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________________ ६०-६१ ] ( २६ ) __. [शीलांग स्वरूप और न कराने का, न अनुमोदना करने का. सब मिलाकर अट्ठारह सहस्र हुए ॥ ६० ॥ स्पष्टार्थ १ आहार संज्ञाका २ मन से त्याग कर ३ क्षमा युक्त होकर ४ श्रोत्र इन्द्रिय से ५ पृथ्वीकाय का आरंभ ६ न करना । इस प्रकार एक भंग हुआ। मार्दवादि दश श्रमण धर्म से भंग १० अपकाय आदि दश का आरंभ न करनाश्रोत्र इन्द्रिय से भंगसभी इन्द्रियों से--- और सभी संज्ञा का त्याग से-- २००० x३ ६००० वचन और काय योग के भंग मिलाकरन करना, और न कराना, न अनुमोदित करने का, छ-छ हजार सब मिलाने से १८००० ॥६०॥ इत्य इमं विण्णेयं अइदं-पज्जं तु बुद्धिमंतेहिं. । एकम्मि वि सु-परिसुद्धं सोल-इंगं सेस-सम्भावे. ।। ६१ ॥ पञ्चा० १४-१० ॥ • इस विषय में, बुद्धिमान पुरुषोंने, ऐदम्पर्य अर्थात्-रहस्य-यह समझने का है,-"सभी शीलांग होने पर ही एक शीलांग अवश्य परिशुद्ध हो सकता है। अर्थात-उसको तब शीलांग कहा जाता है। * यहां, बुद्धिमान पुरुषों को रहस्यमय बात यह समझनी चाहिये, कि"सर्व शीलांग होने पर ही एक शीलाङ्ग परिशुद्ध हो सकता है, अन्यथा, एक भी परिशुद्ध नहीं होता" ॥ ६१ ॥ * इस विषय में दृष्टांत बताया जाता है, कि
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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