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________________ गा० ७५ ] इसी कारण से इस स्थिति में संपूर्ण विरति भाव को अवश्य होने का समझ लेना चाहिये । जो अठारह हजार शीलांग रूप है । सभी पाप की विरति का परिणाम एक रूप होने से वह भाव भी एक रूप ही है । यह रहस्य है ।। ७४ ।। ( ३५ ) [ विरति भाव का एकपना उणतं ण कयाइ वि इमाणं, संखं इमं तु अहिगिन्च, जं, एय धरा ते णिद्दिट्ठा बंदणिज्जा उ. ॥ ७५ ॥ पञ्चा० १४-२४ ॥ ( इसी कारण से ) संख्या की अपेक्षा से शीलाङ्गो की न्यूनता कदापि भी हो सकती नहीं । उसी कारण से श्री [प्रतिक्रमण ] सूत्र में अठारह हजार शीलाङ्ग को धारण करने वाले श्री मुनिराज को वंदन करने योग्य बतलाये है, ( अन्य को (ऐसी) वन्दना नहीं की जाती है ) "अट्ठारस - सहस्स-शील Sगखरा । " ( अड्डाइज्जेसु० [० सूत्र - आवश्यक सूत्र में ) "अट्ठारह हजार शीलाङ्ग के धारक ( मुनिवरों को वंदना ) " इत्यादि वचन के प्रमाण से -सूत्र में वन्दना की गई है ।। ७५ ।। विशेषार्थ यहां पर समझने का यह है, कि कुच्छ अल्प अंश में एक आदि उत्तर गुण की न्यूनता होने पर भी, मूल गुणों की स्थिरता की अपेक्षा से, चारित्र शील की योग्यता से शीलांगों की संख्या की पूर्ति समझने की है । प्रतिज्ञा के काल के अध्यवसाय स्थान को, और पीछे से अन्य काल के अध्यवसाय स्थान को ―― षट् स्थानक पतित होने पर भी, आगे कहा गया मुजब ( आत्म प्रदेश के दृष्टान्त से - अखण्डितता ) समानता घटती है । और "संजम-ठाण-ठियाणं किहकम्मं बहिरोण भहअव्वं ।" [ ] वंदना में भजना रहती है, वंदना के भेद पड़ते हैं (?)” "बाहय संयम स्थानों से भेद मालूम पड़ने से अर्थात्-ताबिक वन्दता, वन्दना क्रम, आदि से
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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