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गा० १०६- ]
( ४९ ) . [ द्रव्य स्तव की भी अनुमोदना करते है। इस शंका "सत्कार्य नय की अपेक्षा सेद्रव्य में भाव को सत्ता का स्वीकार होने से" दूर की जाती है,''जो चेव भाव-लेसो, सो चेव य भगवया पहु-मओ उ." 'ण तओ विणेयरेणं." ति, 'अत्यओ सो वि एमेव." ॥१०॥
॥पञ्चा० ६-३३ ॥ "जो लेशमात्र भी भाव हो, उस का ही अनुमोदन भगवंत करते हैं (द्रव्य को नहीं )"
विशेषार्थ "अपुनर्बन्धक भाव से लेकर चतुर्दश गुण स्थानक तक की सभी अवस्थाओं में जिस भाव का समावेश होता है, उसको ही अनुमोदना भगवंत करते हैं। उसी कारण से-वे सभी भगवंत की आज्ञा में आ जाते हैं। क्योंकि जो जो योग्य कर्तव्य है, वे मोक्ष के साधन होने से, निषेध विना-मौन आदि व्यापार-से, अनुमोदित किये जाते हैं । यदि ऐसा माना जाय, कि-'जो जो हीन कक्षा के अनुष्ठान है, उनकी अनुमोदना ही नहीं है।" तो अतिप्रसंग दोष आ जाता है। [क्योंकि-तीर्थंकर अवस्था में संभवित शुद्ध प्रवृत्ति को ही प्रभु अनुमोदित करे, और की प्रवृत्ति को अनुमोदित न रखें, कि-जो-स्वअवस्था से हीन हो। तो-देश-विरति और अन्य साधु की सर्व विरति भी प्रभु से अनुमोदित न रहने से, वे आज्ञा सिद्ध कर्तव्य ठहरेगा ही नहीं। यह बड़ा दोष बहुत सी बातों में आ जायगा । और कोई धर्मानुष्ठान आज्ञा-सिद्ध नहीं रहेगा।] यह बात उपदेश रहस्य में हमने कही है
'जह होणं दव्व-त्थयं अणुमणेज्जा ण, संजमो." त्ति मई,
"ता कस्स विसुह-जोगं तित्थ-यरो णा-Sणुमणिज्ज ? ति" । अर्थः “यदि हीन अनुष्ठान होने से द्रव्य स्तव को [श्री तीर्थकर प्रभु] अनुमोदित न रखे,
और संयम ही अनुमोदना के योग्य माना जाय, तो"श्री तीर्थकर प्रभु किसी का भी विशुद्ध योग की अनुमादना न कर सके।" ऐसा फलित होगा । (१)