SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३९.१४० । भावापत्ति निस्तार गुण भी उपकार रूप बहु गुण होता है।" ऐसा जो वचन है, सो विरुद्ध नहीं है। इस कारण से-एसा वचन का विरुद्ध-वचन-पना समझना न चाहिये ॥१३८|| * इसकी स्पष्टता की जाती है, सहसव्वत्थाऽ-भावे जिणाणं, भावा-55-वयाए जीवाणं. तेसिं नित्थरण-गुणं णियमेण इह तवा-ऽऽययणं. ॥१३९॥ श्री जिनेश्वर देवों का सदा सद् भाव नहीं रहता है, और सर्वत्र विहरमानता नहीं रहती है। इस कारण से-जीवों को भाव-आपत्ति रहती है। उन जीवों का (भावापत्तिओं से ) निस्तार करने के लिए, इस जगत् में जिन मंदिर अवश्य निस्तार करने वाला ( भाव आपत्तिओं से जीवों को दूर कराने वाला) गुण युक्त होता है ।। १३९ । + (क्योंकि-) तबिंषस्स पइट्टा, साहु-णिवासी अ, देसणा-55ई अ, । इविक्क भावा-ऽऽवय-नित्थरण-गुणं तु भव्वाणं. ॥ १४ ॥ ___ वहां श्री जिनेश्वर प्रभु का बिब को (स्थापना) प्रतिष्ठा होती है, तथा वहां (किसी विभाग में) उस प्रकार के साधु महात्मा पुरुषों का निवास होता रहता है, और धर्म का उपदेश आदि भी चलता रहता है । ( आदि शब्द से धर्माचारण, ध्यान आदि समझ लेना।) उसमें से- (प्रतिष्ठा आदि) एक एक भी भव्य जीवों की भावापत्ति को दूर करने में समर्थ होता है ।। १४० ॥ विशेषाः भावापत्ति का अर्थ राग द्वेष आदि भाव दोषों को समझना चाहिए । अर्थात्-अनुबध में जिन मंदिर आदि, राग द्वेषात्मक भावापत्तिओं को दूर करने में सहायक होते हैं भावापत्ति हटने से द्रव्यापत्ति हटती है ।।१४०॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy