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गा० १७८-१७९-१८० ]
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पौरुषेय-अपौरुषेय + वही बताया जाता है,__ "इंदीवर म्मि दीवो पगासई रत्तयं अ-संतं पि. ।
चंदोऽवि पीअ-वत्थं "धवलं" ति. न य निच्छओ तत्तो." ॥ १७८ ।। * "जिस तरह इन्दीवर-कमल में रक्तता न होने पर भी दीपक रकाता को बतलाता है, और चन्द्र पीला वस्त्र को "धोला" श्वेत बतलाता है, इस कारण से सच्चा योग्य अर्थ का निर्णय नहीं हो सकता है । उसी प्रकार, अर्थ से संगत-संबंध नहीं रखने वाले वेद वचनों से भी सच्चा निर्णय नहीं हो सकता है' ॥ १७८॥ __"एवं, नो कहि-आ-ऽऽगम-पओग-गुरु-संपयाय-भावोऽवि । जुज्जइ सुहो इहं खलु णाएणं, छिण्ण-मूलत्ताः" ।। १७१ ।। ।
"इस देद वचन में प्रवृत्ति करने के लिए न्याय से कहे हुए आगमों के प्रयोग से जानने वाले शुभ गुरु संप्रदाय का सद्-मांव भी नहीं है।
क्योंकि उस प्रकार के वचन का संभव नहीं है, क्योंकि उस की परंपरा भी मिलती नहीं है, क्योंकि उसका मूल भी उच्छिन्न हैं (१) ।। १७९ ॥
विशेषार्थः · स्वयं अर्थ प्रकाशन नहीं है, और निश्चित अर्थ का प्रकाशन करने वाली आचार्य परम्परा भी नहीं है, क्योंकि-परंपरा उच्छिन्न है। जिससे- वैदिक दर्शनों के भेदों से अर्थ भेद भी मालूम पड़ते है । यह प्रसिद्ध भी है ।।१७९॥ (उपसंहार-)
"ण कयाइ इओ कस्सह इह णिच्छयमो कहिंचि वत्थुम्मि । जाओ "त्ति कहह, एवं जं सो तत्तं, स वामाहो." ॥१८०॥
"वेद वचन से इस जगत् में कमी, किसी को, किसी वस्तु में निश्चय नहीं हुआ है" । ऐसा कहा जाता है । और ऐसा होने से “जो वैदिक है, वह तत्त्व है।" ऐसा कहना, वह व्यामोह है, क्योंकि-"स्वयं तो अज्ञ हैं" ॥१८॥