SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - गा० ६६-६७-].. ( ३१ ) आज्ञा से अविराधक भाव "बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति न हो, ऐसे दृष्टान्त में, और बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति हो, ऐसे प्रसंग में भी-एवं दोनों में माध्यस्थ्य रूप एक ही हेतु रहता है ॥६५॥ * यह घटाकर बतलाया जाता है, एवं चिय मझ-त्यो आणाइ उ कत्थइ पयट्टतो! सेह-गिलाणा-ऽऽहऽहा, अ-पवत्तो चेव गायवो. ॥६६॥ . पश्चा० १४.१५ ।। इस प्रकार, मध्यस्थ भाव रखकर, आज्ञा से किसी भी (सावद्य) प्रवृत्ति में प्रवृत्ति को जावे-जैसी कि-नवीन शिष्य, रोगो मुनि आदि के पुष्टालंबन पाकर, उसके लिए महत्व के कारण विशेष में (आज्ञा पूर्वक) कुछ भी प्रवृत्ति करनी पड़े, तथापि, उस मुनि को अप्रवृत हो समझा जाता है। ज्ञानादिक की प्राप्ति के लिए भी जो प्रवृत्ति की जावे, वह-बहार से आश्रव रूप दिखाई देने पर भी-परिश्रव-(अनाश्रव-संवर-निर्जरा) रूप रहने से, सर्व सावद्य योग विरति को अखण्डितता में क्षति आती ही नहीं ।। ६६ ॥ आणा-पर तंतो सो, सा पुण सव्व-ण्णु-वयणओ चेक.। एगात-हिया विज्जग गाएणं सव्ध-जीवाणं. ॥६७ ॥ ॥पञ्चा० १४-१६ ।। * इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाले श्री मुनिराज, आज्ञा से परतंत्र होकर प्रवृत्ति करते हैं, उसे वह सदोष नहीं होती है । आज्ञा भी श्री सर्वज्ञ भगवंत के वचन से ही की गई हो। जिन आज्ञा तो एकान्त से ही सुवैद्य की तरह, सर्व जीवों के हितों को करने वाली रहती है ।।.६७ ॥ विशेषार्थः वह हित भी सर्व जीवों का होता है, क्योंकि-आज्ञा से होने वाला उपकार दृष्टि भी रहता है, और अदृष्ट भी रहता है । अर्थात्-वह उपकार देखने मेंआवे, न भी आवे । तथापि-अवश्य होता रहता है । ६७ ॥ भावं विणा वि एवं होइ पवित्ती. ण पाहए एसा। सम्पत्य अणा-ऽभिसंगा विरह-भावं सु-साहूस्स. ॥ ६८॥ .. . ॥ पञ्चा० १४.१७॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy