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गा० ३७-३८-]
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[प्रधान द्रव्य स्तव की व्याख्या
द्रव्य स्तव की व्याख्या में-- सूत्राज्ञा पूर्वकता रूप निमित्तविशेष को यदि न रखा जाय, तो, इस प्रकार से संसार की सारी प्रवृत्तियां समान रूप से ही द्रव्य स्तव सिद्ध
हो जाय ॥३६॥ * "इस अतिव्यप्ति दोष के निवारण के लिए क्या क्या विशेषण जोड़ना चाहिये ?" इस प्रकार की शंकाएं उठाकर, कहा जाता है, कि
"जं वीय-राय-गामि, अह तं" 'नणु सिट्टणा-ऽऽदि वि स एवं । सियं ?” "उचियमेव जं, तं,' "आणा-राहणा एवं.” ॥ ३७॥ "जो अनुष्ठान वीतराग गामि हो, उसको द्रव्य स्तव कहा जाय ?" "तो-श्री वीतराग प्रभु की यदि कोई निंदा करे, तो वह कार्य भी वीतराग गामि प्रवृत्ति (अनुष्ठान) बन जाती है । तो-बह कार्य ओर निमित्त न होने पर भी, क्या द्रव्य स्तव हो ही जाय ?" "नहीं" इस कारण से-"जो अनुष्ठान वीतराग गामि हो, और उचित हो,” वह द्रव्य स्तव बनता है । इस प्रकार-"जो अनुष्ठान वीतराग गामि-वीतराग भगवंत के प्रति हो और वही अनुष्ठान उचित भी हो, तो वह अनुष्ठान द्रव्य रतव है," ऐसा कहने से द्रव्य स्तव को निर्दोष व्याख्या बनती है। "तब तो, द्रव्य-स्तव की व्याख्या में उपरोक्त कोई दोष नहीं आता है न ? इस प्रकार से आज्ञा को आराधना अवश्य होती है-दोष नहीं रहता है। "प्रायः" उचित भी वही है, कि-जो आज्ञा सिद्ध हो" यह भाव है ।।३७ ।
विशेषार्थ १ उचित शब्द रखा जाय, अथवा आज्ञा सिद्ध शब्द रखा जाय, वह
समान ही है ॥३७॥ + (अति सूक्ष्म विचारणा) १ इस प्रकार से
१ "आज्ञा शुद्ध हो, . २ वीतराग गामि हो, और