेस-भूअमो सेओ।
इअरस्स बज्झ-चाया इअरो च्चिअ" एस परम-ऽत्थो. ॥ १९३ ॥ * जिसके आत्मा का वीर्य बल-अल्प होता है, उसके लिए पहिला-द्रव्य-स्तवखूब सहकारी-सहायक बनकर रहता है, और उसका वीर्योल्लास के लिए श्रेस्कर होता ही है । और दूसरा-अर्थात् भाव स्तव-जिस आत्मा का वीर्योल्लास अधिक हो, ऐसे मुनि को बाह्य द्रव्य स्तव का त्याग होने से दूसरा-अर्थात् भाव स्तव श्रेयस्कर होता है। यहां रहस्याथ-साधु को बाह्य पदार्थों का त्याग रहने से बाह्य द्रव्य स्तव का भी त्याग रहता है ॥ १९३॥
* इससे उल्टा किया जाय, तो क्या दोष हो जाय ? वह बतलाया जाता है,
दव्व-स्थयंपि काउण तरह जो अप्प वोरिअत्तेणं, । परिसुद्धं भाव-थयं काही सोऽ-संभवो एस. ॥ १९४ ।।
जिस आत्मा का वीर्य अल्प विकसित हो, एसा आत्मा यथा योग्य रीति से द्रव्य-स्तव भी नहीं कर पाता है, और "वह परिशुद्ध भाव-स्तव को करेगा", यह असंभव है । क्योंकि- इस आत्मा में तथा-प्रकार की योग्यता प्रकट नहीं हुई रहती है ।। १९४ ॥
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( १३ )
[ द्रव्य-भाव स्तवों की विशेषता "
गा० १६५ - १६६ ]
+ यहां स्पष्टता की जाती है, कि
जंसो उक्कियरं अविक्खड़ वीरिअं इहं णिअमा. ।
ण हि पल-सपि वोदु अ-समत्थो पव्वयं वहइ, ॥ १९५ ॥
जो भाव स्तव है, वह शुभ आत्म परिणाम रूप होने से उत्कृष्ट वीर्य की ही अपेक्षा रखता है, इस कारण से-अल्प वीर्य वाला उसको किस तरह कर सके ? जो अल्प शक्ति वाला पुरुष होने से पल का भी भार नहीं उठा सकता है, वह पर्वत का भार कैसे उठा सके ? तो यहां, द्रव्य स्तव का भार सो पल समान है, और भाव स्तव का भार पर्वत का भार समान है ।। १९५ ।।
विशेषार्थः
भाव स्तव के योग्य वीर्य प्राप्त करने का उपाय भी द्रव्य स्तव ही है । द्रव्य स्तव के बिना भाव स्तव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। प्रतिमा बहन की माफक इस विषय में अनियम नहीं है ।
जुत्तो पुण एस कमो [
]
"यह क्रम योग्य है ।" अंसा कहा गया है ।"
अलग अलग प्रकार के द्रव्य स्तवों को भाव स्तव को प्राप्ति के उपाय के सहाय से नियत क्रम रूप है । और गुण स्थानकों का क्रम भी अस्त व्यस्त नहीं होता है । अर्थात् गुण स्थानों की प्राप्ति भी क्रमिक होती है, इत्यादि कारणों से द्रव्य स्तव और भाव स्तव का क्रम नियत ही है ।
अर्थात् - भाव स्तव की प्राप्ति द्रव्य स्तव से ही होती है। किसी को भवान्तर में द्रव्य स्तव की प्राप्ति हुई हो, और इस जन्म में भाब स्तव की प्राप्ति हुई हो । किन्तु भाव स्तव की प्राप्ति के पूर्व द्रव्य स्तव की प्राप्ति अवश्य होनी चाहिए, यह नियम है ।। १९५ ।।
ऐसी बात कहकर अधिक स्पष्टता की जाती हैजो बज्झ च्चाएणं णो इत्तिरिपि णिग्गहं कुणइ, । इह अप्यणो सपा से सव्व-च्चाएण कहं कुज्जा ? ।। १९६ ।।
आत्मा बाह्य त्याग कर वंदनादिक के लिए थोड़ा काल के लिए
