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गा० ४९-५०-५१-५२ ]
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[ अट्ठारह सहरस शीलांग
मिलने से आत्मा की सु-गति में सदा पवित्र प्रतिष्ठापना होती है ।। ४८ ॥ + ओर भी विशेष कहा जाता है, कि
तत्थ-वि य साहु- दंसण-भाव- Sज्जिय-कम्मओ उ गुण-रागो । काले य साहु-दंसणं जह-क्कमेण गुण-करं तु ॥ ४९ ॥
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।। पञ्चा० ७.४६ ॥
ओर - सुगति में भी साधु पुरुषों का दर्शन की भावना से जो कर्म उपार्जित होते हैं, उसे गुणों का राग उत्पन्न होता है । और कालान्तर में साधु महात्माओं का दर्शन होता है। उस कारण से उसी क्रम से वह भी लाभ का कारणभूत होता है ॥ ४९ ॥
" पडिवुज्झिरसंतपणे" भाव -ऽज्जिय-कम्मओ उ पडिवत्ती. । भाव-चरणस्स जायइ. एअं चिय संजमो सुडो. ॥ ५० ॥
।। पश्चा० ७ ४७ ॥
+ "इस मंदिर में आ कर जिन प्रतिमा जी के दर्शन से अनेक आत्मायें प्रतिबोध पायेंगी. " इस प्रकार का जो भाव रहा था, उससे बन्धा हुआ कर्म के बल से मोक्ष का अपूर्व हेतु रूप भाव चारित्र की प्राप्ति होती है । यही भाव चारित्र रूप ही शुद्ध संयम है ॥ ५० ॥
भाव-त्थओ अ एसो थोअव्वोचिय प्पवत्तिओ णेओ ।
रि-sवेक्खा SSणा करणं कय- किच्चे हंदि उचियं तु. ॥ ५१ ॥
+ स्तुति करने के योग्य के प्रति प्रवृत्ति रूप होने से शुद्ध संयम को ही भाव-स्तव समझना चाहिये । कृत-कृत्यों के प्रति एवं स्तुति योग्य के प्रति निरपेक्षपना से आज्ञा का पालन करना ही उचित है, और कुछ भी उचित नहीं है। क्योंकिसांसारिक भाव के प्रति निरपेक्ष भाव उसे प्राप्त हुआ करता है ॥ ५१ ॥
एअं च भाव- साहुं [हु] विहाय, नऽण्णो चएइ काउ' जं [जे] । सम्मं तग्गुण- नोणा-ऽ- भावा सह कम्म- दोसा य. ॥ ५२ ॥ ।। पञ्चा० ६-२५ । + इस प्रकार, आज्ञा का पालन करने का कर्त्तव्य साधु को छोड़कर, दूसरा कोई पामर आत्मा अच्छी तरह से कर पाता नहीं । क्योंकि उस आज्ञा का पालन