SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १८४ ] (८८) [ पौरुषेय-अपौरुषेय क्योंकि-श्री मरुदेवादि का सर्वज्ञ पना आगम के वचन बिना- आगम के 'अर्थ' का सीधा परिणमन से बना है। इस कारण से- 'आगम, वचन से ही अनादि है, ऐसा नहीं है।' क्योंकि वचन तो वचन बोलने वाला वक्ता के आधीन ही रहता है. वक्ता के बिना वचन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस कारण से- वचन अनादि होने पर भी बिना वक्ता वचन की प्रवृत्ति हो सकती नहीं। वचन की उत्पत्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। आगम के वचनों का अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान-और तदनुसार प्रवर्तन) आत्मा में उत्पन्न क्षयोपशमादि भाव से भी हो सके, उसमें विरोध नहीं आता। अर्थात् क्षयोपशमादि से भी आगम के अर्थ के अनुसार प्रवृत्ति हो सकती है, जो वचन और उसके अर्थ से अविरुद्ध अर्थात् तदनुकूल रहती हो। इस प्रकार को स्थिति भी जगत् में देखी जाती है ।.१८४ । विशेषार्थ अर्थात्-"आगम के वचन से ही सर्वज्ञ पने की प्राप्ति होती है," ऐसा नियम नहीं है। उसके अर्थ रूप सामग्री से सर्वज्ञ पना प्राप्त होता है । अर्थात्आगम के वचन से, तदर्थ प्राप्ति से, और वचन बिना भी तदर्थ प्राप्ति से, सर्वज्ञ पना प्राप्त होता है । सर्वज्ञपने का मुख्य कारण-तदर्थ का पालन है। यह रहस्य सूक्ष्म बुद्धि से जानने योग्य है। बीज और अंकुर का न्याय परंपरा से-प्रवाह से अनादि पना समझाता है । किन्तु व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है । क्योंकि-एक बीज से उसका अंकुर हुआ, उसो अंकुर से प्रथम का बीज को उत्पत्ति नहीं होती है, दूसरा नया बोज की उत्पत्ति होती है । और उससे दूसरा अंकुर की उत्पत्ति होती है। एक बीज का कार्य उसका अंकुर होता है, उस अंकुर का कार्य उसका नया बीज होता है । उस बीज का कार्य उसका नया अंकुर होता है। इस कारण से कार्य कारण
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy