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गा० १५५-१५६-१५७-१५८-१५९-१६०]
(५७)
[ यसना का महत्त्व
करने से सम्यक्त्व, जान और चारित्र उन तीनो का आराधक कहा गया है ॥ १५४ । एसा य होइ णियमा तय हिग-दोस-विणिवारणी जेण.। तेण णिवित्ति-पहाणा विष्णेया बुद्धि मंतेणं. ॥ १५५ ॥
ऐसी यतना अनुबंध हिंसा रूप अधिक दोषों को नियम से अटका देती है। इस कारण से-इस यतना को बुद्धिमान आत्मा ने वास्तविकतया निवृत्ति अर्थात् मोक्ष रूप मुख्य फल को देने वाली समझनी चाहिए ॥ १५५ ॥ * (जिन भवनादिक में यतना किस प्रकार की जाती है ? यह बताया जाता है-) सा इह परिणय जल-दल-विसुद्ध-रूपा उ होई विण्णेयाः । 'अत्थ-व्वओ महंतो, सव्वो सो धम्म-हेउ ति" ॥ १५६ ॥ __. "जिन भवनादिक के निर्माण कार्य में छाना हुआ जल और विधि से लिया हुआ दल (पदार्थों) की विशुद्धि आदि रूप यतना होती है।" ऐसा जानना चाहिए । क्योंकि-प्रासुक पदार्थों का ग्रहण करने का रहता है।
और इसमें यद्यपि धन का खर्च भी बड़ा होता है। तथापि-वह सभी धर्म के कारण भूत बनते हैं । क्योंकि-उस धन का उपयोग अच्छे स्थान में ही किया जाता है ॥ १५६ ॥ प्रसग से इस विषय में कुछ अधिक कहा जाता है:"एत्तो चिय णिहोसं सिप्पा-ऽऽइ-विहाणमो जिणिवस्स। लेसेण स-दोसं पिहु बहु-दोस-णिवारणत्तेणं. ॥ १५७ ।। वर बाहि-लाभओ सो सबुत्तम-पुण्ण-संजुओ भयवं, । एग-ऽत-पर-हिअ-रओ, विमुद्ध-जोगी, महा-सत्तो. ॥ १५८ ॥ जं बहु-गुणं पयाणं, लं जाऊण, तहेव दंसह [वैसेह], । ते रक्खंतस्स तओ जओचिअं, कह भवे बोसो ? ।। १५९ ।। तत्थ पहाणो अ अंसो बहु-वोस-मिवारणेह जग-गुरुणो । नागा-इ-रक्खणे जह कडूढण-वोसे वि मुह-जोगो. ॥ १६ ॥