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गा० १५-१६-१७-१८ ]
(८) [ उदारता का फल और सु- श्राशय की वृद्धि
लोगे अ साहु-वाओ अ-तुच्छ भावेण 'सोहणी धम्मो ". । “पुरिसुत्तम-पणीओ" पभावणा एवं तित्थस्स ॥ १५ ॥ कंजूसपना न होने से -
"यह धर्म बहुत अच्छा है.” कि जो "पुरुषोत्तम महापुरुषों का बतलाया हुआ है ।" "जिससे दया की प्रवृति सर्वत्र फैलती है" ।
इस प्रकार से लोक में धर्म की प्रशंसा होती है, और
जैन शासन की प्रभावना भी बढ़ती है ॥ १५ ॥ इस प्रकार परोक्ष फल होता है
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कार्य करों को संतुष्ट रखने का दोनों फल कहा गया । ४. ( मन में ) शुभ भाव की वृद्धि
सा-[सु-आ]SSसय-बुढ्ढो वि इहं भुवण गुरु-जिणिंद गुण परिण्णाए । तबिंब - ठावण-त्थं सुद्ध पवित्तीह नियमेणं. ॥। १६ ।।
१. " संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए प्राणियों को उसे बचने के लिये यही एक सहारा है ।"
इस प्रकार त्रिभुन गुरु श्री जिनेश्वर भगवंतो के गुणों की योग्य समझ पूर्वक उनके प्रतिमाजी की स्थापना करने को शुद्ध प्रवृत्ति की जाती है । जो अवश्य ही शुभाशय की वृद्धि रूप है ॥ १६ ॥ "पेच्छिस्सं एत्थ अह वंदणग निमित्तमाऽऽगए साहू । कय- पुण्णें भगवंते गुण- रयण निही महा सत्ते ॥ १७ ॥ २. "पुण्यशाली, गुण रूपी रत्नों के भंडार, महा सात्विक, दर्शन करने के योग्य और मोक्ष मार्ग के साधक साधु भगवंतो - इस मंदिर में श्री जिनेश्वर देव को वंदना करने के लिए अवश्य पधारेंगे, तब मेरे को भी, इस मंदिर में उन्हीं के दर्शन करने का प्रसंग प्राप्त होगा ही " ॥ १७ ॥
पडिबुज्झिस्संति इह दृहूण जिणिंद - बिम्बम कलंक, । अण्णे वि भव-सत्ता काहिंति ततो परम धम्मं ॥ १८ ॥ ३. मोह रूप महा अंधकार को नष्ट करने में कारण रूप निष्कलंक श्री जिन प्रतिमाजी का इस जिन मंदिर में दर्शन पाकर और भी अनेक लघुकर्मी भव्य आत्माओं प्रतिबोध पायेंगे, और संयम रूप परम धर्म को प्राप्त करेंगे ' ॥ १८ ॥