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गा० ३२-३३-३४ ]
( १४ )
सुह-गंध-धूव- पाणीय- सव्वोसहिमा - SSइएहिं ता पहवणं, ।
कुंकुमगा -ऽऽइ-विलेवणमऽइ-सुरहिं मण-हरं मल्लं ।। ३२ ।।
[ पूजा विधि शास्त्र विहित है
५ शुभ गन्ध वाला धूप,
६ सर्व औषधि आदि से मिश्रित पानी से प्रथम खूब अच्छी तरह स्नान कराना,
७ अति सुगन्धि कुंकुम आदि का विलेपन करना,
८ और ऐसे ही मनोहर मालाएं प्रभु को चढाइ जाय ||३२||
विविह-निवेअणमाSSरत्तिगा SSइ धूव-थय- वन्दणं विहिणा । जह सत्ति गोअ-वाइअ णच्चण दाणा ऽऽइअं चेव ॥ ३३ ॥ ९ विविध प्रकार के नैषध ढौकना,
१० आरात्रिक आदि उतारना,
११ धूप उवेखना,
१२ स्तवन- करना
१३ वन्दना करनी
ये सभी विधि पूर्वक करने चाहिये, और यथा शक्ति-१४ गीत
१५ वाद्य
१६ नृत्य और
१७ दान देना, आदि,
१८ आदि शब्द से - उचित स्मरण करना ।
अर्थात् - जिन पूजा में जो जो उचित हो, उन सभी का स्मरण कर उपयोग में लेना ||३३||
“विहिया - ऽणुडाणमिणं" ति एवमेयं सया करिंताणं ।
होइ चरणस्सू हेऊ. णो इह लोगाद वेक्खाए ॥ ३४ ॥
"
+ "यह शास्त्राज्ञा से विहित-धर्मं अनुष्ठान है ।"
इसी प्रकार मन में बराबर समझकर, सदैव उसको करने वालों के लिए वह
चारित्र का कारण बनता ही है ।
किन्तु - इस लोक के सुख आदि के लिए यदि किया जाय, तो
वह
हेतु भूत नहीं बनता है ।
आदि-शब्द से - कीर्ति आदि की अपेक्षा का त्याग भी समझ लेना नाहिये ॥ ३४ ॥
चारित्र का