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________________ गा० १२६-१२७ ] (६३) [लोक प्रमाण के विषय में * "यह बात भी इस प्रकार नहीं है । क्योंकि इस प्रकार का कोई शास्त्रपाठ नहीं है । और “वेद वचन प्रमाण भूत हो" इस बात में भी लोक के वाक्यों की एकता नहीं हैं, ( सभी लोग वेद वचन को प्रमाण भूत मानते ही हैं, एसा नहीं है )" ॥१२५॥ विशेषार्थ लोक में छ ही प्रमाण माना गया है, लोगों को प्रमाण माना जाय, तो सातवां प्रमाण हो जायगा, ऐसा तो नहीं है । । १२५॥ 'अह, पाठोऽभिमओ च्चिय, विगाणमऽपि एत्थ थोवगाणं उ.।" एत्थं पि ण पमाणं, सव्वेसिं अ-दसणाओ उ. ॥१२६।। : लोग को (प्रमाण मानने का) पाठ (उपलक्षण से) संमत है, और विरोध तो वेद को प्रमाण मानने में थोड़े ही लोगों का है।" + "(तुम्हारी) यह कल्पना भी ठीक नहीं है-प्रमाण भूत नहीं है। क्योंकि- सर्व लोगों को अपने देख सकते नहीं, (तो किस पक्ष में अल्प ? या बहुत लोग हैं ? एसा निर्णय नहीं किया जा सकता है । तो एसी तुम्हारी कल्पना ठीक नहीं है ।" ॥१२६॥ "किं तेसिं दसणेणं ? अप्प बहुत्तं जहित्य, तह वेव । सव्व-त्थ समवसेयं.” 'णेवं, वभिचार भावाओ.' ॥१२७ । “सर्व लोगों को देखने का क्या प्रयोजन है ? जिस तरह इस (मध्य) देश आदि में वेद वचनों को प्रमाण मानने के लिए सभी को देखना पड़ता नहीं। जिस प्रकार चलता है, उस प्रकार और सभी देशों में भी समान ही है (यहां के लोग जिस तरह वेदों को प्रमाण मानते हैं, उसी तरह वहां भी मानते हैं।" 1. "एसा नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें व्यभिचार दोष आ जाता है" ।।१२०॥ विशेषार्थ "जिस तरह वेद वचनों को प्रमाण मानने वालों की संख्या यहां पर अधिक है, और प्रमाण भूत नहीं मानने वालों की संख्या अल्प है, उसी तरह और देशों में भी ऐसा ही समझ लेना चाहिए।" "ऐसा नहीं है ।" ॥१२७॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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