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गा० १६८-१६९ ]
(८१) [ पौरुषेय-अपौरुषेय-विचार उसी कारण सें-पूजागत हिंसा को भी “गुणकारी' समझना चाहिए। जिसके लिए आगे (१५५) की गाथा में न्याय बतलाया गया है, उसे जाना जाता है, कि-अधिक दोषों की निवृत्ति में निमित्त भूत बनने से, और यतना से, यहां-जिन पूजादिक में अल्प ही हिंसा होती है ।। १६७ ॥ * (संभवत् स्वरूप का उपसंहार-)
"तह, संभवंत-रूवं सव्वं सव्व-पणू - वयणओ एअं.। तं णिच्छि कहिआ-ऽऽगम-पउत्त-गुरु-संपयाएहिं. ॥ १६८ ।।
तथा, (उपरोक्त) सभी सर्वज्ञ के वचन से संभवित स्वरूप वाला है। असंभवित नहीं है। - और-"संभवत्-स्वरूप वाला है," ऐसा निर्णय भी कथितागम (अथवा हितागम अथवा आगम) से चली आती गुरु संप्रदाय-परंपराओं से किया जा सकता है-किया गया है ।। १६८ ।।
विशेषार्थ जिन भवनावि में जिस प्रकार अहिंसादिक कहे गये हैं, वे सभी सर्वज्ञ के वचन से संभवत् स्वरूप वाले हैं- अर्थात् संभवित है।
श्री सर्वज्ञ से जाने गये पदार्थों का कथन से उत्पन्न जो आगम- उसके प्रेरक बल से उत्पन्न सतत चली आती गुरु संप्रदाय एवं गुरु परंपरा, उसे निर्णीत कर यह सभी कहा जाता है, इससे प्रमाण भूत भी है हो । १६८ ।। + (पौरुषेय अपौरुषेय की विचारणा)
"वेअ-वयणं तु नेवं. अ-पोरसेअंतु तं मयं जेण. । इअमऽच्च-त-विरुद्ध. "वयणं च." "अ-पोरसेअं च." ।। १६९ ॥
"वेद वचन इस प्रकार संभवत् स्वरूप वाला नहीं है । क्योंकि- उसको अपौरुषेय माना गया है। अर्थात् उसको रचने वाला-बोलने वाला कोई प्रथम पुरुष माना गया नहीं है।
'वचन है।" और फिर भी वह 'अपौरुषेय है।" यह ही परस्पर अत्यन्त विरुद्ध दिखाई देता ही है ॥ १६९ ।।