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गा०-२८-२९ ]
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[श्री संघ का महत्त्व अरिहंतपना तीर्थ से प्राप्त होता है, इस कारण से पूजित (तीर्थ) की पूजा की जाती है, जो विनय-कर्म रूप है। कृत-कृत्य होने पर भी जिस तरह तीर्थकर भगवान् धर्मकथा करते हैं, उसी प्रकार (प्रभु) तीर्थको भी नमस्कार करते हैं ॥२७॥
विशेषार्थ १. तीर्थ द्वारा हो धर्मानुष्ठान प्राप्त कर तीर्थ करपना प्राप्त होता है, २. लोक में भी पूजित की पूजा की जाती है । ३. जिससे लाभ प्राप्त हुआ हो उसके प्रति कृतज्ञता धर्म पूर्वक भगवान ने
भी विनय कर्म किया है। ४. वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर प्रभु कृत-कृत्य होने पर भी तीर्थंकर नाम कर्म
का उदय से जिस तरह धर्म कथा रूप प्रवृत्ति करते हैं, उसी तरह तीर्थको भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि इस प्रवृत्ति में औचित्य भी है ।।२७॥ एअम्मि पूइयम्मि, णऽत्थि तयं, जं न पूइयं होइ. .
भुवणेऽवि पूअणिज्जं ण अत्यि ठाणं [ण गुण-हाणं] तओ अण्णं. ॥२८॥ १. उस (श्री संघ को-तीर्थ की) पूजा करने से, (इस विश्व में) एसा कोई भी
पूजनीय नहीं हुआ है, कि जिसको पूजा न हो जाय । २. त्रिभुवन में एसा कोई भी स्थान नहीं है, जो उससे अधिक पूजनीय हो ।॥२८॥
तप्पूआ परिणामो हंदि महा विसयमो मुणेयव्वो. ।
तद्-देस-पूअओ वि हु देवय-पृआ-5ऽइ-णाएणं. ।। २९ ।। १. श्री संघ माहान्-तम होने से, उसकी पूजा का परिणाम होना, यह भी
सचमुच महा विषय रूप है,= अति महत्त्व की वस्तु है। २. उसका एक देश की पूजा भी,- देव के एक देश की पूजा को तरह सर्व पूजा रूप हो जाती है ॥ २९ ॥
विशेषार्थ १ जिस तरह देव के एक भाग की-अंग की-पूजा देव की सर्व पूजा रूप होती है, उसी तरह श्री संघ के एक भाग की पूजा करने से, संपूर्ण श्री संघ की भी पूजा हो जाती है, क्योंकि- संघ एक ही होने से उसका एक भाग भी संपूर्ण माना जाता है।