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गा०७६-७७-७८-७९-८० ]
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[ मुनि पना के सच्चे गुण
इस प्रकार जो कहा गया है, वह भी उसी प्रकार से ही घटमान हो सकता है। - इस विषय का अधिक विस्तार हमारा रचा हुआ:
गुरुतत्त्व विनिश्चय-ग्रन्थ में है। अथवा“एक अंग को भी न्यूनता नहीं हो सकती है।" इत्यादि जो कहा गया है, उसको उत्सर्ग नियम का विषय समझना चाहिये ।। ७५ ॥
विशेषार्थ ("उत्सर्ग से-पूरा अठारह हजार अंग) होना चाहिये, अपवाद पद से- कुछ न्यूनाधिकता भी हो सके.” यह भाव मालूम पड़ता है) ।। ७५ ।। . + यह ही कहा जाता है
ता, संसार-विरत्तो अण-त-मरणाऽऽइ रूपमेअंतु। .. णाऊ, एअ-विउत्तं मोक्खं च गुरुवएसेणं. ।। ७६ ।।...
पञ्चा० १४-२५ ॥ परम-गुरुणो आणं[०णो अ अण ऽहे] आणाए गुणे, तहेव दोसे य,। मोक्ख-ऽत्यो पडिवज्जिअ भावेण इमं विसुद्धेणं ॥ ७७ ॥
- पञ्चा० १४-२६ ॥ विहिया-Sणुट्ठाण-परो, सत्त-ऽणुरुवमियरं पि संघतो. । अन्नत्थ अणुवओगा खवयंता कम्म-दोसेऽवि, ॥ ७८ ॥
पञ्चा० १४.२७ सव्वत्थ-णिर-ऽभिसंगो, आणा मित्तम्मि सव्वहा जुतो।, एग-ऽग्ग-मणो धणियं, तम्मि तहाअ-मूढ लक्खो य, ॥७९॥ तह, तेल्ल-पत्ति-धारग-णाय-गओ राहा-घेहग-गओवा। एअंचएइ काऊण उ अण्णो खुद्द-सत्तो ति ॥ ८० ।।
पञ्चा १४-२८-२९॥