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गा०६५- ]
(३०)
[ सूत्र प्रामाण्यः
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अति-क्रमण करने वाले की, परिक्रमण करने वाले की, (अंगो का) संकोच करने वाले की,
प्रसारण-फैलावा करने वाले की,
पीछे घुमने की प्रवृत्ति करने वाले की, और-संपरिमार्जन-प्रमार्जन-करने वाले की, कीसी भी अवस्था मेंकाय = शरीर, तत्संस्पर्शमनुचीणी:
उसके स्पर्श को प्राप्त हुए,-शरीर के साथ का संयोग को प्राप्त हुए,-ऐसे संगातिम-आदि-जीवों-हो,
अर्थात्-अप्रमत्त मुनिराज की कीसी भी प्रवृत्ति से उन्हीं की काया की साथ संपातिमउड़ते हुए जोवों-आदि जीव का संयोग हो जाय, और,उसमें से कोई परिताप को प्राप्त करे,
" म्लान हो (करमा) जावे,
और मरण के पूर्व की स्थिति की प्राप्ति के विषय में तो-सूत्रकार भगवंत स्वयं सूत्र से ही बतलाते हैं, किएगया पाणा उद्दायंति = प्राणों से वियुक्त हो जाय-मरण प्राप्त कर ले, इस विषय में कर्म के बंध में विचित्रता रहती है, उस की समझ इस प्रकार है१ शंलेशी अवस्था में-मच्छर आदि के साथ काया का संपर्श से प्राण का त्याग हो जावे, वह मर भी जावे, तो भी, कर्म का बन्ध होता नहीं, क्योंकि-कर्म बन्ध के आदान कारण रूप योग नहीं रहता है। (२-३-४) उपशान्त और क्षीण-मोही, तथा सयोगी केवल ज्ञानी भगवंतो को-एक समय काकर्म का बन्ध होता है, क्योंकि-स्थिति बन्ध के योग्य-अध्यवसाय-उन्हीं को न होने से, स्थिति का बन्ध होता नहीं, (मात्र प्रदेश बन्धं ही होता है, जो उसी समय में निवृत्त हो जाता है।) (५) अप्रमत्त मुनिराज कोजघन्य से-अन्तमुहूर्त प्रमाण-स्थिति होती है, और उत्कृष्ट से-अंत: कोटा कोटि ( वर्षों ) की स्थिति प्रमाण बन्ध होता है। (६) प्रमत्त योग में रहे हुए श्रात्मा कोअनाकुहिक पना से-स्वयं सामने हो कर प्रवृत्ति न करने से- प्राणी का अवयव का संस्पर्श होने से-प्राणी को पीड़ा-आदि होने से१ जघन्य-कर्म बन्ध होता है, और उत्कृष्टता से-प्रथम का जो विशेष विशेष हो, वह बन्ध होता है।"
(परम पूज्य आचार्य महाराज श्री विजय धर्म सूरि महाराज श्री की कृपा से वृत्ति का भाग की प्राप्ति -संपादक)