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गा० १६३-१६४ ]
(६२ ) [ द्रव्य-भाव-स्तव का उपसंहार + द्रव्य स्तव और भाव स्तव यथा योग्यता के अनुसार अर्थात्-गौण और मुख्यता
की अपेक्षा से परस्पर अवश्य संबंध रखने वाले हैं। अर्थात्-परस्पर गुथे हुए जानने चाहिए। जो ऐसा न हो तो, दोनों का स्व स्वरूप ही रह सकता नहीं।
विशेषार्थः भाव स्तव की अपेक्षा से ही द्रव्य स्तव का स्वरूप रहता है। और द्रव्य स्तव की अपेक्षा से ही भाव स्तव का स्वरूप रहता है। द्रव्य और भाव का व्यवहार ही परस्पर को सापेक्ष है ।। १९२ ॥
"अप्प-विरिअस्स पढमो, सह कारि-विसेस-भूअमो सेओ।
इअरस्स बज्झ-चाया इअरो च्चिअ" एस परम-ऽत्थो. ॥ १९३ ॥ * जिसके आत्मा का वीर्य बल-अल्प होता है, उसके लिए पहिला-द्रव्य-स्तवखूब सहकारी-सहायक बनकर रहता है, और उसका वीर्योल्लास के लिए श्रेस्कर होता ही है । और दूसरा-अर्थात् भाव स्तव-जिस आत्मा का वीर्योल्लास अधिक हो, ऐसे मुनि को बाह्य द्रव्य स्तव का त्याग होने से दूसरा-अर्थात् भाव स्तव श्रेयस्कर होता है। यहां रहस्याथ-साधु को बाह्य पदार्थों का त्याग रहने से बाह्य द्रव्य स्तव का भी त्याग रहता है ॥ १९३॥
* इससे उल्टा किया जाय, तो क्या दोष हो जाय ? वह बतलाया जाता है,
दव्व-स्थयंपि काउण तरह जो अप्प वोरिअत्तेणं, । परिसुद्धं भाव-थयं काही सोऽ-संभवो एस. ॥ १९४ ।।
जिस आत्मा का वीर्य अल्प विकसित हो, एसा आत्मा यथा योग्य रीति से द्रव्य-स्तव भी नहीं कर पाता है, और "वह परिशुद्ध भाव-स्तव को करेगा", यह असंभव है । क्योंकि- इस आत्मा में तथा-प्रकार की योग्यता प्रकट नहीं हुई रहती है ।। १९४ ॥