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________________ गा० ४२-४३-४४-४५ ] : ( २० ) [ सौषध-विनौषधि से रोग हरण मुनि का योग से वह बहुत ही अल्प है, और शुभयोग साधर्म्यसे समान भी है ।" यह रहस्य है | ॥ ४१ ॥ + इस विषय में ओर भी रहस्य बताते हैं, सव्वत्थ रि-भिसंग तणेण जइ-जोगमो महं होइ. । एसोउ अभिसंगा कत्थइ तुच्छे वि तुच्छो उ. ।। ४२ ।। ।। पञ्चा० ६-१८ ॥ 4. जीवन के सर्व प्रसंग में अनासक्तिपना होने से मुनि का योग बड़ा है। और द्रव्य स्तव आसक्ति युक्त आत्मा का होने से तुच्छ वस्तु में भी तुच्छ ही है । ( इस कारण से वह अल्प है ) ।। ४२ ।। अम्हा उ अभिसंगो जीव' दुसेइ नियमओ चेव. । तद्-सियस्स जोगो विस-घारिय-जोग-तुल्लो उ. ।। ४३ ।। + क्योंकि - आसक्ति आत्मा को स्वभाव से ही मलिन बना देती है । उस ( आसक्ति ) से दूषित आत्मा का योग विष से मिश्रित योग के समान है, अर्थात्- अशुद्ध होता है, ॥ ४३ ॥ जहणो अ-दूसियस्स हेयाओ सव्वहा णियत्तस्स | सुडो अ उवावेए, अ-कलंको सव्वहा सो उ. ॥ ४४ ॥ ।। पञ्चा० ६ २० ॥ + हेय तत्त्वों से स्वभाव से ही सर्वथा निवृत्त एवं दूर रहने से, सामायिक भाव में स्थिर रहने से और उपादेय वस्तु में आज्ञा पूर्वक प्रवृत्ति करने से मुनि का योग निर्दोष -शुद्ध होता है । उसी कारण से वह यति- योग सर्वथा निष्कलंक होता है || ४४ ॥ - विषेशार्थ " सभी शुभयोग मात्र से जो जो छोटे बड़े फल मिलते हैं, उसके छोटे-बड़े पना का कारण आसक्ति सहकृत शुभ योग, और अनासक्ति सहकृत शुभयोग होता है। इससे शुद्धि और अ-शुद्धि में भेव घटता है ।" यह न्याय का मार्ग है । ४४ + उदाहरण पूर्वक उन दोनों का उपर कहा गया स्वरूप को स्पष्ट करते हैंअ- सुह-तरंडुत्तरण- पाओ दव्व-त्थओऽ-मत्थो य. । इयरो पुण ईमाssसु समस्थ [स] बाहु-ततरण- कप्पो. ।। ४५ ।। ।। पञ्चा० ६ २१ ॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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