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[ उपचार विनय - द्रव्य - स्तव
गा० १०६ - ११०-१११ ]
( ५२ )
ता तंपि अणुमयं चिय अ-पडिसेहाओ तंत- जुत्तीए । इय सेसा ण वि इत्थं अणुमोअणमाऽऽह अ-विरुद्धं ॥ १०९॥
पचा० ६-३६ ।।
उसी कारण से तंत्र शास्त्र-युक्ति से समझा जाता है, कि - "जिसका निषेध न किया गया हो, उसको "अनुमत किया है ।" ऐसा समझना चाहिये । " अ-निषिद्धमनुमतम् ।" यह तन्त्र शास्त्रीय युक्ति है ।
अर्थ: "जिसका निषेध न किया गया हो, उसको अनुमत समझना चाहिये ।"
इस प्रकार --
श्री तीर्थंकर देव ने जो अनुमत रखा है, उसमें, और साधुओं के लिए भी द्रव्य स्तव में अनुमोदना निषिद्ध नहीं है । ( किंतु आज्ञा सिद्ध ही है । ) । १०९ ।। विशेषार्थः
आदि शब्द से (जिन भवनादि को ) कराने का उपदेश आदि भी ( अनुमत में) समझ लेना रहता है ॥ १०९ ॥
+ उसमें दूसरी भी युक्ति दी जाती है
जं च, चउडा भणिओ विणओ. उवयारिओ उ जो तत्थ, । सो तित्थ-यरे नियमा ण होइ दव्व-त्थयादऽण्णो ॥ ११० ॥ पञ्चा० ६-३७॥
दूसरा भी
चार प्रकार के विनय (शास्त्रों में) बताया गया है। उनमें जो (चौथा ) उपचार विनय बताया है, वह विनय श्री तीर्थंकर प्रभु का द्रव्य स्तव से दूसरा नहीं है ॥११०॥
विशेषार्थः
अर्थात्(-द्रव्य-स्तव ही उपचार विनय रूप है । ( अथवा, द्रव्य स्तव उपचार विनय रूप ही है ॥ ११० ॥
एअस्स उ संपाडण - हेउ तह हंदि वंदणाए वि ।
पूअणमा - SSदुच्चारणमुववन्न होइ जइणो वि. ॥ १११ ॥
पश्चा० ६-३८ ॥