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________________ गा० १५०-१५१-१५२ ] ( ७५ ) [ हिंसा का अल्प बहुत मोह से अज्ञान से- शुभ भाव माना गया समझना चाहिए । अर्थात् वह शुभ भाव नहीं हो सकता है ॥ १४९ ॥ 6 + "एगिदिया sss अह ते [१२३]" जिन भवनादिक में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिसा होती है, ओर जीवों की हिंसा नहीं होती है।" ऐसा जैन पक्ष का खंडन करने के लिए कहा जाता है, कि - "यज्ञ में बड़े भी थोड़े जीवों की हिंसा होती है और जिन भवनादि में एकेन्द्रिय आदि बहुत जीवों की हिंसा होती है ।" ऐसा कहकर जिन भवनादि में पूर्व पक्षकार ने अधिक हिंसा बतलायी है । अब उसका परिहार करने के लिए समाधान किया जाता है, कि"ए गिंदियो - SSइ भेयोऽवित्थ णणु पाव- -भेय-हेड." त्ति इट्ठो तए वि स मए तह सुद्द दि-आ- SSह - भेणं. ।। १५० ।। इस प्रसंग में एकेन्द्रिय आदि का जो भेद (जैन शास्त्रों में) बताया गया है, वह पाप का भेद बतलाने के लिए ही है । इससे ये भेद बतलाना यहां इष्ट है, कि छोटे जीवों की हिंसा से बड़े जीव की हिंसा में अधिक हिंसा दोष है। इस कारण से तुम्हारे मत में भी यह इष्ट मानकर, शुद्र, द्विज, इत्यादि भेद बतलाये गये हैं ।। १५० ॥ + वही कहा जाता है "सुद्दाण सहस्सेणऽविण बंभ-हच्चेह घाइएणं" ति । जह, तह अप्प - बहुत्तं एत्थ वि गुण-दोस- चिंताए ।। १५१ ।। 1 " हजार शुद्र मारने पर भी जिस तरह तुम्हारे शास्त्र में एक ब्रह्म हत्या का भी पाप नहीं होता है । उसी प्रकार यहां पर हिंसा के गुण दोष के विचार में अल्पपना का और बहुपना का विचार समझना चाहिए || १५१ ।। + ( और एकेन्द्रियादिक जीवों की हिंसा पञ्चेन्द्रियादिक की हिंसा से अल्प हिंसा है, और यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों को ओर अल्प हिंसा लगती है, यह कहा जाता है, - ) "अप्पा य होइ एसो एत्थं जयणाए वहमाणस्स". 1 "जयणा उ धम्म- सारो विष्णेया सव्व- कज्जेसु." ॥ १५२ ॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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