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[ सु-साधु-स्वरूप
परीक्षा में जो शुद्ध मालूम पड़ता रहे, वह
गा० ८९-९०-९१ ]
कषादि चार कारणों से की जाती सोना विषघाती - रसायन आदि भाव गुणों से युक्त होता है ॥ ८७ ॥
उसी प्रकार - सुसाधु दान्तिक में—
अनुक्रम से कषादि चार इस प्रकार घटमान होते हैं
१ उत्तम लेश्या - स्वभाव सौष्ठव रूप-कष परीक्षा है । अपूर्व सारपना रूप-छेद परीक्षा है ।
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३ अपकार करने वालों पर भी अनुकंपा-हित करने को बुद्धि हो जाय, वह ताप परीक्षा है ।
४ और कष्ट परंपरा में मन की स्थिति क्षोभ रहित हो- स्थिर हो, वह तान परीक्षा है । ८८ ॥
तं कसिण- गुणोवेअ होइ सु-वण्णं, न सेसयं, जुत्ती. ।
ण वि णाम रूव मित्रोण' एवम - गुणो हवइ साहू. ॥। ८९ ।।
।। पञ्चा० १४-३८ ॥ .
+ उक्त सभी गुणों से युक्त हो, वही सच्चा सोना होता है । और दूसरी तरह से- मिश्रण से बनाया हुआ सच्चा सोना नहीं होता है । वह युक्ति सोना है । उस प्रकार से - जो गुण रहित होते हुए भी, बाह्य नाम और रूप मात्र से सच्चा साधु नहीं होता है ।। ८९ ॥
जुत्ती सु-वण्णयं पुण सु-वण्ण-घण्णं तु जइ वि कीरिज्जा. । णहु होइ तं सु-वण्णं सेसेहिं गुणेहिं असंतेहिं ॥ ९० ॥ पञ्चा० १४-३९ ।। मिश्रण कर युक्ति से बनाया हुआ कृत्रिम सोना सच्चा सोना नहीं होता है, क्योंकि - किसी न किसी हालत से वह सोने का पीला रंग धारण कर लेता है, किन्तु - विषघाति आदि शेष सभी गुण नहीं होते हैं ॥ ९० ॥
+ अब चली आती मूल बात पर ग्रन्थकार श्री आते हैं
जे इह सुत्ते भणिया साहु-गुणा, तेहिं होइ सो साहू. । वण्णेणं जच-सु-वण्णयं व संते गुण निहिम्मि ॥ ९१ ॥
पञ्चा० १४-४० ॥