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गौ० ५७-५८-५९-६० ]
(२५)
[ शीलांग स्वप घटना इस प्रकार से की जाती है -
ण करेइ मणेणा-ऽऽहार-सण्णा विप्पजदगो उ णिय मेणं। सोइंदिय-संवुडो पुढवी-काय आरंभं खति-जुओ. ।। ५७ ।।
पञ्चा० १४.६ ॥ न करना, मन से, आहार संज्ञा का नियम से त्याग कर, श्रोत्र इन्द्रिय का संवरण करके,
पृथ्वी काय का आरंभ,
'क्षमा से युक्त होकर, ॥५७। इय मद्दवा-ऽऽइ-जोगा पुहवा-काये हवंति दस भेया.। आउ-कायाऽऽईसु घि. इय ए ए विडियं तु सयं. ॥ ५८ ॥
पञ्चा० १४.७।। इस प्रकार मार्दवादि श्रमण धर्म से युक्त होकर, पृथ्वीकाय का आरंभ का त्याग करने का दश भंग होता है । इस प्रकार अपकायादि से घटना करनी । इस प्रकार सब मिलाकर एक सो भंग होते है ।। ५८॥
सोई [अ-इं] दियेण एअं, सेसेहिं वि जं इम, तओ पंच। . आहार-सण्ण-जोगा इय, से साहिं, सहस्स दुगं. ॥ १९॥
पञ्चा. १४.८॥ इस प्रकार श्रोत्र इन्द्रिय से (१००) भंग हुए, इस प्रकार-ऐसे हो सो-सो भंग शेष इन्द्रियों से करने से पांच सो होता है। ये आहार संज्ञा का त्याग से (५००) हुए. और भय आदि संज्ञा का त्याग से दो हजार भंग होते हैं।
एवं मणेणं, वयमा-ऽऽइएसु. एअंनि, हस्सहस्साई। ण करणं, सेसेहिं पि य, ए ए, सम्वेवि अट्ठारा. ॥ ६०॥
पश्चा० १४९॥ इस प्रकार मन से (२०००) भंग हुए। इस प्रकार वचन और काया से मिलाकर छःजार भंग न करने के हुए। . .