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II० १६७-१९८-१९९] (६४) [ द्रव्य-भाव स्तवों में भेद भी मन के उपर निग्रह नहीं कर सकता है, एसा क्षुद्र आत्मा यावत् जीव का सर्व त्याग कर आत्मा का निग्रह किस तरह कर सकता है ? ।। १९६ ।। * उन दोनों में बड़ा पने का और छोटा पने का विधि बतलाते हैं
प्रारंभ च्चाएणं णाणा-ऽऽई-गुणेसु वड्डमाणेसु।
दव्व स्थय [परि] हाणी घि हु न होई दोसाय परिसुडाः ॥१९७।। * द्रव्य स्तव में रहती हुई त्रुटि भी द्रव्य स्तव के करने वालों के लिए दोष के लिए नहीं होती है ।। क्योंकि-आरंभ का त्याग करने से-ज्ञानादि गुणों में वृद्धि होने से, वह (द्रव्य स्तव में रहती त्रुटि) भी परिशुद्धि के लिए रहती हैं, क्योंकि-उसकी अच्छी परंपरा चलती रहती है ( जो आगे जाकर भाव स्तव को लाती है ) ॥ १९७ ॥ + इस विषय में शास्त्रीय युक्ति भी दी जाती है
एतोच्चिय णिहिट्ठो धम्मम्मि चउब्विहम्मि वि कमोऽयं । इह दाण-सील-तव-भावणामए, अण्णहा-जोगा. ॥ १९८ ॥
इस कारण से-चारों प्रकार के धर्म में निम्न प्रकार से बताया गया यह क्रम द्रव्य स्तादि पना से भी जैन शास्त्र में बताया गया है। दान, शील, तप और भानना । ऐसा क्रम बिना धर्म का योग कभी नहीं हो सकता है। १९८।। + यहां क्रम का रहस्य स्पष्ट किया जाता है
संतपि षज्झमऽ णिच्चं, थाणे दाणंपि जो ण विअरेइ, । इय खुड्डुओ कहं सो सीलं अइ-दुद्धर धरह ? १९९ ॥
बाह्य वस्तु अनित्य होने पर भी, योग्य पात्र में आहारादिक का जो क्षुद्र वृत्ति के कारण से क्षुद्र आत्मा दान नहीं दे सकता है, इस कारण से-यह वराक अर्थात् रांकड़ा, प्रबल महापुरुषों से आचरण करने योग्य अति दुर्धर शील का पालन किस तरह कर सकता है ? अर्थात् - नहीं कर सकता है ॥ १९९ ॥