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हिंसा-अहिंसा
गा० १२१-१२२-१२३ ]
( ६१ )
पीड़ा करने वाली रहती है, इससे दोनों में समानता है ।
t "पीडा से अधर्म होता ही है," ऐसा नियम भी नहीं है ऐसा नियत नियम नहीं. जो ऐसा नियम रखा जाय, तो वैद्य के कार्य में दोष-आ जाय, ( क्योंकि - छेदन भेदनादि से पीडा करने पर अधर्म हो जाय किन्तु उसमें अधर्म नहीं कहा जाता है । क्योंकि - रोगी को बचाने की अहिंसा फलित होती है" ॥१२०॥
विशेषार्थ
•हित करने वाला वैद्य का औषध - से पीडा की उत्पत्ति होने पर भी, व्रण के छेदन - भेदन आदि से अधर्म नहीं होता है ।।१२० ॥
"अह, तेसिं परिणामे सुहं तु." "तेसिं पि सुव्वइ एअं" । तजणणे विण धम्मो भणिओ पर दारगाऽऽईणं." । १२१ ।।
+ " अब, (जिनभवानादि कराने में जीवों की हिंसा होने पर भी ) उन जीवों को परिणाम में - आखर में सुख होता है" ऐसा यदि कहा जाय, तो (यज्ञ में भी जिसकी हिंसा होती है) उन जीवों को भी (स्वर्गादि का सुख मिलता है) । ऐसा (शास्त्रों में ) सुना जाता है ।"
"सुख मिलने पर भी परस्त्री का सेवन करने वालों को भी धर्म नहीं होता है," ऐसा शास्त्र में कहा गया है । ( इससे सुख मिलने पर भी धर्म हो ऐसा नियम नहीं है | ) || १२१ ॥
"सिय" तत्थ सुहो भावो तं कुण माणस्स” “तुल्लमेअपि । इयरस्स वि सुहो च्चिय णेयो इयरं कुणंतस्स. " ॥ १२२ ॥
+ "ठीक है, किन्तु ऐसा कहा जायगा कि इसमें ( जिनभवनादि कराने में ) उसे करने वालों का शुभ भाव रहता है ।" "ऐसा आपका यदि कहना होगा" तो भी दोनों में समानता ही है । क्योंकि-वेद में कहे यज्ञ आदि के विधान से, वेद में कही हुई हिंसा को करने वाले दूसरों को भी शुभ भाव होता है, ऐसा जानना चाहिए" || १२२ ॥
"एगिदियाऽऽई अह ते" "इयरे थोध." “ता" किमेएणं ।"
“धम्म- ऽत्थं सव्वं चिय वयण एसा न दुट्ठ" त्ति. " ॥ १२३॥
+ ( कहा जायगा कि - ) “जिनभवनादि में एकेन्द्रिय आदिक जीवों की हिंसा होती है ।"