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गा० ८१-८२ ]
( ३६ )
ऊपर बाण चलाकर, चक्र से फिरती पुत्तली को आंख बींधी जावे, राधावेध कहा जाता है ।
कितना एकाग्र होना पड़े ? सोचिये ।
जरा भी चूक जावे, तो तेल की कडाह में पड जावे, तराजू में दो पाऊं रख कर, समतुला न रख सके, तो भी पड़ जाने का, और लक्ष्य पर बाण को न लगने का भय रहता है, सब होने पर भी, फिरते चक्र में राधा को लक्ष्य बनानी पड़े, फिर भी उसकी चपल आंख की काली कीकी को बींधने का है । फिर भी, स्वमुख नीचा रखकर, भारी धनुष उठाकर बाण चलाने का रहता है, इस हालत में कितना एकाग्र होना पड़े ? जरा भी चूक जाय, तो परिणाम क्या आवे ?
( सुने हुए दृष्टांत को बाते लिखी गई है।
[ भाव साधु
उसको
अन्य ग्रन्थ से यथार्थ समझ लेवें - सम्पादक)
७६-७७-७८-७९-८०
+ अब पूरा सार कहा जाता है,
तोचि fest पुन्वा ऽऽयरिएहिं भाव साहु" ति । हंदि पमाण-ठिअ स्थो. तं च पमाण इमं होइ ॥ ८१ ॥
Ai
पञ्चा० १४-३० ॥
जिसका पालन करने का खूब कठिनतम कार्य है, इस कारण सेश्री भद्रबाहु स्वामी आदि पूर्वाचार्य भगवंतो ने भाव साधु को पारमार्थिक यति - मुनि बतलाया है ।
और यह बात - प्रमाण भूत भी है।
+ और वह प्रमाण ( निम्न गाथा में) इस प्रकार बताया जाता है ॥ ८१ ॥ सत्थुक्त - गुणो साहू, ण सेस, इइ [ह] णे [णो] पण्ण, इह हेउ । अ-गुणत्ता, इति णेओ दिट्ठ-तो पुण सुवण्णं च ॥ ८२ ॥
पञ्चा० १४-३१ ॥ " शास्त्र में कहे हुए गुणों से युक्त को ही साधु कहा गया है, दूसरे को साधु नहीं कहा गया है। ऐसे दूसरे, शास्त्र से बाहर है ।"