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________________ गा० १०८ ] ( ५१ ) [ जिन भवनादि-प्रभु सम्मत अंतर रहता है, तथापि-उस द्रव्य स्तव का अनन्तर कारण किस तरह कहा जा सकता है ?" उसका जवाब यह है कि"ऋजु सूत्र आदि नय से अनन्तर कारणपना समझना चाहिये।" उस नय से कथंचित्-उस स्थान का अनन्तर-पूर्ववति भावों को पकड़ कर अनन्तर कारणता समझी जावे । और व्यवहार नय से-- द्वारका व्यवधान से द्वारी अन्यथा सिद्ध नहीं सिद्ध हो जाता है, (घट की उत्पत्ति में दंडका चाकको भमाने में जो भमाने का व्यापार होता है, वही नजदीक का कारण-अनन्तर कारण बनता है, तो दण्ड को कारण नहीं माना जाय ?i ( ऐसा न करना चाहिये, क्योंकि-) दंड भमाने की क्रिया द्वारा घट में कारण रहता है, उसी कारण से-दण्ड को- (द्वारिको) अन्यथा सिद्ध (निकम्मा) नहीं माना जाता है। इसे व्यवहार नय से- दण्ड घट का निकट का अनन्तर कारण है ही। यह बात अध्यातममत परोक्षा आदि में स्पष्टता से सिद्ध की गई है॥१०७॥ * श्री जिनभवनादि में भी आज्ञा का विधान किस तरह माना जाय ? वह कहा जाता हैजिण भवण-कारणा-ऽऽइ वि भरहा ऽऽइणं ण निवारियं तेणं, । जह तेसिं चिय "कामा सल्लं, विसा"-ईहिं णाए [वयणे] हिं.॥१०८॥ पश्चा० ६.३५ ।। जिस तरह श्री ऋषभदेव प्रभु ने "कामो-विषयो-शल्य समान है, विष समान है" ऐसा कह कर जिस तरह दृष्टान्त से निषद्ध किया है-न करने को कहा है। उसी तरह भरत आदि श्रावकों को जिनमन्दिर आदि बनाने का निषेध आदि प्रभु ने नहीं किया है। यदि निषेधा होता, तो दिषटूमेवा तरह करने को निषेध फरमाते । विशेषार्थ "सल्लं कामा, विसं कामा" . इत्यादि शास्त्र प्रसिद्ध वाक्यों से निषेध किया गया है ॥१०८॥
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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