SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १५७-१५८-१५९ १६०-१६१] ( ७९ ). + प्रसङ्गमाऽऽह, : एत्तो च्चिय णिद्दोस सिप्पा -ऽऽइ-विहाणमो जिणिंदस्स । लेसेण स - दोसं पिहु बहु दोस- णिवारणत्तेणं ॥ १५७ ॥ वर - बाहि-लाभओ सो सव्युत्तम - पुण्ण-संजुओ भयवं, । एग-त-पर-हिअ-रओ, विसुद्ध - जोगो, महा- सत्तो ॥ १५८॥ जं बहु-गुणं पयाणं, तं णाऊणं, तहेव देसेइ । तं रक्तस्स तओ ओचिअं कह भवे दोसो ? ॥ १५९ ॥ तत्थ पहाणो अंसो बहु- दोस-निवारणेह जग- गुरुणी. | नागा - ss३ - रक्खणे जह कढण - दोसे वि सुह-जोगो. ॥१६०॥ एवं णिवित्ति पहाणा विष्णेया तत्तओ अहिंसेयं. । जयणावओ उ विहिणा पूआ - इ - गया वि एमेव ॥ १६१॥ पञ्चा० ७-३५-३६-३७-३८-४२ ।। [ आद्य - जिनोपकारः आसां व्याख्या:, : अत एव = यतना-गुणात् जिनेन्द्रस्य लेशेन निर्दोषम् शिल्पा-ऽऽदि-विधानम् [ अपि ] बहु-दोष निवारणत्वेन = अनुबन्धतः । इति-गाथा - ऽर्थः १५७ ॥ स- दोषमपि = सत् = एतदेवाऽऽह : वर- वोधि-लाभतः = सकाशात् सः [असौ] = जिनेन्द्रः एकान्त-पर-हित- रतः = : तत्-स्व-भावत्वात्. विशुद्ध - जोग:, महा - सत्त्वः = इति - गाथा - ऽर्थः ॥ १५८ ।। = आद्यस्य सर्वोत्तम - पुण्य- संयुक्तः, - = भगवान्,
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy