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गा०४६-४७-४८-] . ( २१ ) [ द्रब्य स्तव से भाव स्तव बड़ा है + दोष सह-कृत होने से द्रव्द स्तव अशुभ एवं कांटे से युक्त शाल्मली आदि वृक्ष के तरापा से नदी आदि को पार करने के समान है।
और इस हेतु से वह मोक्ष देने में असमर्थ है । और, भाव स्तव समर्थ बाहु से नदी आदि को तैर जाने के समान है। इस हेतु से- उसे ही मोक्ष होता है ।। ४५ ॥ कडुओ [अ-ओ] सहा-ऽऽइ-जोगा मंथर-रोग-सम-सण्णिहो वा वि। पढमो विणोसहेणं तक्खय-तुल्लो य बीओ.।। ४६ !!
॥ पञ्चा० ६-२२॥ 1 अथवा, पहिला-द्रव्य स्तव, कटु औषधि आदि के योग से आस्ते से होने वाली रोग की उपशांति के समान है, और दूसरा (भाव स्तव) औषध के बिना ही एवं स्वबल से ही रोग का क्षय करने के समान है ॥ ४६ ॥ * अब, दोनों के अलग अलग फल बताये जाते हैं
पढमा उ कुसल-बंधो. तस्स विवागेण सु-गईमा-ऽऽईयो.। तत्तो परंपराए बिईओ वि हु होइ कालेण, ॥ ४७ ।।
॥ पश्चा० ६.२३ ।। पहिला-द्रव्य-स्तव-से सरागता का योग होने से कुशल बंध-अर्थात् पुण्य बन्ध होता है। . और इस कुशल बन्ध का विपाक से सु-गति आदि-एवं संपत्ति, विवेक आदि को प्राप्ति होती है। उस द्रव्य स्तव के अभ्यास के बल से कालक्रम से दूसराभाव स्तव-भी प्राप्त होता है । ४७ ।।। * और विशेष प्रकार से यह निम्नोक्त भी कहा जाता है,
जिण-बिष-पइहावण-भाव-ऽज्जिय-कम्म-परिणइ-वसेणं । सु-गइअ पह-छावणमण-ऽहं सह अप्पणो जम्हा. ॥ ४८ ।।
। पच्चा० ७-४५ ।। + क्योंकिजिन प्रतिमाजी महाराज को प्रतिष्ठा कराने की जो भावना, उसे उपाजित किये हुए (शुभ) कर्म परिणाम के बल से-अर्थात्-और भी बहुत कारण-सामन्त्री