SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ११५- ] (५१) [ मुनि को गौण भाव से द्रव्य स्तव उन [ मुनि ] के सिवाय जो श्रावकवर्ग इस ( द्रव्यस्तव) में अधिकारी है, वह तो भावस्तव का अंगरूप होने से द्रव्य स्तव के साक्षात् अधिकारी है ॥ ११४॥ जिससे कहा गया है, कि - 44 'अ-कसिण-पवत्तगाणं विरया 5- विश्याण एस खलु जुत्तो. । संसार - पयणु- करणो दव्य स्थए कूव दिट्ठ- ऽन्तो, " * ॥११५ पञ्चा० ६-४२ ।। "संपूर्ण संयमधारी न होने पर भी -कुच्छ अंश में विरत, और कुच्छ अंश में 'अविरत, एवं देशविरतिधर आत्माओं को शुभ का अनुबंध-शुभ की परंपराकराने वाला होने से, एवंसंसार को घटाने वाला होने से यह द्रव्य स्तव उचित है - योग्य है । द्रव्यस्तव के विषय में कूपका दृष्टान्त जानना चाहिये । जो उसकी कथा से जाना जाता है ।। ११५ ॥ कूप विशेषार्थ के दृष्टान्त पर संक्षिप्त विचार -- नवीन नगर की स्थापना करने के समय पानी के लिये कुवां बिना पानी कहां से मिले ? तो कूदे का खनन करते समय श्रम, तृष्णा, कर्दमलेप, आदि are होते हैं, किन्तु कूप तैयार होने के बाद जलपान, स्नान, आदि से आरामशान्ति मिलती है, स्वच्छता होती है, और अन्य लोग भी लाभ उठाते हैं । उसी तरह, जो भावस्तव नहीं कर सकता है, उसको संसार से छुटने के लिए अल्पदोष युक्त होने पर बहुगुण युक्त एवं भावस्तव में कारणभूत द्रव्यस्तव अवश्य कर्तव्य है । १८ सहस्त्र शीलांगरूप भावस्तव जिससे न हो सके, तो "कुच्छ भी न करना चारिये ?” कुच्छ करना यदि चाहे, तो क्या करना चाहिये ? भावस्तव के कारणभूत द्रव्यस्तव करना ही चाहिये । * * प्रायः आवश्यक नियुक्ति से यह गाथा ली गई हो, ऐसा मालूम पड़ता है । यदि द्रव्यस्तव करना चाहे, तो किस प्रकार करना चाहिये ? क्योंकि उसमें भी थोड़ा बहुत आरंभ समारंभ होता है, राग द्वेष की संभावना भी रहती है ही, यह बात सत्य है ] तो "कुछ नहीं करना चाहिये यदि ऐसा निर्णय किया जाय" ठीक है, कुछ भी न करना चाहिये । सोते रहे, या बैठे रहे वे ! बैठे क्यों रहे वे ? तो खावें पीवें किस तरह ? कुटुम्ब का परिपालन कैसे किया जाय ? तो गृहकार्य, व्यवसाय आदि करना ही पड़े, तो उसमें धर्म कार्य क्या हुआ ? वे सभी तो सांसारिक कार्य हुए। तो मोक्षभिलाषी जीव को द्रव्यस्तव रूप धर्मकार्य अवश्य करना चाहिये ।
SR No.002434
Book TitleStav Parigna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudas Bechardas Parekh
PublisherShravak Bandhu
Publication Year1971
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy