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गा० ५५-५६-५७- ]
( २४ ) यह सब मिलकर अट्ठारह हजार भेदों बन जाते हैं, जो चारित्र के कारण है। ३ x ३ x ४ x ५४ १० x १० = (१८०००) गाथा का अर्थ ॥ ५४ ।।
करणा-ऽऽइ तिण्णि, जोगा मणमा-ऽईणि उ हुँति करणाई. । आहारा-ऽई सण्णा, सवणा [सोत्ता] •ssइं इंदिया पंच, ।। ५५॥ भोमा-ऽऽइ णव अ-जीव-काओ अ, पुत्थ-पणगं च,। खंता-ऽऽइ-समण धम्मो. एवं सइ भावणा एसी-।। ५६ ॥
पञ्चा० १४-१५ ॥ यह दोनों गाथा का अर्थ स्पष्ट ही है, किरण आदि तिन-स्वयं किया गया हो, अन्य से कराया गया हो, और अनुमत किया गया हो (२) मन आदि तिन योग - मन वचन और काया रूप तिन साधन (३) आहारादि संज्ञाएं-आहार-भय-मैथुन-परिग्रह (४) श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियां-स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः- श्रोत्र (५) . उत्तरोत्तर “सोलांग गुणों को प्राप्ति से शीलांग प्राप्त होते हैं" यह बताने के लिए इन्द्रियों का पश्चात् क्रम बताया गया है।" भूमि आदि नव-पृथ्वीकाय्-अपकाय, तेजः काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, पन्चेद्रिय, (९)
और पुस्तकादि पञ्चक अजीव कायपुस्तक, चर्म, तृण, सुषिर,.. ......रूप (९+ १ = १०) क्षमा आदि दश श्रमण धर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति निर्लोभता, तपः, संयम, सत्य, शौच, अकिञ्चनता, ब्रह्मचर्य ( ब्रह्मचर्य पूर्वक-गुरु कुलवास में रहना (१०) इस प्रकार के अट्ठारह हजार शीलांग की घटना इस प्रकार है ।५६।।
[भोमा-ऽऽह-णव जीवा, अ-जीव-काओ य, समण धम्मो उ ।
खंता-ऽऽइ-दस-पगारो, एवं ठीए भावणा एसा, ।। ५७ ।। भूमि आदि नव जीवकाय और अजीवकाय, क्षमादि दश प्रकार के श्रमण धर्म, इस प्रकार होने से शीलांगों को घटना निम्न प्रकार से होती है ।।५६॥]