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II० १६७-१९८-१९९] (६४) [ द्रव्य-भाव स्तवों में भेद भी मन के उपर निग्रह नहीं कर सकता है, एसा क्षुद्र आत्मा यावत् जीव का सर्व त्याग कर आत्मा का निग्रह किस तरह कर सकता है ? ।। १९६ ।। * उन दोनों में बड़ा पने का और छोटा पने का विधि बतलाते हैं
प्रारंभ च्चाएणं णाणा-ऽऽई-गुणेसु वड्डमाणेसु।
दव्व स्थय [परि] हाणी घि हु न होई दोसाय परिसुडाः ॥१९७।। * द्रव्य स्तव में रहती हुई त्रुटि भी द्रव्य स्तव के करने वालों के लिए दोष के लिए नहीं होती है ।। क्योंकि-आरंभ का त्याग करने से-ज्ञानादि गुणों में वृद्धि होने से, वह (द्रव्य स्तव में रहती त्रुटि) भी परिशुद्धि के लिए रहती हैं, क्योंकि-उसकी अच्छी परंपरा चलती रहती है ( जो आगे जाकर भाव स्तव को लाती है ) ॥ १९७ ॥ + इस विषय में शास्त्रीय युक्ति भी दी जाती है
एतोच्चिय णिहिट्ठो धम्मम्मि चउब्विहम्मि वि कमोऽयं । इह दाण-सील-तव-भावणामए, अण्णहा-जोगा. ॥ १९८ ॥
इस कारण से-चारों प्रकार के धर्म में निम्न प्रकार से बताया गया यह क्रम द्रव्य स्तादि पना से भी जैन शास्त्र में बताया गया है। दान, शील, तप और भानना । ऐसा क्रम बिना धर्म का योग कभी नहीं हो सकता है। १९८।। + यहां क्रम का रहस्य स्पष्ट किया जाता है
संतपि षज्झमऽ णिच्चं, थाणे दाणंपि जो ण विअरेइ, । इय खुड्डुओ कहं सो सीलं अइ-दुद्धर धरह ? १९९ ॥
बाह्य वस्तु अनित्य होने पर भी, योग्य पात्र में आहारादिक का जो क्षुद्र वृत्ति के कारण से क्षुद्र आत्मा दान नहीं दे सकता है, इस कारण से-यह वराक अर्थात् रांकड़ा, प्रबल महापुरुषों से आचरण करने योग्य अति दुर्धर शील का पालन किस तरह कर सकता है ? अर्थात् - नहीं कर सकता है ॥ १९९ ॥
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( ६५ ) - [ दानादि में द्रव्य-भाव स्तव-पना
गा० २००-२०१-२०२ ]
अ-रसीलो अ ण जायद सुद्धस्स तवस्स हंदि विसओऽवि । जह सत्तीएऽ-तवस्त्री भावह कह भावणा-जालं १ ॥ २०० ॥
और जो शीलवंत नहीं है, वह मोक्ष का कारण भूत तप का विषय भूत किस तरह हो सकता है ? अर्थात् तप को करने वाला किस तरह हो सकता है ? और जो मोह के परवश होकर, यथा-शक्ति भी तप नहीं करता है, वह भावनाओं का समूह को किस तरह भाव सके ? अर्थात् वह वास्तविकतया भावना • धर्म को नहीं कर सकता है ।। २०० ।।
[ इत्थं च] एत्थ कम दाण-धम्मो दव्व-त्थम- रूवमो गहेयव्वो । सेसा उ सु-परिसुद्धा णेआ भाव-त्थय सरूवा ॥ २०१ ॥ * यहां पर क्रम ऐसा है, कि- - दान धर्म को द्रव्य स्तव रूप जानने का है, क्योंकि - यह गौण धर्म रूप है । और परिशुद्ध शेष तीन (शोल - तप भावना) को भाव स्तव रूप समझना चाहिए। क्योंकि यह तीन मुख्य धर्म रूप है ।। २०१ ॥
4. इस प्रकार से - " धर्म की भेद-प्रभेद युक्त अनेक विध-व्यवस्था धर्म रूप है, ।" इस तरह से धर्म के सभी प्रकारों की घटना - विवेचना करने की महत्त्व की सूचना स्याद्वाद के आश्रय से व्यवस्थित तया की जाती है, -
-
इय आगम- जुत्तीहिं य तं तं सुत्तमऽहिगिच्च धीरेहिं ।
इ
दव्व थया-ssदि रूवं विवेइयव्वं सु-बुडीए. ॥। २०.२ ।।
-
