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________________ गा० १८४] (८७) [ पौरुषेय-अपौरुषेय कोई सर्वज्ञ होगा,” ऐसा सिद्ध होता नहीं। क्योंकि-सर्वज्ञ के पूर्व ही सर्वज्ञ होने का उपदेश देने वाला आगम होना चाहिये । इससे वह भी अपौरुषेय सिद्ध होता है।" अथवा, ''आगम से सर्वज्ञ नहीं होता है । और होगा, तो आगम बिना भी सर्वज्ञ का संभव बन जायेगा" ॥१८३॥ . विशेषार्थः "आगम बिना भी सर्वज्ञ बनने का संभव मानना पड़ेगा, या आगम को अनादि और अपौरुषेय मानना पड़ेगा।" प्रतिवादी का कथन का आशय यह है ॥ १८३ ॥ * इसका उत्तर दिया जाता है, "नोभयमावि, जमऽणा-ई वोभ-कुर जीव कम्म-जोग-समं. । अहवऽत्थतो उ एवं, ण वयणओ वत्त-होणं तं." ॥ १८४ ।। । ('अर्थात्-सर्वज्ञ बिना आगम की उत्पत्ति का दोष, और आगम बिना सर्वज्ञ की उत्पत्ति का दोष) वे दोनों ही दोष नहीं लग सकता है । क्योंकि-बीज और अंकुर के समान, और जीव और कर्म के संयोग के समानआगम और सर्वज्ञ दोनों ही अनादिक है । "यह पहिला है।" और "यह पहिला नहीं है," ऐसी व्यवस्था नहीं है । इस कारण से उपरोक्त दोष नहीं लग सकता है।" अथवा 'आगमार्थ से ही सर्वज्ञ होता है ।" इसे-आगमार्थ और सर्वज्ञ, उन दोनों का ही बीज और अंकुर का न्याय घटाना चाहिये। किसी भी आगम को प्राप्त कर सर्वज्ञ होता है, और वास्तव में-आगम का अर्थ को प्राप्त कर सर्वज्ञ होता है । इस कारण से- 'आगम के वचनो मात्र से सर्वज्ञ बनें", ऐसा नहीं है। आगम के "अर्थ" को प्राप्त कर सर्वज्ञ बनता है। 'वचन मात्र” को प्राप्त कर ही सर्वज्ञ बने, ऐसा नहीं है।
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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