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गा० ४०-४१ ]
द्रव्य स्तव से वीतराग संबंधी कुछ प्रवृत्ति-विशेष द्वारा विशेष प्रकार के भोगादि सांसारिक ही फल प्राप्त होते हैं, किन्तु वे तुच्छ-नगण्य है ।
क्योंकि वे फल तो अ-काम निर्जरादि और प्रकारों से भी प्राप्त होते हैं । ॥३९॥ * "द्रव्य स्तव में भाव स्तव से उचित अनुष्ठान पना की कौनसी विशेषता है ?" + उस प्रश्न का उत्तर यहां दिया जाता है
उचिया-Sणुट्ठाणाओ विचित्त-जह-जोग-तुल्लमो एस. । जंता कह दव्व-थवो ? तद्-दारेणऽप्प-भावाओ. ॥४०॥
। पञ्चा० ६.१६॥ उचित अनुष्ठानपना से यह द्रव्य स्तव भी शास्त्र विहित होने से, मुनियों के विचित्र (भाव-स्तव)-योग के समान है। "यदि एसा है, तो उसे भाव स्तव ही क्यों न कहा जाय ? और द्रव्य स्तव कसे कहा जाय ? उसका उत्तर"भाव स्तव की अपेक्षा द्रव्य स्तव से अल्प भाव होता है, अर्थात्, उस हेतु से फल कम मिलता है ।। ४० ॥ + "क्योंकि-अधिकारी भेद से अल्प भाव होता है।" यह समझाते हैं
जिण-भवणा'ऽऽइ-विहाण-दारेणं एस होइ सुह जोगो.।। - उचिया-ऽणुट्ठाणं, वि य तुच्छो जह-जोगओ णवरं ।। ४१ ॥
" पञ्चा० ६-१७॥ जिन भवनादि बनवाने के द्वारा यह द्रव्य अनुष्ठान शुभ व्यापार है, और उचित उत्तम-अनुष्ठान भी है । तथापि-मुनि के योग से तुच्छ है, अल्प है। ४१ ॥
३aser 20, विषेशार्थ 3 "मलीन आरंभ को करने वाला गृहस्थ का अन्य स्तव शुभ योग होने पर भी,