धीर पुरुषों ने सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक उस उस सूत्र के अधिकार की अपेक्षा • से आगम-शास्त्र में वतलाई हुई युक्तियों से द्रव्य-स्तव भाव-स्तव आदि रूप में अच्छी तरह से विवेचना - घटना करनी चाहिये ।। २०२ ।।
विशेषार्थ
विविध रूप से शास्त्रों में बतलाया गया मोक्ष साधक आध्यात्मिक बिकास के क्रम को परस्पर में घटना करके समझाया जा सकता है । दृष्टान्त देकर उसका मार्ग फरमाया है ।। २०२ ।।
* ग्रन्थ की उत्कृष्टता की स्तुति और समग्रतया ग्रन्थ का उपसंहार -
एसेह धय- परिण्णा समासओ वणिया मए तुझं [ तुम्भं ]. । वित्थरओ भाव - Sत्थो इमीए सुत्ताउ णायच्वो ॥ २०३ ॥
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गा० २०३ ]
( ६६ )
[ उपसंहार
यहां पर मैंने तुम्हारी सामने स्तव परिज्ञा पद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है। इसका विस्तार से भावार्थ श्री आगम सूत्रों से जानना
चाहिये || २०३ ।।
+ अवचूरिकार से की गई ग्रन्थ की उत्तमता को स्तुति
जयइ थय - परिन्ना, सार-निट्ठा, सु-वन्ना,
सु-गुरु-कय- अणुन्ना, दाण-वक्खाण- गुन्ना, नयन-पन्ना, हेउ - दिट्ठत पुन्ना,
गुण-गण-परिकिन्ना, सव्व - दोसेहिं सुन्ना ॥
सारों से भरपूर भरी ऐसी अच्छे वर्णों से युक्त, उत्तम गुरुओं से जिसकी आज्ञा फरमाई गई है ।
दान-धर्म के व्याख्यान के गुण युक्त (१) । नय को अच्छी तरह से जानने वालों से अर्थात् नय निपुण पुरुषों से कही गयी, हेतु और दृष्टान्तों से पूर्ण भरी, गुणों का समूह से व्याप्त, और सर्व दोषों से रहित, एसी स्तव परोज्ञा (विश्व में) विजय पाती है ॥ १ ॥
अवचूरिकार उपाध्याय श्री मद् यशोविजय वाचक कृत पारमार्थिक आशिर्वचन — इति स्तव - परिज्ञया किमऽपि तत्वमुच्चैस्तरं
यशोविजय वाचकं र्यदुदs - भावि भावा- ऽर्जितम् ।
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ततः कु-मत-वासना-विष-विकार वान्तेर्बुधाः
सुधा-रस-पानतो भवत तृप्ति-भाजः सदा ॥ २ ॥
श्री यशोविजय वाचक ने स्तव परीक्षा के साथ भाव पूर्वक का संबंध से जो कुछ उत्तम प्रकार की वस्तु को ( पुण्य को) उपार्जन कर, जो कुछ पाया हो, उससे कुमत की वासना रूप विष का वमन हो जाने से, बुध पुरुषों अमृत रस का पान से सदा संतुष्ट होकर रहो ॥ २ ॥ तन्त्रः किमयैग्नेव भ्रान्तिः स्तव - परिज्ञया ? |
ध्वस्ता पान्थ - तृषा नद्या, कूपाः सन्तु सहस्रशः ॥ ३ ॥
यदि नदी से मुसाफिर की तृषा मिट जाती है, तो हजारों कुर्वे भले ही हो, इससे क्या ? उसी तरह, स्तव परिज्ञा से भ्रान्ति दोष मिट जाता है, तो दूसरे अन्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन है ? इससे, "स्तव परीक्षा बहुत उच्च प्रकार का शास्त्र है । " ऐसा सूचित किया जाता है || ३ ||
मेरा क्षतियां रूप दुष्कृत संत कृपया मिथ्या हो ।
प्रभुदास बेचरदास पारेख कृत-संपादित
सावचूरिक स्तव-परिज्ञा की [हिन्दी] भावार्थ- चन्द्रिका संपूर्ण [ २०२५ भाद्रपद में, राजकोट - २ ] ।
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