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गा० १८५-१८६-१८७
(८) [वेद वचनों की असंभवत्रूपता माव सादि है । तथापि-उसकी श्रृंखला अनादिकालीन है, उसी तरह जीव कर्मसंयोग व्यक्त्यवेक्षया अंशतः सादि होने पर भी उसका प्रवाह भूतकाल की तरह अनादि सिद्ध होता है ।।१८४॥
"वेय-वयणम्मि सव्वं णाएणाऽ-संभवंत स्वं जं।
ता इअर वयण-सिद्धं वत्थू कह सिज्झइ तत्तो ?" ॥१८५॥ * वेद वचनों में आगमादि-उसके अर्थ, न्यायपूर्वक देखा जाय तो जो असंभवत् रूप है । उस कारण से दूसरे वचनों से- सद्रूप वचनों से-(हिंसादोषादि ) सिद्ध ऐसी वस्तु, मात्र वेद वचनों से हो कैसे सिद्ध हो सकती है ? ॥ १८५ ॥
विशेषार्थ __ संभवत्स्वरूप से सिद्ध, वस्तु असंभवत्स्वरूप से किस तरह सिद्ध हो सके ? ॥ १८५॥ (दृष्टान्त से समझाया जाता है-)
ण हि रयण-गुणाऽ-रयणे कदाचिदऽवि होति उचल-साधम्मा. । एवं वयण-तर-गुणा ण होति सामण्ण बयणम्मि. ॥ १८६ ॥ __पत्थर-पना को समानता होने पर भी-रत्न के गुण अरत्न में कदापि नहीं होते हैं । मस्तक का शूल को शांत करने का गुण रत्न में रहता है। (और वह प्रयोग से भी मालूम पड़ता है ।) यह गुण अरत्नरूप सामान्य-घंटी के पत्थर आदि में नहीं मालूम पड़ता है ।
उसी तरह-वचन मात्र की समानता होने पर भी वचनान्तर काविशेष गुण युक्त-वचन का-गुण-हिंसा-अहिंसादि बतलाने वाले गुण-सामान्य वचन में नहीं हो सकता है । क्योंकि-सामान्य वचन में विशिष्ट गुण का योग नहीं रहता ।। १८६ ॥ * (उपसंहार-)
ता एवं, सण्णाओ ण बुहेणऽ-ट्ठाण-ठावणाए उ । सहलहुओ कायव्वो, चास-पंचास-णाएणं (?). ॥ १८७ ॥