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( ३७ ) मुनिपना के सच्चे गुण संपूर्ण शोलाङ्गो का पालन का यह कार्य अति दुष्कर कार्य है । इस हेतु सेशास्त्र के अनुसार गुरु के उपदेश से१ (जन्म जरा) मरणादि रूप संसार को अनन्त समझ कर, २ मरणादि से रहित मोक्ष को भी समझ कर, ।। ७६ ।। ३ परम गुरु श्री-तीर्थ कर देव की उत्तम आज्ञा के गुणों को समझ कर , ४ आज्ञा को विराधना के दोषों को समझ कर, ५ मोक्षार्थी हो कर, ६ विशुद्ध भाव से - उपर कहा गया शील का अच्छी तरह से
स्वीकार कर, ॥ ७७ ॥ ७ शास्त्रोक्त विहित अनुष्ठानो में शक्ति अनुसार तत्पर हो कर, ८ दूसरे जो-अनुष्ठान अशक्य है, उनको भी भाव की प्रतिपत्ति से-एवं__ आंतरिक भाव से करने का अनुसंधान रखता हो, ९ विहित अनुष्ठान शिवाय, दूसरे कार्यों में शक्ति का उपयोग न
लगा कर , . १० (आत्म विकास कर शील का पालन में) प्रतिबन्ध करने वाले कर्म दोषों
को खपाने वाला ।। ७८ ॥ ११ सभी पदार्थों में आसक्ति रहित-मध्यस्थ, १२ भगवंत की सभी आज्ञाओं में सर्वथा लगा हुआ, वचन की आराधना में .. ही एक निष्ठा रखने वाला- । अर्थात् -मन में विस्त्रोतसिका-उत्थल-पात्थल से-विरुद्ध भावों से- रहित होकर, उस आज्ञा में-जाग्रत् भाव के लक्ष्य-रखकर, मूढ़ भाव का लक्ष्य से रहित हो कर.-तत्पर रहने वाला, ॥ ७९ ॥ १३ (आज्ञा में अतत्परता की-हानि समझकर) तैल पात्र के धारक के दृष्टांत से, अथवा, राधावेध करने वाला का दृष्टांत से, अप्रमत्त भाव में सदा सावधान हो। भुद्र चित्त वाला-निर्बल मन वाला-आत्मा इस प्रकार करने का अधिकारी