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गा० ५३-५४-]
( २३ ) से जो लाभ होता है, उसे वह अज्ञात स्थिति में रहता है। और चारित्र मोहनीय कर्म का उदय से भी वह उसको अच्छी तरह से कर सकता नहीं॥५२
विशेषार्थ इस प्रकार, आज्ञा का पालन करने के लाभों का ज्ञान न होने से, आज्ञाका पालन करने पर भी "रत्न परिक्षा" का न्याय की तरह, बुद्धि को लगाने को आवश्यकता रहती है । (जिस तरह रत्न परीक्षा करने का सिखने वाले को सदैव रत्न परीक्षा करने का अभ्यास करना पड़ता है, और जो बुद्धिमान होता है-पारंगत होने की बुद्धि रखता है-वही रत्न परीक्षा में पारंगत हो सकता है । तथा प्रकार की बुद्धि के सिवाय रत्न परीक्षा में प्रवीण होना मुश्किल है, नहीं हो सकता है ।। ५२ ।। : "आज्ञा का पालन इतना मुश्किल क्यों है ?" इसका कारण कहा जाता है,
जं एअं अट्ठा-रस-सील-उंग-सहस्स-पालणं णेयं ।
अच्चऽत-भाव-सारं. ताई पुण हुंति एआइं- ॥ ५३ ॥ क्योंकि-यह अधिकृत आज्ञा का पालन अत्यन्त भाव सार रूप-अट्ठा-रह सहन शीलांगो का पालन रूप समझना चाहिये । वे शीलांग बताये जाते हैं। वे शीलांग इस प्रकार है, ।। ५३ ।।
शीलांगो का स्वरूप __ जोए करणे सण्णा इंदिय-भीमा-ऽऽह समण-धम्मे य.। . सील-इंग-सहस्साणं अट्ठा-रसगस्स णिप्फत्ती. ॥ ५४ ।।
पञ्चा० १४-३ ॥ मन आदि का व्यापारमन आदि करणआहार की इच्छा आदि संज्ञाएं - (४) स्पर्शन आदि इन्द्रियांभूमि आदि-पथ्वीकाय, अपकाय, तेजः काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, और अजीघ । (१०) और क्षमा आदि श्रमण धर्म (१०)