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गा० १३६-१३७-१३८ ।
* जिन कारणों से इस प्रकार की स्थिति है
"तम्हा ण वयण मित्तं सव्वत्थ-विसेसओ बुह-जणेणं । एत्थ पवित्ति णिमित्तं. एअं दट्ठव्वयं होइ . " ।। १३६ ।।
| वचन मात्र प्रर्वतक नहीं
'उन उपरोक्त कारणों से विद्वान् पुरुष को, किसी खास विशेषता रहित पना से युक्ति शून्य - अर्थात् अघटमान वचन मात्र को "सर्वत्र इस लोक में हितकारी कार्यादि में प्रवृत्ति कराने में - कारण भूत नहीं है ।" एसा समझना चाहिए ।
चाहिये ।। १३६ ।।
''वचन - मात्रपना से हितकारी है ।" ऐसा नही
समझना
+ ( तब क्या करना चाहिए १ )
'किं पुण विसिगं चिय, जं दिट्ठिट्ठाहिं णो खलु विरुद्धं, । तह संभवं [त-रूवं] स-रूवं विभरिऊं सुद्ध-बुद्धिए. (९) ।। १३७ ।।
जो वचन विशिष्ट हो, उसको ही प्रवृत्तिनिमित्तक बनाना चाहिए ।
ऐसा वचन कौनसा हो सकता है ? जो दृष्ट से और इष्ट से विरुद्धवचन रूप न हो, ऐसा तीसरा स्थान में रहा हुआ हो, और संभवित-स्वरूप वाला हो । ( अर्थात् अत्यन्त असंभवित स्वरूप वाला न हो) । सद्बुद्धि से ( मध्यस्थ बुद्धि से ) विचार कर, एसे वचन को प्रवृत्ति निमित्तक बनाने में स्वीकार करना चाहिए || १३७॥
+ ( दृष्टान्त दिया जाता है -- )
"जह इह, दव्व त्थयाओ भावा ऽऽवय- कप्प-गुण- जुया उ [जुआ सेओ ] जयणाए पिडुवगारो जिण भवण-कारणा दित्ति (दु" - इत्ति) न विरुद्धं ॥ १३८
जिस प्रकार इस ( जैन प्रवचन में कहा गया है कि - "भावापत्ति निस्तार गुण युक्त द्रव्य स्तव से कल्याण है । क्योंकि- पिडा होने पर भी जिन भवन करना - कराना आदि द्रव्य स्तव से - ( यतना पूर्वक) पीडा करने-कराने से