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गा० ९५- ]
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[ सु-साधु की परीक्षा आहार करना इत्यादि उपरोक्त चार दोष रहितपना साधु के अधिकार में समझ लेना चाहिये ।" इस प्रकार सचोट परीक्षा से साधु की परीक्षा करने का होता है ।। ९४ ॥
विशेषार्थ दूसरे आचार्य महाराजाओं का अभिप्राय भेद यह है, कि१ कप परीक्षा-जान बूझकर उद्दिष्ट आहार न करे, २ छेद परीक्षा-षट्काय का प्रमाद से-निरपेक्षतया मर्दन न करे, ३ ताप परीक्षा-देव के बहाना से अपना घर न करे, ४ताउन परीक्षा-किसी भी हालत में सचित्त जल का पान न करे। साधु की परीक्षा के लिए-यह भाव-सार [उच्चकक्षा को परीक्षा है। अर्थातसाधु के योग्य सारभूत योग्यता की परीक्षा के यह सचौट साधन है, उसे साधु की परीक्षा हो सकती है। बहार से समानता दिखाई देने से-"सु साधु है ? या कुसाधु ?" ऐसा संशय पड़ जाय, तो उसे दूर करने के लिए क्या किया जाय ? १ शुद्ध आचार को देखकर-शुद्ध साधुपना मानकर प्रथम तया-अभ्युत्थान वन्दना
आदि-की जावे। २ परंतु-आगे के लिए कैसा बर्ताव करना ? यह परीक्षा के बाद जो समझ
में आवे, ऐसा बर्ताव करना चाहिये । सुसाधु मालुम पड़े, तो तदुचित, और कुसाधु मालूम पड़े, तो तदुचित बर्ताव करना चाहिये। इस-शास्त्र चर्चा का यह सार है। यह दिशा सूचन मात्र ही है ॥१४॥ + उपसंहार किया जाता है
तम्हा, जे इह सत्थे साहु-गुणा, तेहिं होइ सो साहू.। "अच्च-ऽत-सु परिसुद्धहि मोक्ख सिद्धि" त्ति काऊणं ।। ९५ ॥
पश्चा० १४-४४॥ इस कारण सेइस शास्त्र मेंप्रतिदिन की क्रिया स्वरूप साधु के जो जो गुण कहे गये हैं, उन-अत्यन्त