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गा० ३६]
(१८)
[द्रव्य स्तव में भाव की अल्पता
वह अनुष्ठान-- एकान्त से ही
भाव शून्य होता है, (क्योंकि-वह आज्ञा से निरपेक्ष-आज्ञा से रहित होता है । 'वीतराग-गामि" होने पर भी, वह द्रव्य-स्तव नहीं बन सकता है। क्योंकि-वह भाव-स्तव का हेतु नहीं है, क्योंकि- वह उचित नहीं है,आज्ञा सिद्ध नहीं है । ३८॥
विशेषार्थ ऐसा (भाव-शून्य-भाव स्तव के कारण भूत न बन सके ऐसा जो द्रव्य स्तव हो, उसको-अप्रधान द्रव्य स्तव कह सकते हैं । ( जो भाव स्तव का अंग बन सकता नहीं) ॥ ३८॥ (इसकी विशेष स्पष्टता आगे स्वतंत्र प्रबन्ध से की जायगी) ३८ शास्त्र में१ "द्रव्य" शब्द प्रधान "अर्थ में"
और
२ "अप्रधान" अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अप्रधान=निकम्मा, अनुपयोगी, अधिकृत प्रयोजन रहित ।
इत्यादि अर्थ में प्रयुक्त होता है। (मुख्य फल न मिले, और) .. आनुषंगिक फल मिले, वह तो उचित नहीं है, यह समझाया जाता है,
भोगा ऽऽइ फल विसेसो उ अस्थि एत्तो वि विसय भेएणं, । तुच्छो य तओ. जम्हा हवह पगार-तरेणाऽवि. ॥ ३९ ॥
॥ पञ्चा० ६.२५ ॥ + "कोति आदि जो आनुषंगिक फल मिलते हैं, वे अनुचित हैं।” इसका स्पष्ट कारण दिया जाता है। ..