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गा० ८६-८७-८८ ]
( सुसाधु) -
१ कितने ही जीवों का मोह रूप विष का घात करते हैं- मोह को नष्ट करते हैं ।
( ४१ )
[ चार प्रकार से परीक्षा
२ कितनेक जीवों को मोक्ष का उपदेश देकर रसायन रूप बनते हैं,
३ परिणत जीवों के लिए - मुख्य गुणों से मंगल के कार्य करते हैं ।
४ स्वभाव से ही योग्य होने से - विनयशील होते हैं ॥ ८४ ॥
५ सन् मार्ग के अनुसरण रूप प्रदक्षिणावर्त करते हैं- दाहिनी ओर घूमते हैं, उन्मार्ग में वाम मार्ग में नहीं घूमता है,
६ गंभीरता गुण से गुरु है, गौरव युक्त है, गौरव पात्र है ।
७ क्रोध रूप अग्नि से कभी भी दग्ध नहीं होते है ।
८ और उचित शील को सवा धारण कर रखने से बिगड़ता नहीं- सड़ता नहीं, ताजा ही प्रसन्न ही पवित्र ही रहता है ।। ८५ ॥
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. एवं दिट्ठ-S'त गुणा सज्झम्मि वि एत्थ होंति णायव्वा. ।
ण हि साहम्मा 5-भावे पायं जं होह दिट्ठ-ऽन्तो ॥ ८६ ॥ पश्चा० १४-११ ।
विष घाति आदि सोने के जो गुण कह गये, वे साध्य रूप साधु में मी होते है, यह समझ लेना ।
क्योंकि - साधर्म्य के अभाव में प्रायः दृष्टान्त बनता ही नहीं । (महां, दोनों के समान धर्म है हो ) || ८६ ।।
२ छेद ३ ताप
चउ-कारण- परिसुद्ध' कस छेअ-ताव- तालणाए अ. ।
जं, जं विस-घाइ - रसा ऽऽयणा-ऽऽइ-गुण-संजुअं होइ ॥ ८७ ॥ इयरम्मि कसा - SSइआ विसिह लेसा, तहेग सारतं । अवगारिणि अणुकंपा. वसणे अइ- णिच्चलं चित्तं ॥ ८८ ॥
पञ्चा० १४-३६-३७ ॥
* यह सुसाधु और सोना भी, चार कारणों से शुद्ध होने का मालूम पड़ता है ।
चार कारण
१ कष,
४ और-ताडन ।