SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १२८-१२९ ] भाव का प्रामाण्य इस बात को ही समर्थित की जाती है''अग्गा-5ऽहारे बहुगा दिसंति दिआ, तहा ण सुद्द"त्ति । ण य तहसणओ चिय सम्वत्थ इमं हवइ एवं ॥१२८॥ + ''अग्र भोजन में इस देश में बहुत ब्राह्मणों देखे जाते हैं, उसी प्रकार शूद्र लोग ब्राह्मण की तरह बहुत नहीं देखे जाते हैं।" "ऐसा कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि इस देश में भोजन की आगे की पंक्ति में ब्राह्मणो को बहुत देखने पर भी, भील्ल-पल्ली आदि स्थानों में ऐसा (ब्राह्मण बहुत्व) देखने में आता नहीं" ||१२८।। + उसमें दूसरी युक्ति भी दी जाती है “ण य" बटुगाणऽपि इत्थं अ-विगाणं सोहणं' ति नियमोऽथं."। - ण य "णो थोवाणं पि हु," मूढेयर-भाव-जोएणं. ॥१२९।। ___"लोक में बहुलोगों को एक वाक्यता ऐकमत्य अच्छा ही है,” एसा नियम नहीं है । और. "थोड़े की भी एक वाक्यता अच्छी नहीं है"। "एसा भी नियम नहीं है।" किन्तु-मूढ भाव से-इतर भाव का योग से जो हो, वह अच्छा होता है।" एसा नियम है ।।१२९।। विशेषार्थ ____ बहु होने पर भी मूढ लोगों की एक वाक्यता अच्छी नहीं होती हैं, और "मूढ भाव से रहीत एक का भी कहना अच्छा होता है ।" अर्थात् जो नढ भाव से रहित भावसे-उसका योग से कहा गया हो, वह अच्छा हो सकता है। मूह भाव से इतर भाव का योग का अर्थ यह है कि- मिथ्या ज्ञान और मोह से प्रयुक्त क्रोध, मानादि कषाय भाव और इंद्रियों की आसक्ति, इत्यादि मूढ भाव से प्रयुक्त रहते हैं। और सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, और सम्यक चारित्र । उसे मूढेतर भाव कहे जाते है। ऐसे मूढेतर भाव से प्रयुक्त जो निर्णय, विचार, वाक्य, प्रवृति, वे सभी अच्छे होते हैं ।
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy