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________________ गा० - ६४-६५ ] ( २८ ) विशेषार्थ उसी कारण से उसका कोई भी अंग केवल एक पृथक् - शीलांगपना से रहता - नहीं - संभवित होता नहीं ॥ ६३ ॥ + यहां प्रश्न किया जाता है. कि + उसका उत्तर, - [ शीलांगो का अखंडपना - [ श्री मुनिराज को ] विहार में नदी को पार करना पड़ती है, तब जल जीवों की हिंसा होती हो। वहां अखण्डितता किस तरह टिक सकती है ? वहां, अखण्डितता अवश्य बाधित हो जाती है, तो सभी शिलाङ्ग चले जाने से भ्रमण पना ही सर्व सावद्य विरति ही किस तरह टीक सकती है ? । एअं च एत्थ एवं विरइ-भावं पडुच्च दट्ठवं, : ण उबपि पवित्ति, जंसा भावं विणा विभवे ।। ६४ । पञ्चा० १४-१३ ॥ यहां पर ऐसा समझना चाहिये, कि सर्व सावद्य की विरति रूप एक ही यह शोल समझना चाहिये । अर्थात्आंतरिक विरति भाव की अपेक्षा से अखंड समझना चाहिये । बाह्य प्रवृति की अपेक्षा से (अखंड) नहीं समझना चाहिये । क्योंकि - बाह्य प्रवृत्ति आंतरिक भाव बिना भी संभवित हो सकती है । इस कारण से— मुनिराज को नदी को पार करना हो, उस प्रसंग में द्रव्य प्रवृत्ति से बहार से - अपकाय जीवों की विराधना का आरंभ दोष का संभव दिखाई देता है, तथापि प्रमाद न होने से भाव से शीलाङ्ग का भंग नहीं होता है, किन्तु पालन ही होता है । अर्थात्-सभी शोलाङ्ग अखण्डित रहने से सर्व सादद्य योग की निवृत्ति रूप अखण्ड चारित्र रहता है || ६४ || + जिस तरह जह उस्सग्गम्मि ठिओ खित्तो उदगम्मि केण वि तवस्सी । तवू - वह पवित्त काओ अनलि-भावोऽ-पवत्तओ अ. ॥ ६५ ॥ पञ्चा० १४-१४ ।
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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