SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ३८] ( १७ ) [ द्रव्य-भाव स्तव में भौचित्य ३ भाव-स्तव हेतु-भूत हो, ऐसा अनुष्ठान हो, ___ यह द्रव्य स्तव है। यह सार फलित होता है। इस लक्षण में"भाव-स्तव के जो हेतु भूत" यह विशेष्य पद है, उस को रखने का प्रयोजन यह है कि-भाव-स्तव में अति ध्याप्ति न हो। अर्थात्द्रव्य स्तव का लक्षण भाव-स्तव में न चला जाय । किन्तु उस विशेष्य पद को रखने से भाव-स्तव में द्रव्य-स्तव का लक्षण चला जा सकता नहीं। प्रथम के दो विशेषण जो है, वे भाव स्तव में रही हुई जो कार्यता, उसकी हेतुता जो द्रव्य स्तव में रही है, उस हेतुता के स्वच्छेदक धर्म-बनते हैं। अर्थात्जो अनुष्ठान१ आज्ञा-सिद्ध न हो और, २ वीतराग-गामि न हो, वह अनुष्ठान भाव-स्तव का हेतु हो सकता ही नहीं । आज्ञा सिद्धपना और वीतरागगामिपना ही यहां हेतुता का अवछदक बनता है। वास्तविकतया देखा जाय तो"भाव स्तव को हेतु ही द्रव्य-स्तव का लक्षण ठीक बनता है। इस विषय को यह निम्नोक्त गाथा कुछ विशेष स्पष्ट करती है, ---- "जं पुण एय वियत्री एग ऽतेणेव भाव मुण्णं ति। तं." विसयम्मि वि ण तओ भाव-त्थया-5-हेउओ उचिओ. ॥३८॥ पञ्चा० ६.९ ॥ "जो अनुष्ठापनऔचित्यादि से रहित हो, (जिस अनुष्ठान में औचित्य न हो,)
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy