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गा० १०६-१०५ ]
( ४८ ) [प्रभु से अनुमोदित का विचार दूसरे आचार्य महाराज - इस वचन में-विपर्य व उल्टो रीति से-फरमाते हैं, कि-"पूजा उत्तम वस्त्रादि से की जावे, और सत्कार माला आदि से किया जावे. तथापि-दोनों मतों से-द्रव्य स्तव का ही तात्पर्य तो सिद्ध रहता है । १०३ ॥ इसमें ही दूसरी युक्ति भी बताई जाती है,
ओसरणे बलिमाई ण चेव जं भगवया वि पडिसिद्ध. । ता, एस अणुण्णाओ डचिआणं गम्मइ तेण. ।। १०४ ॥
॥पञ्चा० ६-३१ ॥ (भगवंत के) समवसरण में बलि आदि (का वितरण) होता है, उसका श्री तीर्थकर प्रभु ने भी निषेध किया ही नहीं है। इससे उस प्रकार का द्रव्य स्तव की आज्ञा श्री तीर्थकर प्रभु की भी जब रहती है । अर्थात्-“जिस प्राणी को जो उचित घटित होता हो, उसको उस कार्य करने की-प्रभु की अनुज्ञा रहती है," ऐसा जाना जाता है। चेष्टा के समान मौन भी अनुज्ञा का सूचक हो सकता है । "प्रभु ने निषेध तो न किया, किन्तु मौन से अनुज्ञात भी किया।" ऐसा समझना चाहिये ॥१०॥
"णय भयवं अणुजाणइ जोगं मोक्ख-वि-गुणं कयाचिदवि [दविण्णेयं]। ण यऽणुगुणोऽवि तओ [जोगो]ण बहु मओ होइ अण्णेसि ? ॥१०५।।
पञ्चा० ६.३२ । "मोक्ष से विरुद्ध किसी भी योग को भगवंत कदापि अनुज्ञात करते ही नहीं। क्योंकि-भगवंत मोह से रहित है।" इस कारण से- वह योग-प्रवृत्ति-भी मोक्ष के अनुकूल होने से नहीं है ? और दूसरे को भी अत्यन्त मान्य करने के योग्य हो सकती है। बहुमान्य करने योग्य है हो। इस कारण से-वह भी द्रव्य स्तव रूप होने से, अर्थ से भी; अनुमति की कक्षा में शामिल रहती है। यह रहस्य है ॥ १०५॥ # भगवंत तो भाव को ही अनुमोहना कर सकते हैं, द्रव्य को अनुमोदना नहीं