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________________ गा० ६२-६३ ] ( २७ ) [शीलांगो का अखंडपना इक्को वाऽऽय-पएसो अ-संखेअ-पएस-संगओ जह उ, एअंपि तहा णेयं, स-तत्त-याओ इयरहा उ. ॥ ६२॥ . पश्चा० १४-११।। जिस तरह, असंख्य प्रदेशी एक ही अखंड आत्मा है, एक भी प्रदेश को . न्यूनता से आत्मा नहीं होता है, उसी तरह, एक भी शिलांग, अन्य सभी शीलांग के बिना-एक भी शीलांग भूत-नहीं होता है। यदि ऐसा न हो, और एक भी शीलाङ्ग केवल हो सके, तो एक प्रदेश की आत्मा भी रह सके.किन्तु, ऐसा संभवित नहीं. एक प्रदेश का अभाव से आत्मा नहीं हो सकती है, उसी तरह एक शील भी रह सकता कहीं ।। ६२ ।। . विशेषार्थ "समुदायो-यानि अखंड पदार्थ-समुदाय पूर्वक ही अपना अस्तित्व रख सकता है।" यह सिद्धांत है । (कई ऐसे यंत्र होते हैं, कि-यदि इस यत्र के अलग अलग विभागों की-अवयवों की-ऐसी योजना रहती है, कि एक छोटा भी भाग हट जाय-निकल जाय-तो सारा यंत्र काम के लिए असमर्थ हो जाता है) ।।६।। + उसकी ही स्पष्टता की जाती है, जम्हा समग्गमेयंपि सम्व-सा-5-वज्ज-जोग-विरईओ. । तत्तेणेग-स-रूवं ण खंड-रूवत्तणमुवेइ. ॥ ६३ ॥ पञ्चा० १४-१२ ॥ सर्व सावद्य योगों को संपूर्ण विरति रूप जो अखण्ड धर्म है, उसका अस्तित्व एक भी शीलांग न रहने से बन सकता नहीं। क्योंकि - एक भी शीलांग न रहने से-वह विरति नहीं रहने से, अर्थात्-सर्व सावद्य योगों की संपूर्ण सर्वविरति नहीं रहती है, उसको सर्व सावध योगों की विरति नहीं कहा जा सकती है। उसी कारण से-सर्व सावद्य योगों की विरति, स्वरूप से-तत्त्व से-एक रूप ही है । अखंड स्वरूप से हो सर्व सावध योग को विरति का स्वरूप को वह प्राप्त कर सकता है, अन्यथा, नहीं प्राप्त कर सकता है ।। ६३ ।।
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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