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गा०६९ ] .
- ( ३२ ) [ उत्सूत्र प्रवृत्ति से कर्म बन्ध * विरुद्ध भाव बिना भी प्रवति होती है, सर्वत्र अनासक्त भाव से की जाने वाली-ऐसी प्रवृत्ति - उत्तम साबु का विरति भाव की बाधक नहीं होती ॥ ६८ ॥
विशेषार्थ मोक्ष रूप उपेय, और उसके उपाय रूप शुद्ध चारित्र, उसकी इच्छा से रहित जो भाव, अर्थात् संसार की आसक्ति रूप जो भाव हो, वही कर्म बंध का कारण बनता है, किन्तु -अनासक्ति युक्त प्रवृत्ति कर्म के बंध का कारण भूत नहीं होती है । यह रहस्य है ।। ६८॥ उस्सुत्ता पुण बाहह स-मइ-विगप्प-सुद्धा वि नियमेणं. । गीय णिसिड पवज्जण-रूवा णवरं गिरऽ-णुबंधा. ॥ ६९ ।।
पञ्चा० १४-१८॥ * स्वमति कल्पना से. "शद्ध है" ऐसी समझ होने पर भी, जो प्रवृत्ति उत्सूत्रसूत्राज्ञा से विरुद्ध हो,-वह तो पिरति भाव को बाधा पहुंचाती ही है। वास्तव में-वही अशुद्ध ही होती है। शास्त्र के वचन है, कि"सुदर-बुद्धि कयं पहुयपि ण सुंदरं होइ " .
[श्री उपदेश माला] (मात्र) "सुदर बुद्धि से किया हुआ कार्य बहु होने पर भी, सुंदर नहीं हो सकता है।" और, गीतार्थ महापुरुषों ने जिस प्रवृत्ति को करने का निषेध किया हो, उसकी आज्ञा को मान्यकर उसको न करने से-उस प्रवृत्ति-आज्ञा पालन रूप-अनाग्रह बुद्धि से की जावे, तो कर्मबन्ध को परंपरा से रहित रहती है ।। ६९ ॥
विशेषार्थ एक वख्त भूल हो जाने पर, गीताथं गुरु को उसको न करने की आज्ञा हो जाय-निषेध किया जावे, तो उसका स्वीकार कर, पुनः ऐसी झूलन की जावे, तो कर्मबन्ध की परंपरा चलती नहीं। क्योंकि ऐसा सरल आत्मा समझाने से